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Monday 28 August 2023

जीवन - परियोजना

जीवन - परियोजना

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कुछ व्यवस्थित-अनुशासित व केंद्रित हो, बिखरी वस्तुऐं करो संग्रहित 

मनुज-जीवन अति लघु, कर्म अधिक, लापरवाही हेतु कोई नहीं समय। 


निज बिखरी-छितरी ऊर्जाओं को वश में करें, और कुछ क्षमता जोड़े 

अति बड़ी परियोजना जीवन, आधुनिक प्रबंधन-आयाम स्थापित करें। 

यहाँ प्रत्येक ईंट दुरस्त करना, उचित संरचना में भली प्रकार से लगें 

गुणवत्ता जाँचे-परखे, ताकि वह न्यूनतम आयु सुचारु रूप से जी ले। 


सुसज्जितकरण-कारीगरी, भवन-निर्माण का हुनर, सीखो आयाम भिन्न 

जीवन चले तो एक रथ भाँति, उसका स्वास्थ्य-गति बढ़ानी होगी फिर। 

इसके अश्वारोही हों साहसी, सुयोग्य-प्रशिक्षित, मार्ग-बाधाओं से न डरें 

निर्भय मन-स्वामी इसका हो सारथी, एक सुनर भाँति चहुँ-दिशा विचरें। 


तुम स्व-कृत्यों को तब लिपिबद्ध करो, व वाँछित सामग्री एकत्रित करो 

ढूँढ़ो सकल उपकृत्य समाहित करने, और हर पग को सुनिश्चित करो। 

यदि प्रशिक्षण तुम्हारा है त्रुटिरहित, बाद में परिणाम मनानुरूप होंगे ही 

तुम निज-उन्नति हेतु मार्ग-प्रशस्तिकरण में, अपनी कोई न छोड़ो कमी। 


स्वानुशासन सबसे बड़ा औजार यहाँ, वही तो औरों को भी करता प्रेरित 

दल-सहयोगी बनें सुयोग्य जब, काम के होंगे तो सहायतार्थ आऐंगे स्वयं। 

समय-ऊर्जा-समझ सबमें बाँटनी होगी, महत्तम यथासंभव लाभान्वित हों 

उदार-मृदुल नृप के राज्य में सब सुखी होते, न्याय सभी में तो बाँटना हो।  


कलंदरों सम तू भी बन एक साहसी नर, समस्त मानवता निज की बना 

निज कर्मों पर रख एक नज़र पैनी तब, उत्तर सब तुमको स्वयमेव देना। 



पवन कुमार, 

२८ अगस्त, २०२३ सोमवार, समय ६:४१ बजे सायं 

(महेंद्रगढ़ डायरी ३१ अक्टूबर, २०१४ शुक्रवार, समय ९:३५ बजे प्रातः)


Saturday 26 August 2023

नित्य-समस्याऐं


नित्य-समस्याऐं

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समस्याऐं हमारी नित्य जिंदगी-प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग 

हम चाहे माने या माने, वे हैं हमारी हितैषी-शिक्षक-प्रेरक। 

 

अवश्यमेव बुरा प्रतीत, पीड़ा तन-मन अवयवों से टकराती जब 

प्रत्येक गर्व को भग्न करती, बताती कितने कमजोर हो तुम। 

समस्त प्रकृति के इस चलन में, एक क्षुद्र पुर्जा ही है मानव-मन 

उससे अपेक्षित तो बहुत कुछ है, लेकिन सीमाऐं बस निज तक। 

 

नित्य अनेक कारक जाने-अनजाने, चाहे-अचाहे हैं स्व कार्यरत 

बेशक हम पूर्ण तैयार ही हों, आकर प्रहार तो देते ही हैं कर 

हमें ललकारते हैं, कि यदि हिम्मत हो तो मैदान में आओ समक्ष 

और हम निज अल्प-शक्ति के अनुसार ही, किया करते हैं कर्म। 

 

अनेक जन मानव-कृत बहु प्रकृति नियमानुरूप, कह देते पक्ष 

हम आत्म-मुग्ध से यूँ कुछ सोचते रहते, हम्हीं हैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर।  

क्या यह है स्व का अधिक-आँकन ही, जबकि मालूम तो सत्य 

क्यों ईमानदार-मूल्यांकन आत्म का, प्रवाह हेतु छोड़ते पथ। 

 

विरोधाभास तो आत्म-सँवारण की अपेक्षा, औरों को उलाहना ही 

'नाच जाने आँगन टेढ़ा', मूर्ख तो कुछ कहने हेतु चंचल-भ्रमित। 

माना अन्य  गलत हैं, हो सकते, निज-क्षेत्र भी तो देखना होगा पर

बस औरों से ही सदाशयता-आशा, पहचानने होंगे स्व-कर्त्तव्य।  

 

मैं मुदित कुछ अल्प-उपलब्धियों से ही जानता पूर्ण जगत-चक्र 

हर जगह की स्व विसंगतियाँ, और उन हेतु वाँछित प्रयोग हैं भिन्न। 

माना तुम सौभाग्यशाली हो, विभिन्न प्रकार के संपर्क पाते हो कर 

मन को ललकारता, विश्रांत मन-कोष्ठकों को करती चलायमान। 

 

अंततः प्राण-संपूर्णता भी तो हर अंग-प्रत्यंग से पूर्णादय कराना ही 

तुम जब आए हो तो, क्यों छोड़ना चाहते हो स्व को अधखिला ही ?

पूर्ण प्रयोगित हों तन-मन दत्त साधन, अंततः खाक में ही मिलना 

घिसकर अंत तो सदाशुभ, बजाय सड़कर मरना दुर्गंध फैलाना। 

 

अपने को सुवासित करो , कुछ उत्तम गुलदावरी-कमल खिलाओ 

क्यों स्व और अन्यों को, अपने वाक-कंटकों के नश्तर चुभोते हो ?  

अनावश्यक लड़ना परस्पर ही, प्रकृति से सामंजस्य सुस्थापित करो 

जब कुछ कर्म सुधरेंगे, तभी तो औरों से कुछ आशा कर सकते हो। 

 

अनेक ही विडंबनाऐं इस मन में स्व-चलित हैं, नर को उद्वेलित करती 

उसे नित झझकोरती हैं, व्यर्थ अभिमानों को चुनौती दे चूर- करती। 

माना वे स्वयं को वीर कहते हैं, पर अनेक जगह खुद को निर्बल पाते 

एक लघु कैंसर-कोशिका से तो मुक्त हो सकते, यथार्थ समझते। 

 

पर हमारा क्या दृष्टिकोण समस्याओं प्रति, कितनी तैयारी निबटने की 

सुव्यवस्थित-अनुशासित हर व्यूह-प्रशिक्षित सेना रण-उपयुक्त ही। 

प्रतिद्वंद्वी को क्षीण  समझो, यावत पूरा तंत्र-प्रबंधन जान लो उसका 

अन्योपरि प्राकृतिक नियमों से खिलवाड़ करो, जो तुम्हें सकते बचा। 

 

जब कार्य हो रहा हो तो संपूर्ण ही झोंक दो, त्रुटि-रहित रचनार्थ समुचित 

सकल सामग्री-प्रक्रिया उत्तम-ढंग की हों, पश्चात् में समस्याऐं होंगी न्यून। 

माना बाद में भी कुछ उलझनें हो सकती हैं, निजात पाया जा सकता पर 

किन्तु निज शुभ्रता गुणवत्ता हेतु निष्ठा हीआहूति है विराट यज्ञ में इस। 

 

सकारात्मक प्रयोग हो इस जीवन का, कुछ योग्य कर्मी बनाओ सहचर 

झझकोरो निज सकल विचारों को तो, अनेक उनमें सुधार माँगते नित। 

तुम गुजारो समय यूँ बस गाली खाने में, स्व हेतु कुछ जुटाओ आदर 

किंतु संभव वह श्रम-शुचिता से, बजाय औरों के निज-चेष्टा करो प्रखर। 

 

धन्यवाद ! जुटो और ठीक करके दिखाओ कुछ! तुमसे बहु आशा है। 

 


     पवन कुमार, 

२६ अगस्त, २०२३, शनिवार, समय ५:०१ बजे अपराह्न 

( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २५ नवंबर, २०१४ मंगलवार, समय :५० बजे प्रातः)