Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Thursday 15 August 2019

युग-द्रष्टा

 युग-द्रष्टा
------------


एक युग-द्रष्टा हेतु अनुशासन जरूरी, बहु-आयाम साक्षात्कार 
सर्व-मनुजता एकसूत्रीकरण दुरह, धैर्य-श्रम व दृढ़ता ही सखा। 

उच्च-लक्ष्यी ऊर्ध्व-पश्यी, स्वप्न संभावना का मूर्तरूप-परिवर्तन 
न स्व-मुग्धता अपितु अंतर्स्थित, ज्ञात गंतव्य निम्नता निर्वाणार्थ। 
एक-२ ईंट से भवन निर्माण, अनूठी परियोजना हो रही साकार 
महद आत्म-बल बाधाऐं स्वयं दूर, पौरुष अनुरूप ही छेड़छाड़। 

स्वार्थ-लिप्त मनुज की क्या परिणति, न चाह वृहद मानव-हित 
लघु-बड़े विषयों में ऊर्जा-क्षय, अधूरा ही बीता जीवन सीमित। 
एक विश्वविद्यालय या देश-निर्माण, कोई एक दिवस-कर्त्तव्य न
अतिश्रम, दिवा-स्वप्न, साहस-ललकार, न मिथ्या प्रशंसा-गृह। 

माना नर-वय अल्प पर इतनी भी न कि महद-आकांक्षा न कर 
३०-४० वर्ष में श्रम से बड़े संघ बने, सत्ता-पूँजी ली अपने कर। 
अनेक संगी बनाए, एक-२ से ग्यारह, महाबल संग्रह पूँजी निज 
हृदय से नर-संग तो वृहत-हित ही, एकता से नव-पथ चिन्हित। 

समग्र-चेतना सह उच्च ध्येय-उत्साह, नर कई कष्टों से निकल 
सभ्यता-विकास मात्र न एक वार-कर्म, प्रतिपल महादर्थ युग्म। 
आदर्श समाज कल्पना, शिक्षित परिवेश, पर्याप्त, पूरक-परस्पर 
वैज्ञानिक सोच, आदर्श नृप-स्थिति, प्रजातंत्र, सब भाँति प्रसन्न। 

 विश्व-विसंगतियों मानव अल्प-विद्या कारण, दूभर प्राणी-जीवन 
व्याधि-अकाल-भूख-अशिक्षा-दुर्गति-वैषम्य-संशय घोर व्याप्त। 
पर निदान हर व्याधि का, हाँ यथोचित शक्ति विषय विचारणीय 
जब बाधा दूर वाहन गति पकड़ेगा, जीवन में सुघड़ता भासित। 

मानव समर्पण हेतु क्या चिंतन, हर आयाम से प्राण आत्मसात 
विश्व-सुपरिवेश संभव, लोग परस्पर भले लगेंगे, होगा सम्मान। 
निवेश-लाभ उचित पर लोभ-विरक्ति, धन दान में हो अनापत्ति 
 सुरक्षार्थ नियम-पालन हो, स्वतंत्रता पर अन्य का पथ अबाधित। 

 निर्मल हृदयों का दायित्व, अब सब विभेदों का निर्मूल-प्रयत्न  
युग-द्रष्टा का केंद्र-बिंदु प्राणी, मानव उसका बस पुञ्ज एक। 
ब्रह्मांड-वासी पर बहु-अवयवों से अपरिचय, बनाऐं क्षुद्र हमें 
प्रथम कर्त्तव्य स्वरूप से योग, जो अपने से उठे महान बने। 

युग-द्रष्टा का कर्त्तव्य प्राथमिकताऐं चिन्हन व प्राप्तार्थ श्रम 
वाँछित संसाधन-उपस्थिति सुनिश्चित, प्रारूप सा समक्ष। 
न अज्ञात-भय अपितु श्रद्धा, परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन  
महद लक्ष्य बड़ा संघ जरूरी, सब अनुज-अग्रज का संग। 

कैसा द्वंद्व यह न अंतः-कूक, जग भूल-भुलैया में ही व्यस्त 
प्रायः नर व्यवधान-पाशित, मात्र गाल बजाने में ऊर्जा क्षय। 
पर उच्च-लक्ष्यी सक्षम विराट स्वप्न, रूपांतरण निजीकरण  
जरूरत विटप-रोपण की, सुंदर वाटिका साकार ही जल्द। 

 धारक-लेखन लक्ष्य भी युग-द्रष्टा स्वप्न, भला यथाशीघ्र-संभव 
जीव-हित में ही सर्व-जीवन समर्पित, प्रतिपल प्रयोग लक्ष्यार्थ। 
मनसा-वचसा-कर्मणा सर्व-क्रिया, स्व व विश्व सुनिरूपणार्थ  
एकात्मता उर-उदित, सर्व-बल संग्रहित, प्रयोगार्थ ही प्रस्तुत। 

ऐ उच्च मन-स्वामी, कहाँ छुपे, मित्रता से भरो विपुल-भाव मन 
निद्रा-तंद्रा से जगा सक्षमतर करो, युग-द्रष्टा सा ले सकूँ स्वप्न। 
ज्ञान-मन में श्रद्धा सान्निध्य, बस साहस दुःस्थिति का परिवर्तन 
आकांक्षा मानव-जन्म सफलीकरण, तुम साथ देओगे अवश्य। 


पवन कुमार,
१५ अगस्त, २१०९ समय ११:५६ बजे  मध्य-निशा 
(मेरी डायरी दि० २१ जून, २०१९ समय ८:५५ बजे से)


Saturday 10 August 2019

काव्य-उदयन

काव्य-उदयन 
----------------

क्या होंगे अग्रिम पल व गाथा जो इस कलम से फलित 
मन तो शून्य है पर लेखनी लेकर आती है भाग्य निज। 

कैसे निर्मित हो वह काव्य-इमारत, मन तो अभी अजान 
मात्र कलम व कागज हाथ में, शेष सामग्री का है अभाव।
 फिर कुछ यूहीं तो चलता जाता और भर जाते हैं कई पृष्ठ 
    निरुद्देश्य-भ्रमित जीव भूल-भुलैया सी नदी में खेता पोत।   

कहाँ से उदित वे शब्द लेखनी के, जब नहीं अध्याय स्पष्ट 
बस एक विचार कहीं से स्फुटित, उसी के गिर्द दाँव-पेंच। 
पर विषय रचना कैसे फूटती, क्या आती लेकर निज-दैव 
कालजयी कई पद्य-गाथाऐं, पुनः-पुनः करता जग स्मरण। 

क्या वे मनीषी भी सम-स्थिति में थे, चिंतन किया कुछ अग्र 
उद्भवित शब्द स्वयमेव व एक-२ कर निर्मित अति-उत्तम। 
यह शिशु-जन्म सा, अनेक संभावनाओं में से एक मूर्त-रूप 
त्यों ही रचना-निर्माण होता, यद्यपि अनेक आयाम थे संभव। 

तो क्या जन्म  सब प्रत्यक्ष का, कितने को छोड़ अग्र-वर्धित 
एक-२ विचार-बिंदु से ही सर्व-क्रांतियाँ, स्वयमेव रचित पथ। 
फिर क्या हम मात्र हैं विचार-धारक, आकांक्षा शांत-स्वरूप 
दिव्यता स्वतः स्फूर्त, बस उठो, करो तुम उकेरण-निश्चय। 

सब कुछ डूब जाना इस चिंतन में, पार अपने से निकलना 
दृष्टिकोण हो मात्र काव्यात्मकता-रस में, प्रयत्न करने का। 
इंगित तो कुछ भी नहीं होता तो भी अपने को झझकोरना 
इसी झंझावत के उपक्रम में, कुछ उचित ही रचित होगा। 

अद्भुत दर्शन है भविष्य का, जो हमसे कुछ रचवाए जाता 
हम शिल्पकार कुछ काल मात्र के, पर वह शाश्वत रहता। 
उसने देखे हैं असंख्य प्रयोग सृष्टि में, मुस्कुराता रहता बस
जीव सोचता विद्वान-चतुर, पर सब सामग्री प्रकृत्ति-प्रदत्त।  

स्वामी-प्रदत्त आटा-नमक, हम सोचते स्वयं को धनिक  
हमारी अणु-सामग्री तथैव फलित, ऊपर है कदापि न। 
तुम मात्र  विचार-माध्यम उसके व वाँछित अस्त्र-शस्त्र 
प्रेरित करता वह उठो-बैठो व करो एक रचना उत्तम। 

कौन दर्शन-सक्षम पार काल के, किसमें इतना सामर्थ्य 
मनुज सदैव भ्रमित, हमीं चतुर हैं जीवन-चक्र के इस। 
अल्प-बल व अत्युद्दंडता, निज को समझे तीस-मार खाँ    
 व्यर्थ गर्व से जग न चलता, विवेक ही कुछ हल मिलता। 

चिंतन है निज-मर्म ढूँढता, कोशिश कि कैसे हो प्रवेशित 
बेचारा मारा-मारा फिरता, फिर सतत स्वयं से ही युद्ध।  
उसकी सर्व-कृतियाँ निज-तार्किक जीत का ही परिणाम 
श्लाघ्य तो है, क्यूँकि वही सत्य में देह में फूँकता प्राण। 

न मनीषी-दर्शन व वह भी बस कुछ पलों का एकत्रण 
सोचा, कहा, लिखा और हम समझते अति बुद्धिमान। 
कितना ठीक, कहाँ तर्कसंगत, न वर्तमान में कुछ समझ 
मात्र रुचि अनुरूप एक विचार-प्रवाह में, रहता व्यस्त। 

उदयन कुछ शब्दों का, निर्मित करता है अद्भुत संसार 
सर्व-संभावनाऐं निहित पलटने की, सक्षम परम-उद्धार। 
जग-प्राणी स्वयमेव प्रवृत्त, अतः चिंतन कर निज विकास 
काव्य-गाथा ग्रंथ यूँ ही निर्मित, एकचित्त हो करो प्रयास। 

धन्यवाद  और उत्तम प्रयास करो। 
आज अवश्य कुछ सार्थक करो सकारात्मक भाव से। 


पवन कुमार,
१० अगस्त, २०१९ समय ९:३४ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २ दिसंबर, २०१४ समय ९:११ बजे प्रातः से)