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सुविद्या-ज्ञान प्राप्त सभी को, तथापि प्रचलित कुछ प्रपंच।
Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
क्यों मनुज कष्टमय व्यवधानों
से, अविश्वास में विश्व उबल है रहा
सर्वत्र ही हिंसा-साम्राज्य
है, परस्पर मार रहें पता न क्या लेंगे पा?
जब से जन्में युद्ध विषय में
सुन-पढ़ रहें, क्या मूल-कारण इसके
किंचित यह लोभ- तंत्र निज-समृद्धि
ही, औरों की तो न चिंता है।
कौन प्रथम-कारक,
दमन-प्रवृत्ति है या अन्य-अधिकारों का हनन
हम महावीर सर्वस्व कब्जा कर
लें, और क्या करें हमें न मतलब॥
विषमता है क्षेत्र-
जाति-देशों में, प्रकृति-साधन भी असम विभक्त
संभव तुम एक स्थल समृद्ध, हम
दूजे में, मिल-बाँटते हैं सब निज।
अनेक स्थल नर सुख-वासी,
प्रकृति- सदाश्यता व आत्म-सुप्रबंधन
प्रयास से भी वह अग्र-गमित,
निर्माण निस्संदेह ही माँगता सुयत्न॥
'Ants and the Grasshopper' एक लघुकथा बचपन में थी पढ़ी
चींटियाँ सर्वदा
कर्मठ-संगठित हैं, परिश्रम से कुछ संग्रह कर लेती।
टिड्डा आनंद में है उछलता,
रह-रहकर दूजों को बाधित करता बस
कुछ कहीं से पा लेता तो पेट
है भरता, बड़े कष्ट में होता अन्य समय
न जरूरी दूजे सहायतार्थ आऐं,
वे भी स्व-व्यस्त व स्वार्थी हैं किंचित॥
क्या टिड्डे का रक्षण
चींटियों का दायित्व, या उसकी आत्म-निर्भरता
उचित समय वह योग्य था,
परिश्रम से गृह-भोजन जुटा था सकता।
पारिश्रमिक श्रम अनुरूप ही
मिलता, `जितना बोओगे उतना काटोगे'
फिर कौन रोक रहा आगे बढ़ना,
अवरोध तो पार करने ही हैं होते॥
चींटियों ने घरबार-किले
बनाए, बहु भंडार-भोजन-सामग्री संग्रहार्थ
सेना-रक्षक, भृत्य रख लिए,
चोर-डकैत-अपराधों से सुरक्षा-उपाय।
विद्यालय-अस्पताल-सड़क-कार्यालय
निर्माण, अपने सों को आराम
'यथासंभव लूट लो' प्रवृति भी दर्शित है,
विषमता तो वर्धित बेहिसाब॥
मैं समृद्ध-समर्थ हूँ, वह
निर्धन, एक आत्म-निर्भर, दूजा परमुखापेक्षी
किंचित योग्य अनेक उपाय
जानता, कैसे समृद्धि बढ़ाई जा सकती।
चाहे अन्यों के प्राण-मूल्य
पर ही हो, व सर्व-वैभव में अल्प-रिक्तता
अन्य भाग्य या अन्यों को कोस
रहता, पर जाने कुछ न होने वाला॥
आर्थिक-असमता विशेष
वैमनस्य-कारण, समाज-दशा में अति-भेद
निर्धन-दमित भी आयुध उठा
लेते, देखते वे कैसे हो सकते समृद्ध ?
मार-खसोट प्रवृत्ति
नर-उत्पन्न, उन्होंने लूटा, कुछ तो हम भी छीन लें
या वहाँ अधिक हम भी चलते
हैं, आजीविका मिलेगी, चमकेगा दैव॥
सदा निर्धन ही हिंसा का
सहारा न लेते, बहुदा विद्रोह-क्षमता न हस्त
लोलुप-धनियों की दमन-लूट प्रवृत्ति
सतत, जिससे हो समृद्धि-वर्धन।
कुछ सशस्त्र सेना ले निकलते
विश्व-विजय, सर्वाधिकार ही पृथ्वी पर
निर्बल स्वयं पथ देंगे,
हठी-दुस्साहसियों का मान-गर्व कर देंगे मर्दन॥
फिर विजित क्षेत्रों से
उपहार- कर ही मिलेंगे, सर्व- प्रजा होगी अनुचर
मन-मर्जी, समृद्धि से जीवन
सुखी होगा, प्रजा भूखी हो तो भी न दुःख।
कुछ धनी-राजा हितैषी भी
मिलते, नाम-मात्र तो बहुत बाँटते रहते ही
पर अंदर से सोचते अनावश्यक
ही लुटाना, अन्यथा होगी कोष-क्षति॥
दबंगों ने नियम बना लिए
बल-बुद्धि बूते, अधिकतम को रखो हाशिए
कुछ मृदुभाषी धर्म-नाम की दुहाई
से, प्रजा को जाति-धर्म हैं सिखाते।
प्रजा-विद्रोह न हो
नृप-समृद्धों के प्रति, सब भाँति युक्ति लगाई जाती
पर मनुज अति-चतुर हैं
जिजीविषा से, पंगा लेने का पथ ढूँढ़ लेते ही॥
फिर घोर संग्राम होते,
मार-काट यूँ, रिपु-सेनाऐं एक दूजे समक्ष खड़ी
अन्य-क्षेत्र में घुसकर
महायुद्ध है, कुछ की सनक से बहु-प्रजा मरती।
जीवन विद्रूप- अपघट होते
हैं, स्वार्थ में सैनिकों को लोकदमन बनाते
शिशु-अबलाओं पर ही अधिक-मार
है, कमाऊ वीरगति प्राप्त होते॥
प्रजाजनों को कुछ ही शासन-
अंतर दिखता, वे प्रायः रहते दुःखी ही
जब रक्षक ही भक्षक बनें तो
कहाँ समाई, कोई भली निकले युक्ति।
राजा कोष, प्रजाश्रम- भोजन
युद्ध में झोंके, न परवाह और किसी की
कैसे प्रगति फिर समाजों में,
परस्पर अरि, अशांति से महत्तम हानि॥
विद्रोह हेतु बड़े लड़ाके
उभरते हैं, पर आवश्यक तो न हों उचित ही
वे महद स्वार्थ ले चलते हैं,
चाहे आदर्श-लक्ष्य-दिखावा कुछ अन्य ही।
प्रजा को मूर्ख बना रण-दल
शामिल करते हैं, मरणार्थ आगे झोंक देते
खेलों, देश-धर्म-जाति-आर्थिक
विषमता के कारण भाव स्वतः आते॥
यदि सोचें तो अनेक विरोध के
कारण हैं, उँगलियाँ भी हाथ में असम
कुछ असमता प्रकृतिस्थ भी, पर्वत-मरुभू
गरीबी है या विपुल-वैभव।
नर ने आत्म-धन भुलाया, चंद
कंचन-सिक्कों-जमीनों में जान दी लगा
हाँ भोजन-जल-हवा-आवास मूलभूत
जरूरतें हैं, गंभीर होना न बुरा॥
क्या मनुज का जग-आगमन
उद्देश्य, आप भी दुखी औरों को भी करे
जबकि अनेक प्रकृति जीव-जंतु
अति-सद्भाव से जीते देखे जा सकते।
कभी-कभार संघर्ष भी दर्शित
है, भोजन-जल-स्थल हेतु मात्र विशेष में
दूजे जीव इतने न आक्रमक हैं
जितना नर, जरूरत दाँव-पेंच की क्या?
क्या इसका मूल मनुष्य का
धीमान होना, पर निश्चित श्रेष्ठतम से कम
वरन तो सब मिल-बैठ सर्व
मसलों का, न निकालते ही उपयुक्त हल।
क्यों खूँखार वन्य मगर-
भेड़िए-लकड़बग्गे- शार्क-सील जैसा आचार
प्रकृति पास पर्याप्त है सब
पेट भरने हेतु, मिल-बाँट खाना सदाचार॥
देश- जाति- क्षेत्रों ने दल
से बना लिए, मात्र संघर्ष करने हेतु ही परस्पर
विशेष सोच कुछ लोगों ने बना
ली, क्या वही सत्य, हूबहू मान लें अन्य।
मेरी सोच का ही सिक्का चलना
चाहिए, वही सर्वोत्तम दूजे क्यों न माने
स्वयं के दृष्टिकोण-सुधार की
आवश्यकता, जैसे हम हैं अन्य भी वैसे॥
क्या आवश्यक उदार चिंतन-मनन
में भी, हम नित्य अवश्यमेव उचित
निर्णय हैं सीमित
पोषण-परिवेश-अनुभव-ज्ञान व मनोभाव पर निर्भर।
संशोधन सदैव आवश्यकता,
चरम-परम-आदर्श-सर्वश्रेष्ठ दूर ही स्थित
तो भी उत्तरोत्तर सुधार हो,
पूर्व से बेहतर स्थिति में ही होवोगे स्थापित॥
मेरा प्रश्न क्यों समाजों ने
हथियार उठा रखे हैं, यूँ लगे क्रांति हेतु समग्र
क्यों शासक निरकुंश-स्वयंभू-निर्दयी
होता, प्रजा की न चिंता किंचित?
माना अधिकार-निष्ठ सबको
अच्छा लगता है, अन्यों की भी सोचो पर
सबके भले में ही अपना भला,
मनोदशा कार्यशैली में भी हो स्थापन॥
कहीं मात्र क्रूर-बल प्रयोग
प्रजा-नियंत्रणार्थ या उपदेश से ही बहलाना
आजमाते जो सूत्र हैं
उपयुक्त, रोष- क्रोध-ईर्ष्या-बदला प्रवृत्ति पालना।
तुम अमीर- बेहतर कैसे रह
सकते, हम कंगाल हैं क्या तुम्हें न दिखता
तब आओ हमारा भी क्षेम करो,
वरन हम तुमको भी स्व सा देंगे बना॥
इतिहास में भिन्न गुटों बीच
संघर्ष दर्शित है, कभी यह कारण या अन्य
भूमि-भोजन-जल-स्त्री हैं
कारण, कहीं शत्रुता, स्व-श्रेष्ठता स्थापन दंभ।
कभी तुमने किसी विषय पर
अपमान किया, सिखाना ही पड़ेगा सबक
आओ मैदान, देख लेंगे तेरा
पौरुष व साहस,`जो जीता वही सिकन्दर'॥
कभी प्रत्यक्ष युद्ध, चाहे
छद्म युक्ति बना, परोक्ष से करते हैं आक्रमण
मंशा है कि शत्रु आगाह न हो
पाए, गुप्त रणनीति से अधिक विध्वंस।
कुछ स्वेच्छा से जुड़ें
अभियान में, दूजों को डरा-धमका, समझा-बुझा
तब संग तो प्रसन्न रहोगे, हम
तेरा रक्षा-भरण करेंगे, दो साथ हमारा॥
मानव भी मूढ़ जीव, बिना निजी
शत्रुता भी लड़ता दूजों के कहने पर
उसको बताते हैं
देश-धर्म-आस्था पर प्रहार, कैसे शांति से बैठे तुम ?
हमेशा रक्त उबलता रहना ही
चाहिए, तभी तो दुश्मन होगा पराजित
मर जाओ या मार दो, मंसूबों
में जुटे रहो लगाऐ बिना बुद्धि अधिक॥
यूँ जातियों में अनावश्यक
वैमनस्य वर्धन, दल- प्रमुखों के स्वार्थ निज
अभी तो मात्र ही दुर्भावना
थी, पर युक्तियों से अनेक किए सम्मिलित।
दूसरे भी क्या शिथिल ही बैठे
हैं, वे भी तैयारी कर रहें आस्तीन चढ़ाऐ
बस प्रतीक्षा करो
घोर-संग्राम होगा, अरि-सेना पर जरूर जीत पाऐंगे॥
नृप-शासक-निरंकुशों पास अकूत
दौलत है, अत्याचार दिखता प्रत्यक्ष
जब निर्धन-बालकों के मुख न
भोजन-कोर, रोष तो होना स्वाभाविक।
निज वैभव-सुखों का
लोक-प्रदर्शन, दरिद्रों को अपमान-दुत्कार सदा
निज-सुरक्षार्थ किले-सेनाऐं
खड़ी की, किसमें साहस है हमसे ले पंगा॥
पर इतिहास-वर्तमान में भी
देखते, निरंकुशों का अंत तो अति-बुरा ही
यह अन्य बात जगह और कोई
लेता, पर आते शालीन-उत्तम-भले भी।
कुछ स्मरण कर सको तो पाओगे,
बहु चैन-अमन है श्रेयष शासन जहाँ
राजा- प्रजा परस्पर का ध्यान
रखते, समझदारी में ही विकास सबका॥
जीव इतना भी न निष्ठुर
प्रेम-भाषा न समझे, हाँ खल रखते युक्ति अपनी
इच्छा मात्र अशांति-विसरण,
मारकाट- अकाल से अपनी हाट चमकेगी।
निरीह- रक्त पान
दुष्ट-प्रवृति, जगत को शांत न बैठने दो, रखो तम-भ्रम
चाहे नाम समग्र हित-विकास
का, खल-प्रवृत्ति रग-रग से झलकती पर॥
मैं कहता अन्याय-प्रतिकार
होना चाहिए, पर क्या रण ही अंतिम विकल्प
सब विषयों पर मिल-बैठ चर्चा
संभव, उचित हेतु करो भी विरोध-प्रदर्शन।
प्रजा-अधिकारों से नृप सचेत
कराए जाने आवश्यक, हनन से कुंठा-जन्म
सब साथ संग ही चलें, सबका
प्राकृतिक-संसाधनों पर है अधिकार सम॥
आतंकवाद का न लो सहारा, न
खेलो जन-भावनाओं से, शांति से ही प्रगति
जब जान ही न होगी क्या फिर
करोगे, सबको समय पर मिलेगा उचित ही।
मनन-चिंतन में समग्र-क्रांति
चाहिए, पर मूल उद्देश्य हो भलाई हेतु सबकी
आपसी हानि- हत्या से तो कहीं
न पहुँचते, जीवन माँगे बड़ी यज्ञ- आहूति॥
अन्याय तो है विश्व में
मानना पड़ेगा, कोई धनी यूँ ही स्व को चाहे लुटाना न
फिर जग-व्यवस्थाऐं उचित-पथ
ही चाहिए, योजनाऐं सर्व-जन कल्याणार्थ।
नृप-कर्त्तव्य है
शासन-तन्त्र उचित करे, निज लोभ तो उन्हें न्यून करने होंगे
जब स्वयं ही लूट के बड़े
सौदागर हों, तो कैसे दैत्यों को नियंत्रण कर लोगे?
उचित शासन-प्रणाली, जनतंत्र
से बहु-भला संभव, रंग लाऐगा पुण्य-प्रयास
जब नर खुश होंगे सदा सहयोग
करेंगे, खल साथ न मिलने से होंगे निराश।
लोग दूजे के गृह न देखेंगे,
ऊर्जा सकारात्मक-प्रगतिमान उद्देश्यों में युजित
आपसी-सौहार्द-सहकार वृद्धि
समूहों में, चाटुकार को न श्रेष्ठ स्तर दर्शित॥
जीवन देखना-सोचना माँगता, न
लड़ो क्षुद्र स्वार्थ हेतु, न एक-दूजे को हानि
'जीओ व जीने दो'-पुरातन सिद्धांत,
समरस-समानता भाव देगा बहु प्रगति।
देश-समाज-क्षेत्र
समृद्ध-प्रगतिशील हों, नर श्रेष्ठ-उपलब्धियों में होगा इंगित
‘सबका साथ सबका विकास', जग और सम होगा सबको मिले
प्राण-अर्थ॥
बहु-भाँति लेख-संस्मरण,
कथा-साहित्य, जन लिखते भिन्न रस-संयोग से
सबका निज ढ़ंग मनन-अभिव्यक्ति
का, समग्र तो न सब कह ही सकते॥
लेखन-विधा है अति-निराली,
यूँ न मिलती, कुछ तो चाहिए सहज रूचि ही
विशेष समय आवश्यक बतियाने
को, वरन सुफियाने की घड़ी न मिलती।
फिर मन में क्या आता उन
क्षण- विशेष में, कलम तो मात्र माध्यम बनती
शब्द-प्रवाह सहज ही तब
निज-दिशा लेता, देखो मंजिल कहाँ है मिलती॥
ज्ञान-स्रोत समक्ष-पुस्तकें,
विद्वद-प्रवचन, संगति या दैनंदिन कार्य-कलाप
या कुछ क्षण निज संग बिताना
भी, जिससे निकले एक कमल-मुकुल सा।
मन-रमणीयता का भी अपना
विश्व, कहाँ- कब बैठेगा किसी को न प्रज्ञान
कैसे सुसंवाद हो सके निज
श्रेष्ठ से, कुछ एकत्रण से हो सके ही विकास॥
सुघड़, विचक्षण मनन-
दृष्टान्त मनीषियों का, जितना निहारो उतना कम
अति-गह्वर उनका अवलोकन, यूँ
न मात्र सतही अपितु जीवन-सार तत्व।
जितनी मात्रा- गुण पास एक,
उतना दान- संभव, उपलब्धता पूँजी है यहाँ
यह बात और कि लोभी हो,
बाँटन-अरुचि, स्व-संग ही खत्म हो जाएगा॥
क्या मेरी मनोदशा विशेष
परिस्थितियों में है, मन-भाव यथैव ही उद्गीरित
कैसे निज-समीपता व संग
जुड़न-अभिलाषा, स्वयं गति से लेकर कलम।
विल डुरांट ने तो लिखे हैं `सभ्यता
एवं दर्शन का इतिहास' से विस्तृत
ग्रंथ
वह भी गुजरे दुःख-सुख
परिस्थितियों से, तथापि सहज रच दिया अद्भुत॥
विभोर मन चेतन-शक्ति,
आत्मिक-बल बढ़ाओ, जीवन हेतु महद उद्देश्य
ऐसे तो महद रचना न बने, उठ
खड़े होवों लिख दो निज सर्वोत्तम लक्ष्य।
वाल्मीकि, व्यास, शैक्सपीयर,
गोएथे, कालि ऐसे न, अल्पकाल जीव-भंगुर
समक्ष विपुल राशि तेरे अर्थ
पड़ी, निम्न कामना से तो अति-लाभ होगा न॥
माना सबको निज जीवन ही जीना,
पर दान भी जिम्मेवारी उत्तम विरासत
'यूँ ही आऐ न आऐ' उक्ति से ऊपर उठो, जग-आगमन
को करो सार्थक।
कैसे चेतन क्षण बढ़ते जाऐं
जीवन में, व उनमें संपूर्णता भरने का उत्साह
चल पड़ो किसी लम्बी यात्रा
पर, कुछ जग देखो, अपनी भी कहो अथाह॥
वे मार्ग- अध्याय जान-सीख
लो, जो उन्नति, परम-प्राप्ति का दिखाऐ मार्ग
बैठो विद्वद- जनों संग उत्तम
संगोष्ठी में, कैसे किया है उनने पथ लो जान।
प्रदत्त कार्य निश्चित ही
विशाल होगा, परियोजना- प्रबंधन भी चाहिए उत्तम
किंतु हर अध्याय पर पूर्ण ध्यान,
नैपुण्य से देखो कुछ भी छूटना चाहिए न॥
जीवन-विज्ञान एक बड़ा विषय
है, ज्ञात हो चाहिए उचित कार्यान्वयन विधि
कौन तत्व कहाँ कैसे प्रभावित
करता, सुप्रबंधन से झलके उत्तमता अति।
जीवन- उपलब्धि निज
स्वेद-रक्त की आहुति से, प्रयास से न कभी घबरा
श्रम-सुस्ती से थकना न इतनी
शीघ्र, जब कर्त्तव्य अधिक तो विश्राम कहाँ॥
फिर बिंदु तो इंगित करने
होंगे, जो अन्तः घोर-तम से प्रकाश में आगमन
कुछ स्वप्न लूँ समर्थ-
विवेकियों संग, ज्ञान प्रवाह रोम-कूप में हो प्रकटन।
जीवन फिर पूर्ण खिल सकेगा,
सब पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेल से
सर्व- अवस्था ही आस्वादन
लेना, न घुटकर मरना जब इतना सम्भव है॥
मेरी मनोवृत्ति उचित कर देना
ओ परमपिता, तार सीधे तुमसे जुड़ जाऐं
हटा कर सब मेरे प्रमाद,
अपुण्य तन-मन के ज्ञान-वृत्ति में चित्त हो जाए।
मूल-प्राथमिकताओं से करा तुम
परिचय, न इतने अल्प-निर्वाह से सन्तुष्ट
क्यूँ न करूँ मैं सर्वोत्तम
हेतु ही चेष्टा, जब ज्ञात है संभव व समक्ष मंजिल॥
मन बिसरत, काल बहत है जात,
बन्दे के कुछ न निज हाथ
विस्मित यूँ वह देखता रहता
है, कैसे क्या हो रहा नहीं ज्ञात॥
हर क्षण घटनाऐं घटित, अनेक
तो हमारे प्रत्यक्ष साक्षात्कार
पर यह इतनी सहज घटित है,
मानो हमारा न हो सरोकार।
हम निज एक अल्प- स्व में
व्यस्त हैं, व जीवन यूँ जाता बीत
निर्मित-नीड़, संगिनी-बच्चें,
कुछ सहचर, यही जिंदगी बस॥
लघु-कोटर में है अंडा-फूटन,
माता सेती, कराया दाना-चुग्गा
अबल से सक्षम बनाकर,
डाँट-फटकार घर से बाहर किया।
फिर पंखों को मिली कुछ
शक्ति, संगियों ने उड़ना सिखाया
इस डाल से उस वृत्त बनाया,
उसे ही पूर्ण-जग समझ लिया॥
अभिभावक- स्नेह, बंधु-सुहृद
सान्निध्य, पड़ोसियों से मेल कुछ
बहुदा बाह्य-मिलन, आपसी
जरुरत, पखेरू अब सामाजिक।
दाना-दुनका इर्द-गिर्द
चुगता, जरूरत पर दूर भी जाते कभी
और विश्व-दर्शन मौका मिलता,
पर वह भी होता अत्यल्प ही॥
कितना समझते हैं
विश्व-दृश्यों को, सब भिन्न पहलू ज्ञात तो न
प्रायः तो न सीधा सरोकार,
फिर क्यों नज़र दौड़ती उस ओर?
माना मन में अति
विवेक-संभावना, तथापि उसको रखते कैद
बाँध लिया छोटे से कुप्पे
में, मुर्गे ने उसको नियति ली समझ॥
सभी शरीरियों के अपने घेरे,
उसी में जमाते अपना अधिकार
अन्य विदेशियों को न
प्रवेश-स्वतंत्रता, धृष्टता पर हो प्रतिकार।
राज्य हमारा तू क्यों आया,
समूह मरने- मारने को तैयार सब
अजनबियों से मेल असहज, आँखों
सदा में किरकिरी- शक॥
माना बहु-स्थान परिवर्तन
विश्व में, अनेक जीव इधर से उधर
सबने ग्राम-नगर बसा लिए,
पड़ोस समकक्षों से किए संबंध।
अपना कुटुंब, जाति-समाज,
संस्कृति-शैली व प्रक्रिया-जीवन
उनमें ही सदा व्यस्त,
आनंदित, जीना-मरना, अतः समर्पित॥
माना जीवन-स्रोत एक सबका, पर
अपने-२ घटक बना लिए
निज को दूजों से पृथक माने,
अकारण प्रतिद्वंद्वी समझ लेते।
अन्यों से बहु मेल न होने
से, उनकी कारवाईयाँ होती अज्ञात
इधर-उधर से खबर भी हो तो,
सम्बंध न होने से न है ध्यान॥
विशाल जग, हम लघु-कोटर में,
बहुत दूर द्रष्टुम न हैं सक्षम
कैसे विस्तृत हो यह मस्तिष्क
ही, संभावनाओं का प्रयोग न।
स्वयं को कोई न कष्ट देना
चाहता, मानो ह्रास होगी सर्व-ऊर्जा
ज्ञानी कहते अभ्यास से सब
वर्धित, क्यूँ न बढ़ाऐं अपनी चेष्टा॥
भोर हुई पर द्वार-बंद,
भानु-प्रकाश न पहुँचता हम सुप्तों तक
इतने ढ़ीठ हैं आराम को ले,
किंचित खलबली न करते सहन।
कुछ जानते भला कहाँ, फिर भी
अनाड़ी रहते हैं जान-बूझकर
कितना कोई समझाऐ मूढ़ों को,
निज-चेष्टा ही उत्तम शिक्षक॥
कितना ज्ञान-अनुभव शख़्स कर
सकता, जीवन-प्रवाह में इस
क्या काष्टा संभव शिक्षा की,
कितना प्रयोग हो सकता लाभार्थ?
पर आज सीखा कल भुला दिया,
जीवन किसे हुआ याद सकल
बस मोटे पाठ याद रह जाते,
वर्तमान में तो प्रतीत वही जीवन॥
पल-क्षण-घड़ी, घंटे-प्रहर,
अह्न-रात्रि, सप्ताह-माह, यूँ बीतते वर्ष
जिसे जितनी घड़ियाँ दी
प्रकृति ने, कमोबेश बिताते वही समय।
बिताना जीवन सामर्थ्यानुसार
ही, उसका वृतांत इतिहास बनता
हा दैव! कुछ अधिक न किया,
निम्न-श्रेणी में ही खुद को पाया॥
कौन से वे उत्प्रेरक
घटना-अनुभव, अग्र-गमन प्रोत्साहन करें जो
कौन वह सक्षम गुरु है, सर्व-
क्षुद्रता ललकारता, फटकारता यों?
कौन से वे संपर्क-विमर्श,
वर्तमान व अल्प -उपयोग पाते हैं जान
भविष्य-गर्त लुप्त
संभावनाऐं, जो स्व-प्रयास बिन नहीं दृष्टिगोचर॥
माना देखा-समझा, पढ़ा,
बोला-सुना अति, पर कितना है स्मरण
पता न चला कब स्मृति ही चली
गई, अनाड़ी के अनाड़ी रहें हम।
‘इसे पकड़ा, वह छूटा,
आगे दौड़-पीछे छोड़''
का बचपना है खेल
पूर्ववत को ठीक समझा ही न,
वर्तमान में भी न सुधार, वही हाल॥
माना श्लाघ्य तव चेष्टाऐं
बृहत् हेतु, पर प्रत्येक को दो कुछ समय
वरन दीन-दुनिया को स्व-राह
से, आपकी आवश्यकता न बहुत।
तुम्हारी सार्थकता भी कुछ
जीवन में, या बस खा-पीकर दिए चल
जब आने-जाने का न हुआ है
लाभ, क्या आवश्यक था लेना जन्म?
माना कुछ मेहनत-मजदूरी कर,
खाने-कमाने का लिया प्रबंध कर
पर क्या जीवन के यही भिन्न
रंग थे, अनुपम चित्र बना सकते तुम?
निज-संभावनाओं को न समय
दिया, बस सुस्त-मंद रहें, गया बीत
एक दिन बुलावा अवश्यंभावी तो
जितना बचा, कर लो सदुपयोग॥
नहीं राहें सीखी प्रयत्न से,
बस काम-चलाऊ कर लिया कुछ जुगाड़
अनेक विद्याऐं-तकनीक, विशेष
ज्ञान निकट, पर संपर्क नहीं प्रयास।
बेबस बना दिया स्वयं को,
अन्यों के रहमो-करम पर रहने का यन्त्र
जग प्रगतिरत, मैं
अबूझ-भ्रमित, कभी आत्म-मुग्ध पर अविकसित॥
यह लघु-विश्व अपने सों से
व्यवहार, तुम भी अनाड़ी हम भी गँवार
बस जूता- पैजारी, बहु जानते
-समृद्ध, शीर्ष-तिष्ठ मूर्ख अभिमान।
ज्ञानी से ज्ञानी मिले तो
सुज्ञान-वार्ता, मूर्ख से मूर्ख तो व्यर्थ- विवाद
जब चेष्टा निम्न, कैसे
मनभावन-सुखद फलक हो सबको उपलब्ध॥
मात्र जग-निर्वाह से
अग्रवर्धन, स्व का भिन्नों से भी होने दो संपर्क
बना आदान- प्रदान का सिलसिला,
संज्ञान आत्मानुभूति का कुछ।
दृष्टि प्रखर बना, दुनिया
बड़ी विशाल, गतिविधियों की रखो खबर
बृहद दृष्टिकोण निकल
कूप-मंडूकता से, संपूर्णता जीव-समर्पित॥
निज स्मृति-सीमाऐं, अतः याद
करो उत्तम अध्याय संभव जब भी
कर्म-गति रहे सदा, आत्मिक
विकास जीवन की हो परमानुभूति।
सकल जग लगे निज ही स्वरूप,
करें सहयोग परस्पर-विकास में
जितना संभव है विस्तृत करो
स्व को, सब लघुता पाटो विवेक से॥
और निर्मल चिंतन करो। जीवन
अमूल्य है॥
क्यों अटके हो यत्र-तत्र,
दृष्टि-गाढ़ करो उत्तम लक्ष्य हेतु किंचित
यदि क्षुद्र में ही व्यस्त
रहोगे तो कैसे रचे जाऐंगे महाकाव्य-ग्रन्थ?
माना लघु ही जुड़ बृहद बनता,
लक्ष्य हेतु कटिबद्धता चाहिए पर
रामायण, महाभारत, बृहत्कथा
संभव, चूँकि लेखन था अबाधित।
एक लक्ष्य बना, स्व-चालित
हुए, कुछ प्रतिदिन किया अर्पित तब
एक विशाल चित्र मस्तिष्क में
बना, मध्य की कड़ी मनन-लेखन॥
मैं भी कागज-कलम उठा लेता,
किंतु अज्ञात कृति निर्माण- विधि
बस चल दिया यूँ ही, योजना तो
बनी न, क्रमबद्धता कहाँ से आती?
जीव- प्रतिबद्धता जब लक्षित
ही होगी, तभी तो बनेगा कुछ प्रारूप
कुछ लिख दूँगा एक मन-विचार
ही, पर समक्ष तो हो प्रेरणा-स्थूल॥
एक शब्द-लेखन हेतु भी
सामग्री चाहिए, यूँ ही तो नहीं ऊल-जलूल
बहु-नर प्रगति कर रहें हर
क्षण में, मुझ मूढ़ से रमणीय निकले न।
इन समकक्षों में से ही कुछ
महान बनेंगे, इतिहास में कमाऐंगे नाम
जो जितना डाले उतना ही
मिलेगा, बिना किए तो कुछ मिलता न॥
तब क्यों न प्रयास
योग्य-उच्चतम-उपयुक्त हेतु, यश तो चाहिए पर
वह भी न हो तो बस कुछ बेहतर
कर्म-इच्छा, प्राप्ति दैवाधीन सब।
पर युक्ति हो तो अवश्य
सुगम-पथ, पुरुष बाधाओं से पार हो जाते
यूँ ही समय नहीं गँवाते,
समर्पित हों पुनः-2 प्रविष्टि हैं जता जाते॥
चिंतन का भी चिंतन चाहिए,
पर्वत खोदने से ही मिलेगी कुछ धातु
अल्प-श्रम से कभी ही
सु-परिणाम, सर्व-औजार क्षमता वृद्धि हेतु।
महासार का मूल्य चुकाना
होगा, मुफ्त प्राप्ति से तो पाचन न होगा
निज बूते पर कुछ बन दिखाओ, अयोग्यों को ही
सुहाती अनुकंपा॥
मम जीवन का क्या सु-ध्येय
संभव, कलम से तो अभी नहीं है इंगित
बस यूँ ही स्व- संग बतला
लेती है, पर क्या काष्टा रहेगी ही सीमित?
पुरुष स्व-वृत्त बढ़ाते, मोदी
को देखो चाय-दुकान से विश्व-नेता स्वप्न
कितने ही नित होते
विज्ञ-समृद्ध, निज हेतु क्यों न बनाते हों सुपथ?
कुछ जाँचन अवश्य चाहिए,
अपेक्षा- संभावना उपलब्धि की किस
बस छटपटाने से काम न चले,
रोग क्या है व उपचार तुरंत प्रारंभ।
लक्ष्य-निर्माण चाहिए इस
अकिंचन को, चाहे प्रकृति ही या अंतर्यात्रा
कितना भी वीभत्स हो सब तम
निकाल बाहर फेंको, नहीं है चिंता॥
कलम-कागद हो सुप्रयोग,
चित्रकर्मी की बस न है कूची से पहचान
सामग्री-औजार से किसी को न
मतलब, पर क्या रचा है महत्त्वपूर्ण।
परिप्रेक्ष्य-निर्माण
निज-दायित्व ही, प्रक्रिया कुछ काल पश्चात नगण्य
अंततः परिणाम में ही रुचि
है, भोजन चाहिए, कैसे बना न मतलब॥
पर यह एक श्रम का विषय है,
जब निकेतन बनेगा तभी संभव वास
यदि कृषक खेती न करे, कहाँ
से खाना मिले, किसी को न है ज्ञात?
जीवन इतना तो नहीं सरल
निट्ठलेपन से चले, सुस्तों की देखो दीनता
देखकर विभिन्न प्रयोगों का
विस्तीर्ण, अपने मन को मैं सकूँ महका॥
क्या मुझसे भी कुछ उत्तम सम्भव
है, प्रशिक्षण योग्य संस्था में ले लो
नौसिखिए सम न करो आचरण, क्या
उचित विधि ही है अपना लो।
सामग्री क्षमता -गुणवत्ता
वर्धन हेतु है, शक्ति मात्र तुम तक न स्थित
यदि सहारा लो उपलब्ध
युक्तियों का, निस्संदेह कल्याण है सम्भव॥
निज शक्ति बढ़ाओ मित्र-बंधु
सहयोग से भी, यह सर्व-जग तेरा ही
मानो मूल्य देना ही होगा,
क्यों हो डरते, उत्तम वस्तुऐं महंगी होती।
जीव-कल्याण इतना भी न सुगम,
मन की मर्जी तो नहीं, होए स्वयं
प्राण-समर्पण तो करना ही
होगा, बिन मरे तो स्वर्ग-दर्शन असंभव॥
किंचित विशाल सोचो, लिखो
भित्ति पर तो, सदैव प्रेरणा रहे मिलती
पथ बहु सुगम हो जाता है, जब
चलोगे तो मंजिल जाएगी दिख ही।
मानव-धर्म है उच्च-प्रेरणा
हेतु, वर्धन हो निज तुच्छता से ऊर्ध्व-मन
स्व-उत्थान निज-दायित्व ही,
कोई आकर न शीर्ष पर करेगा तिष्ठ॥
मन सन्तोष में पढ़ेगा तो,
यकायक सफलता-कुञ्ज में ही प्रवेश होगा
शरीर-बुद्धि दोनों प्रसन्न
होंगे, वास्तविक उद्देश्य भी तब इंगित होगा।
यह एक विडम्बना है, एक कदम
बढ़ाने पर ही अग्र का पता चलता
एक उपाधि मिली तो अन्यों में
उत्सुकता बढ़ती, विवरण है मिलता॥
प्रथम दिवस ही किन उपाधियों
का संचय होगा, ऐसा तो सदा अज्ञात
हाँ कड़ियाँ जुड़ती जाती, एवं
कदम बढ़ते, महद दूरी तय हो है जात।
जीवन में मात्र यही दीर्घ
इच्छा है, उस परम-लक्ष्य का रहे नित चिंतन
पूर्व भी इसी अन्वेषण में
बीत रहा है, जल्द ही उपलब्धि मिलेगी पर॥
श्वास बढ़ता इस आशा के साथ
ही, कुछ योग्य करने में हूँगा सक्षम
पर जीव-विकास नित स्वतः
प्रक्रिया, अति-शीघ्रता से भी न सुफल।
किंतु इस स्व- मन का क्या
करूँ, निज-अपेक्षाओं में ही है उलझता
बहुत कर्म अधूरे, इस नन्हीं
जान को सुबह-शाम रोना-पीटना लगा॥
गति परम में हो परिवर्तन
इसका, कुछ महात्माओं में लगे उपस्थिति
क्या प्रबुद्ध होगा यह भी,
शंकित सा, पर निराश हो नहीं बैठूँगा कभी।
ओ जिंदगी, जरा पास तो आओ, व
स्पंदन मेरे मन-देह रोमों में कर दे
सदा मुस्कुराना-चलना सिखा दे
मुझे, व्यर्थ तर्क-बकवादों से हटा दे॥
हो सार्थक-संवाद, प्रेरणामय
शब्द-प्रयोग, इस अकिंचन की हो शैली
उच्चतम शिखर-इंगन हो सम्भव,
गतिमानता तो सदा श्रम में है मेरी।
ओ सखा, अमूमन लिखो गागर में
सागर तुम, पर सत्यमेव गहन-मंथन
तभी तो मोती-माणिक्य, रत्न
निकलेंगे, अतः रखो निज लेखनी-चलन॥