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Sunday 24 February 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -७ (भाग -२)

परिच्छेद -७ (भाग -२)

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"इस प्रकार के वचन मैंने कपिंजल द्वारा बोलते सुने; और जैसे ही मैंने उनको सुना मैंने एक घोर-क्रंदन उच्चारण किया, यद्यपि अभी बहुत दूर था, जैसे कि मेरा प्राण-पात हो गया था; और मेरा फटा कौशेय अंशुक जैसे कि यह सरोवर  तीर द्वारा लताओं से उलझा हो, और मेरे चरण बिना किसी विचार के भूमि पर पड़ रहे थे, कि सम या कर्कश है, और यथाशीघ्र जितना मैं कर सकती थी, मैं उस स्थल पर पहूँची, हर पग पर लड़खड़ाती हुई, और अभी तक जैसे कि एक द्वारा नेतृत्व की गई हूँ जिसने मुझे पुनः उठा लिया है।

"वहाँ मैंने सरोवर निकट शीतल जल-फुहारों से आर्द्र शशिकांत (मूंगा) की शिला पर बनी एक शय्या पर लेटे पाण्डुरीक को देखा; यह सभी कुमुदिनियों के मृदुल पुष्पों की एक माला सम कमल-पल्लवों से बनी थी, और कामदेव-शरों के सिरों से पूर्ण-निर्मित प्रतीत होती थी। पाण्डुरीक मेरी चरण-थाप सुनने हेतु अपनी एक महद निः-शब्दता में प्रतीत होता था। वह निद्रा में एक क्षण के हर्ष को प्राप्त हुआ प्रतीत होता था, जैसे कि मदन-पीड़ा अन्तः-क्रोध द्वारा शांत कर दी गई है;  वह अपने प्राणायाम (निरुद्ध) के एक योग-प्रायश्चित में रत प्रतीत होता था, जैसे कि उसके मुनि-व्रत भंग का एक पाश्चात्ताप हो; अभी तक कम्पित चमकते ओष्ट संग वह बड़बड़ाता प्रतीत होता था : "तुम्हारे कृत्य द्वारा मैं इस पथ पर आया हूँ।" वह चन्द्र-किरणों द्वारा छेदित आभासित था जो उसके शुभ ऊँगलियों के नखों के छद्म नीचे कामाग्नि सहित स्पंदित एक हृदय पर रखी थी, उसकी पृष्ठ पर पड़ रही थी जैसे कि वह शशि की घृणा में उल्टा लेटा था। उसने अपने मस्तक पर चंदन का एक रेखा-चिन्ह धारण कर रखा था, जो शुष्कता से अपने हुए पीलेपन से, अपने स्वयं के विनाश की पूर्व-सूचना देता था, कामदेव की क्षीयमान राशि की एक कला सम था। प्राण क्रोध में यह कहते हुए उसको त्यागता सा आभासित था : 'विमूढ़, मेरे से प्रिय तुमको कोई अन्य अधिक प्रिय है!" उसके नेत्र पूर्ण-बंद नहीं हुए थे; उसकी पुतलियाँ देखने हेतु किञ्चित मुड़ी थी; वे निबाध रुदन से रक्तिम थी; वे रक्त-पात करती लक्षित हो रही थी, क्योंकि श्वास-भंग होने से उसके अश्रु समाप्त हो गए थे, और वे स्मर के शरों की पीड़ा से आंशिक वक्र थे। अब उसने अवचेतन का कष्ट अनुभव किया था, जैसे कि काम-यातना सहित वह स्वयं जीवन-समर्पण कर रहा था, और अनभ्यस्त प्राण-रोध का अभ्यास कर था। उसका जीवन एक पारितोषिक (पूर्णपात्र) ही था, जो मेरे आगमन पर करुणा से व्यवस्थित किया गया था। उसकी भ्रू पर एक चन्दन का त्रिपुण्डरक तिलक था, उसने रसमयी कमल-पर्णों का एक यज्ञोपवीत सूत्र धारण कर रखा था; उसका वसन उसके ललित स्कंध से पत्र भाँति चिपका था, जैसे कि एक कदलीफल अनावृत हुआ हो; उसकी माला की मोटाई मात्र एकल पंक्ति की थी; उसके भ्रू की भस्म अति-शुभ्र कर्पूर-चूर्ण की थी;  उत्पल-तंतुओं संग अपनी भुजा पर बँधे एक कवच से वह शुभ्र था; वह कामदेव-व्रत का अंशुक धारण किया आभासित हो रहा था, जैसे कि मेरे आगमन हेतु एक मंत्र पूर्ण कर रहा हो। अपने नेत्र संग वह मृदुता से धिक्कार उवाच करता था : "निष्ठुर हृदय ! मैं मात्र एक दृष्टि द्वारा अनुगमित हूँ, और कभी भी पुनः तेरा अनुग्रह प्राप्त नहीं करूँगा।" उसके ओष्ट किञ्चित खुले हुए थे, जिनसे कि उसकी दन्त-कांति में उसकी वपु शुभ्र दमकती थी, जो आगे आती थी जैसे कि वे शशि-मरीचिकाऐं हों जो उसके प्राण लेने हेतु उसमें प्रवेश कर गई हों; प्रेम-पीड़ा से भग्न एक हृदय पर रखे अपने वाम-हस्त से वह उवाच करता प्रतीत होता था : "करुण बनो, मेरे जीवन से च्युत मत होवो, जो तुम मेरे प्राणों सम प्रिय हो।" और अतएव अपने उर में मुझे दृढ़ता से बाँधने हेतु; चन्दन-चूर्ण गिराते प्रतीत होती बाहर को आगे निकली उसके नखाग्र की असम-रश्मियों से उसका दक्षिण-हस्त ऊपर उठा था जैसे शशि-मरीचिकाओं को रोक रहा हो; उसके निकट एक कलश खड़ा था, उसका तप-सखा, ग्रीवा को सीधे किए, जैसे कि यह पथ-निरीक्षण करता हो जिसके द्वारा उसका प्राण अभी ऊपर उठ रहा हो; उत्पल-पर्णों की माला जो उसके कण्ठ को अतएव शोभित करती थी जैसे कि एक अन्य लोक में उसे ले जाने हेतु शशि-रश्मियों की एक रज्जु से उसको बाँधती हो, और जब, मेरे दर्शन पर कपिंजल ने 'सहायता करो, सहायता करो !' के क्रंदन सहित अपने कर उठाए, और उस क्षण मैं खल अभागी जैसे कि मैं थी, ने उस कुलीन तरुण को अपने प्राण-समर्पण करते देखा। एक मूर्च्छा का तमस मुझपर गया था, और मैं पाताल में अवनत हो गई, ही मैं कुछ भी जानती थी कि मैं तब कहाँ गई, और क्या मैंने किया या कहा। ही मैं जानती थी कि क्यों नहीं उस क्षण मेरे प्राण ने मुझे त्याग दिया; क्या यह मेरे मूर्छित उर की प्रखर-दृढ़ता से था, अथवा मेरी अधम वपु की सहस्रों विपदाओं के कारण था, अथवा अनिष्टकर अभिशापित काम की एकल काम-विकृति से था। मैं मात्र यह जानती हूँ कि जब मैंने शीघ्र-काल पश्चात अपनी दुर्गति में चेतना पुनः प्राप्त की, मैंने स्वयं को छटपटाती हुई पाया, संतापित जैसे कि मैं दारुण में असह्य-अग्नि पर पतित हो गई हूँ। मैं विश्वास नहीं कर सकती थी कि यह इतना असम्भव होगा कि वह मर जाए और मैं तथापि जीवित रहूँ, और एक भयंकर विलाप उठाते हुए कि 'दुर्भाग्य, यह क्या है - माता, पिता, सखियों ?" मैंने विस्मय किया : ' मेरे स्वामी, तुम जिसने मेरा जीवन पकड़ रखा है, मुझसे बोलो। निर्दयता से मुझे अकेली अरक्षित छोड़कर तुम कहाँ चले गए हो ? तारालिका से पूछा, मैंने तुम्हारे हेतु क्या सहन किया है ? कठिनता से एक सहस्र-युगों में खिंचे दिवस बिताने में सफल हुई हूँ। कीर्तिवान बनो ! कमसकम एक शब्द तो बोलो ! मेरी अभिलाषा पूरित करो ! मैं दीन-हीन हूँ ! मैं स्वामी-भक्त हूँ। हृदय में मैं तुम्हारी हूँ ! मैं भर्ता-रहित हूँ ! मैं तरुणी हूँ ! मैं असहाय हूँ ! मैं अप्रसन्न हूँ ! मैं अन्य शरण-वंचित हूँ ! मैं प्रेम द्वारा विजित हूँ ! तुम करुणा क्यों दिखाते हो ? कहो कि मैंने क्या किया है अथवा अधूरा छोड़ा है, मैंने किस आज्ञा की अवहेलना की है, अथवा तुमको प्रसन्न करने में किस वस्तु में मैंने स्नेह नहीं दिखाया है कि तुम कुपित हो। क्या तुम अपने उस गमन में जन-धिक्कार से भी डरते हो, अकारण अपनी दासी मुझको त्यागकर ? तथापि मेरे विषय में क्यों विचारते हो, उद्दण्ड एवं खल, और प्रेम के मिथ्या-प्रदर्शन द्वारा धोखा देने में निपुण ! अहोभाग्य, मैं अभी तक जीवित हूँ। हतभाग्य, मैं शापित अकृत हूँ ! क्यों ? मेरे पास तो तुम हो, सम्मान, कुल-बन्धु, स्वर्ग। अपुण्य-कृत्यों की एक कर्त्री मुझपर लज्जा है, जिसके हेतु यह दुर्भाग्य तुमपर पतित हुआ है। मुझसे अधिक कोई इतना हिंसक-हृदय नहीं होगा कि तुम जैसे इतने अतुल्य को छोड़कर मैं आवास चली गई। मेरे लिए क्या घर, माता-पिता, बंधु, सेविकाऐं ? दुर्भाग्य, किस शरण हेतु मैं भाग जाऊँ ? दैव, मुझपर करुणा दिखाओ। मैं तुमसे विनती करती हूँ। भाग्य-देवी, मुझे दया का वरदान दो ! दया दिखाओ ! एक विधवा नारी की रक्षा करो ! वन्य-देवियों, दयालु बनो ! उसका जीवन वापस दो ! पृथ्वी, सहायता करो, जो सबके हेतु अनुग्रह लाती है ! निशा, तुम अपनी दया क्यों नहीं दिखाती हो ? तात कैलाश, तुम्हारी शरण हेतु मैं अनुरोध करती हूँ ! मैं स्मरण करती हूँ, और मैं अवाक् सी बुदबुदाती हूँ जैसे एक दैत्य द्वारा पकड़ी हुई हूँ, अथवा पाशित या विमूढ़, अथवा अपुण्य-आत्मा द्वारा घायल ! मुझपर वर्षा भाँति पड़ते अश्रुओं से मैं जल में परिवर्तित हो गई हूँ। मैं द्रवित हो गई हूँ, मैंने वारि का रूप स्वयं में ले लिया है; मेरे दन्तों की प्रखर-किरणों द्वारा अनुसरित, मेरे विलाप इस प्रकार पड़ते हैं कि जैसे कि अश्रु-वर्षा सहित हो; कुसुमों संग सदा लहराते मेरे केश अश्रु-बिन्दु बरसाते से प्रतीत रहे थे, और अश्रुओं की विशुद्ध रत्न-ज्योति द्वारा मेरे विशेष आभूषण जो उनके विलाप-वृद्धि हेतु उनसे उदित से हुए प्रतीत होते थे। मैं जितना उसके जीवन हेतु, उतना ही अपनी मृत्यु हेतु कामना करती थी; यद्यपि वह मृत था, मैं उसके हृदय में अपनी सम्पूर्ण आत्मा संग प्रवेशार्थ प्रवृत्त थी; अपने कर से मैंने उसके कपोल-स्पर्श किए, और उसके केशों के मूल सहित शुष्क चन्दन संग शुभ्र उसका मस्तक, और उसपर उत्पल-पर्णों संग उसके स्कंध, और उसका उर कमल-पत्रों एवं चन्दन-रस के कणों से आवरित था। मृदु-धिक्कार वचनों संग; "तुम निर्दयी हो, पाण्डुरीक ! तुम्हें ध्यान नहीं है कि मैं अतएव दीन-हीन हूँ।' मैंने पुनः उसे वापस विजय करना चाहा। मैंने पुनः उसे आलिङ्गन किया, मैंने पुनः उसके कण्ठ को पकड़ा, और जोर से रुदन किया। तब मैंने उस मोती-माला की यह कहते हुए भर्त्सना की : 'अरी दुष्ट, क्या तुम मेरे आगमन तक उसके प्राण-रक्षित नहीं कर सकती थी ?" तब पुनः प्रार्थना के साथ कपिञ्जल के चरणों में पड़ी, "मेरे स्वामी, करुणावान बनो; उसके प्राण पुनर्स्थापित कर दो।" और पुनः तारालिका की ग्रीवा से लिपट कर रोई। अभी तक जब मैं इसके विषय में मनन करती हूँ, मैं नहीं जानती कि कैसे ये दयनीय, मृदु शब्द मेरे दुर्दैव हृदय से बाहर रहे थे - सभी शब्द अविचारित, बिना सीखे अज्ञात, पूर्व-अदर्शित, ही कैसे ये संवाद उत्थित हुए, ही निराशा के ये हृदय-विदारक क्रंदन। मेरा सम्पूर्ण आत्म परिवर्तित हो गया था। क्योंकि वहाँ अन्तः-अश्रुओं की प्लुत (बाढ़) -ऊर्मि उत्थित थी, रुदन के निर्झर उमड़ पड़े थे, विलाप की कलियाँ विकसित हुई थी, दुःख के शिखर अत्युच्च हो गए थे और मूढ़ता की एक दीर्घ रेखा प्रारम्भ हो गई थी। और, जैसे उसने अपनी कथा सुनाई, उसको उस पूर्व-पलायन का कटुवाहक-स्वाद पुनः भास हुआ, इतना क्रूर इतनी कठिन-असह्य, और एक मूर्च्छा ने उसे चेतना-शून्य कर दिया। अपनी नष्ट-चेष्टता (मूर्च्छा) के बल में वह शैल पर गिर पड़ी, और चंद्रापीड़ ने हड़बड़ी में उसके भृत्य की भाँति उसका हस्त खींचा, और शोक-पूर्ण उसको सहारा दिया। काफी समय बाद अश्रुओं से आर्द्र उसने अपने वल्क-अंशुक के छोर से उसको हवा करने द्वारा उसे पुनः चेतना में लाया। करुणा-पूरित, और अश्रुओं में अभिषिक्त अपने कपोलों से, जैसे ही वह पुनर्जीवन प्राप्त हुई, उसने उसको कहा : 'देवी, यह मेरा अपराध है कि तुम्हारा शोक इसकी प्रथम-नूतनता में पुनः लाया गया है, और अब तुम इस अवस्था को प्राप्त हुई हो। अतः इस कथा का और अतिरिक्त नहीं चाहिए। इसे समाप्त हो जाने दो। यहाँ तक कि मैं भी इसे श्रवण में असमर्थ हूँ। क्योंकि एक सखा द्वारा पूर्व-सहे गए कष्ट की कथा भी अतएव पीड़ा देती है जैसे कि हम स्वयं इसके मध्य जी रहे हों। अतः तुम दारुण-अग्नि पर निश्चित ही इतना मूल्यवान इतने कष्ट से रक्षित जीवन नहीं रखोगी ?' अतएव उवाच कर, एक दीर्घ-ऊष्म आह और अश्रु-पूरित नेत्रों सहित, उसने निराशा से उत्तर दिया : 'कुमार, उस कराल (भीषण) रात्रि में भी मेरे घृणित जीवन ने मुझे परित्यक्त नहीं किया; यह ऐसा नहीं है कि मुझे अब छोड़ेगा। इतनी एक दुर्भागी खल से तो सुभग भी अपने नेत्र हटा लेता है। कब एक इतना निर्मम-हृदय सन्ताप को अनुभूत करेगा ? इतनी एक कुत्सित-प्रकृति में सब कुछ मिथ्या हो सकता है। परन्तु जैसे यह चाहे, रहने दो, इस निर्लज्ज हृदय ने मुझे अलज्जों में प्रमुख बना दिया है क्योंकि अपनी सब शक्ति में प्रेम देखकर जैसे एक इतने अभेद्य, और इसके माध्यम से अभी तक जीवित रहने से, इस विषय के बारे में मात्र क्या कहा जा सकता है ?'

"अथवा इस विशेष वस्तु के बताने से अधिक क्या कष्टतर हो सकता है जो सुनने या कहने हेतु असंभव माना जाता है ? मैं कम से कम संक्षेप में उस वज्र-पात के अनुसरण में हुए विस्मय को बताती हूँ, और भी बताऊँगी कि मेरे वर्धित जीवन के क्षुद्र-मंद कारण सम क्या आया, जिसने अपनी मृग-तृष्णा द्वारा मुझे अतएव भ्रमित किया, बोझिल, मेरी आवश्यकताओं के अनुपयुक्त, और मेरी सावधानी हेतु अकृतज्ञ। वह पर्याप्त होगा। बाद में, भाव (अन्तर) के आकस्मिक परिवर्तन में, मृत्यु पर दृढ़ता से संकल्प, फूट-फूट कर विलाप करती, मैंने तारालिका को पुकारा : "निर्दय-हृदयी बाला, जागो, कितने काल तक और रुदन करोगी ? काष्ट लाओ और एक चिता-निर्माण करो। मैं अपने प्राण-स्वामी का अनुसरण करूँगी।"

"सीधे ही एक जीव ने चंद्र-वृत्त का त्याग किया एवं गगन से अवतरण किया। उसके पीछे उसने अपने वक्ष से लटकते एक कौशेय वस्त्र को खींचा; सुधा-फेन सम शुभ्र, और पवन में लहराता; उसके कर्णो में झूलते चमकीले रत्नों से लोहित उसके कपोल थे; अपने वक्ष पर उसने एक तारामंडल सम मुक्ताओं के आकार में एक देदीप्यमान कंठहार धारण कर रखा था; शुक्ल-कौशय की धारियों सहित उसका पट्ट (पगड़ी) बंधा था, और भ्रमरों सम कृष्ण घुँघराले-केशों सहित उसकी मूर्धा (शीर्ष) थी; उसके कर्णावन्तस एक खिले शशि-उत्पल सम थे; उसके कन्धों पर केसर-रेखाओं के चिन्ह थे जो उसकी भार्याओं को विभूषित करता था; वह एक चंद्र-कमल सम शुक्ल था, आकार में विशाल, महानता के सभी लक्षणों से सम्पन्न, और रूप में देव-तुल्य; निर्मल जल सम स्पष्ट अपने चहुँ ओर पड़ रहे प्रकाश द्वारा वह अंतरिक्ष को पावनित करता प्रतीत हो रहा था, और एक ओसपूर्ण सुधामयी वर्षा द्वारा स्थूल तुषार द्वारा अभिषिक्त करता जिसने एक अति-शीत उत्पन्न थी जैसे कि वह अपने अंगों से इसे विसर्जन करता था, शीतल एवं सुगन्धित, और गोरचना चन्दन-द्रव की एक विपुल-राशि संग इसे छिड़काव करता था।

"ऐरावत के शुण्ड सम बलशाली भुजाओं और स्पर्श करने में शीतल उत्पल-पर्ण सम शुक्ल उँगलियों से, उसने मेरे मृत स्वामी को उठाया, और एक मृदंग भाँति गहन-स्वर में मुझसे कहा : "महाश्वेता, मेरी पुत्री, तुमको मरना नहीं चाहिए, क्योंकि तुम उसके संग पुनः सन्धि करोगी।" और इन वचनों के संग, जैसे एक पिता के मृदु वचन हों, वह पाण्डुरीक संग गगन में उड़ गया।

"किन्तु इस आकस्मिक घटना ने मुझे भय, विषाद, और उत्सुक-विव्हलता से भर दिया, और उच्छिरस (उठाए हुए मुख सहित) मैंने कपिञ्जल से पूछा कि इसका क्या तात्पर्य हो सकता है परन्तु बिना उत्तर दिए वह शीघ्रता से आरम्भ हो गया, और क्रंदन के साथ, "दैत्य, तुम मेरे सुहृद साथ कहाँ जा रहे हो ?" और उत्थित दृष्टि आकस्मिक क्रोध से उसने शीघ्रता से अपनी कतित्र (लंगोटी) लपेटी, और डयन (उड़ान) में उसका अनुसरण करते उष्मित-अन्वेषण में गगन में उठा, और जब मैं अभी तक देख रही थी वे सब नक्षत्रों में प्रवेश कर गए।" परन्तु कपिञ्जल से विदा होना मेरे हेतु मेरे स्वामी की द्वितीय मृत्यु सम था, और इसने मेरे दारुण को द्विगुना कर दिया, जिससे कि मेरा हृदय पृथक पड़ गया। किंकर्त्तव्यविमूढ़, मैं तारालिका पर चीखी : "क्या तुम नहीं जानती हो ? मुझे बताओ कि इसका क्या अर्थ है ?" परन्तु इस दृश्य पर एक नारी की सर्व-कातरता संग उस क्षण वह अपने सभी अंगों में कम्पित थी, और अतएव अधोमुखी उर सहित उसने दयनीयता से उत्तर दिया : "राजकन्ये, मैं अभागी नहीं जानती हूँ तथापि यह एक महद-विस्मय है। वह पुरुष नश्वर-वपुधारी नहीं है और अपनी उड़ान में तुम उसके द्वारा एक तात के सम करुणीय-सांत्वना दी गई हो। इस प्रकार के देवतुल्य प्राणी हमें यहाँ तक कि निद्रा में भी नहीं, वंचक-स्वभाव के नहीं होते हैं, और सम्मुख तो नितांत ही अल्प; और जब मैं इसका विचार करती हूँ मैं उसके मिथ्या-भाषण हेतु कोई न्यूनतम कारण भी नहीं देख सकती हूँ।

अतएव यह मिलन है कि तुम्हें इसको जाँचना चाहिए, और मृत्यु हेतु अपनी इच्छा का निग्रह करना चाहिए। तुम्हारी वर्तमान स्थिति में यह सत्यमेव धैर्यार्थ एक विशाल-भूमि है। इसके अतिरिक्त, कपिञ्जल पाण्डुरीक के अन्वेषण में गया है। उससे तुम जान सकती हो कि यह प्राणी कैसे कौन है, और क्यों मृत्यु पर पांडुरीक उस द्वारा उठाया और ले जाया गया है, और कहाँ उसे ले जाया गया है, और किस कारण तुम उस द्वारा विचारातीत पुनर्मिलन की एक आशा-वरदान से आश्वस्त की गई हो; तब तुम अपने स्वयं को या तो जीवन अथवा मृत्यु को समर्पित कर सकती हो। क्योंकि जब मरण का विश्लेषण होता है तो उपाय निकालना सुगम होता है। परन्तु यह प्रतीक्षा कर सकती है, क्योंकि यदि कपिञ्जल जीवित रहता है तो निश्चित ही तुम्हें देखे बिना विश्राम से रह सकेगा; अतएव उसकी वापसी तक अपना जीवन सुरक्षित रहने दो।" अतएव कहकर, वह मेरे चरणों में गिर पड़ी। और मैं, जीवन हेतु तृषा से जिसे नश्वर-प्राणी वशीभूत करने में इतना दुष्कर पाते हैं, और नारी-स्वभाव की दुर्बलता से, और भ्रम से जो उसके वचनों ने निर्मित किया था, और कपिञ्जल के प्रत्यागमन (वापसी) हेतु अपनी उत्सुकता से सोचा कि इस समय हेतु योजना सर्वोत्तम है, मरी नहीं। क्योंकि आशा क्या लब्ध करा सकती है ?

"वह रात्रि मैंने सरोवर-तीर पर तारालिका की संगति में बिताई। मेरी दयनीयता हेतु यह एक प्रलय-रात्रि सम थी, जो एक सहस्र वर्षों में खींच ली गई थी - समस्त यंत्रणा, सब दारुण, सब नरक, सब अग्नि ! निद्रा निर्मूल थी, और मैं भू-पतन कर दी गई थी; मेरा मुख खुला एवं अस्त-व्यस्त लटाओं द्वारा आवरित था जो मेरे कपोलों पर चिपकी थी, अश्रुओं से आर्द्र और रज से धूसरित, और मेरा कण्ठ दुर्बल था, क्योंकि मेरी वाणी अनुत्तीर्ण थी, दयनीय रुदन से विदीर्ण।

"प्रभात पर मैं उठी और ताल में स्नान किया, और अपना व्रत लेकर मैंने पाण्डुरीक-प्रेम हेतु उसका कलश और उसके वल्कल-अंशुक उसकी स्मरणी (माला) ली। मैंने स्वयं अपने गुण के क्षय को अनुभव किया; मैंने भाग्य-प्रहारों की निरुपाय क्रूरता स्वयं में चित्रित की, मैंने शोक-अपरिहार्यता का मनन किया; मैंने दैव-कर्कशता को विचारा; मैंने शोक-समृद्ध प्रेम-पथ का चिंतन किया; मैंने पार्थिव-वस्तुओं की अस्थिरता को सीखा; मैंने सभी हर्षों की दुर्बलता को ध्यान किया। पिता-माता को बिसरा कर; बन्धु-गण अनुचर त्यागकर; वसुंधरा के सुख मेरे मस्तिष्क से वंचित थे; इन्द्रियाँ भीषण-अंकुश में रखी गई थी।

"मैंने तापसी-व्रत लिया, और त्रिलोकीनाथ दीनसहाय शिव की शरण ढूँढी। अगले दिवस किसी भाँति मेरी कथा जानकर मेरा पिता आया, अपने संग मेरी माता बन्धु-गणों को साथ लाते हुए उसने बहुत तक दीर्घ विलाप किया, और अपने पूर्ण-बल प्रत्येक प्रकार की प्रार्थना, भर्त्सना, और सब भाँति के मृदु-वचनों से मुझे निकेतन ले जाने का प्रयास किया। (३३६) और जब उसने मेरा दृढ़-निश्चय समझ लिया, और जान लिया कि मैं उस आसक्ति से नहीं मोड़ी जा सकती हूँ, यद्यपि निराश, वह पुत्री से निज-स्नेह के कारण विदा हो सकता था; और यद्यपि मैंने प्रायः उसे गमन हेतु विदाई दी, वह कुछ दिवस ठहर गया, और अंत में, अन्तः से उष्मित अपने हृदय के संग शोकपूर्ण आवास लौट गया।

"उसके जाने के पश्चात, यह मात्र शून्य अश्रुओं द्वारा था कि मैं अपने स्वामी के प्रति श्रद्धा दिखा सकती थी, अनेक पश्चात्तापों द्वारा मैंने अपनी घृणित देह नष्ट की; उसके प्रेम द्वारा क्लांत, पापों में समृद्ध, लज्जा-शून्य, अशुभ-चिन्हित, और दुःख के एक सहस्र-कष्टों का गृह; मैं मात्र जल मूलों वन्य-फलों पर जीवित रही; अपने मन के बताने के छद्म में मैं उसके गुण गिनती रही; दिवस में तीन बार मैं ताल में स्नान करती थी; मैं प्रतिदिन शिव का पूजन करती, और इस गुफा में तारालिका संग एक महद-दुःख की कटुता का आस्वादन करते हुए आवास करती हूँ। मैं ऐसी अपावन, अमांगलिक, अलज्ज, क्रूर, शीत, हिंसक, कुत्सित, अयोग्य, अफलित, असहाय अप्रसन्न हूँ। क्यों तुम सम उत्तम को मुझे देखना अथवा वार्ता करनी चाहिए, जो दैत्यिक अपराध-कर्त्री है, एक ब्राह्मण-जघ्ना ? अतएव उवाच कर, उसने अपने वल्कल-अंशुक के श्वेत छोर से अपना आनन छुपा लिया, जैसे कि शरद-मेघ के एक आवरण से इंदु छुप रहा हो, और, अपने अश्रुओं के अनियंत्रित शोक को शांत करने में अक्षम, उसने रुदन में स्वयं को दे दिया और जोर से दीर्घ विलाप करना प्रारम्भ कर दिया। 

"प्रथम से ही चन्द्रापीड़ उसकी चारुता, विनीतता, विनम्रता द्वारा आदर-पूरित था; उसकी वाणी, उसकी निःस्वार्थता उसके तप की मधुरता द्वारा; और उसकी निर्मलता, दीनता, महिमा और शुचिता द्वारा। परन्तु अब वह उसकी जीवन-कथा जिसने उसका उत्तम चरित्र प्रकट किया, और समर्पित आत्मा एक नूतन-सहृदयता उसमें उदित हुई। कोमल उर सहित उसने शिष्टता से कहा : 'देवी, जो पीड़ा से डरते हैं वे रो सकते हैं, और आभार-शून्य हैं, और सुखों से प्रेम करते हैं, क्योंकि वे स्नेह-अनुकूल कुछ भी करने में असमर्थ हैं, और मात्र वृथा अश्रुओं द्वारा अपनी प्रीति दिखाते हैं। परन्तु तुम जिसने समस्त उचित प्रकार किया है, तुम्हारा क्या प्रेम-कर्त्तव्य शेष रह गया है कि तुम रुदन करती हो ? तुमने पाण्डुरीक हेतु, अपने स्वजन जो जन्म से तुम्हारे चहुँ ओर हैं, जो अति-प्रिय हैं, इस प्रकार त्याग दिए हैं कि जैसे कि अपरिचित हों। पार्थिव सुख, यद्यपि तुम्हारे चरणों में हैं, तृण भाँति घृणित अधम-विचारित हैं। शक्ति के ऐश्वर्य, यद्यपि उनकी समृद्धि इंद्र-साम्राज्य से भी श्रेयस्कर है, परित्यक्त कर दिए गए हैं। तुम्हारी वपु दुर्धष (भयावह) व्रतों द्वारा कृश हो गई है, यद्यपि प्रकृति-प्रदत्त यह एक पद्मनाल सम मृदु है। तुमने तापसी प्रणिधान (नियम) धारण किया है। तुम्हारी आत्मा महद-तप को समर्पित है। तुम वन-निवासिनी हो, यद्यपि यह एक नारी हेतु दुष्कर है। इसके अतिरिक्त उन द्वारा जीवन सुगमता से त्याग दिया जाता है जिनको कष्ट विव्हल करता है, परन्तु यह एक महत्तर प्रयास माँगता है कि महद-दारुण में भी जीवन त्याग किया जाए। मृत्यु की ओर यह अन्य अनुचरण सर्वथा वृथा है। यह पथ विद्याहीनों द्वारा गमित किया जाता है ! यह मात्र मूढ़ता की एक तरंग है, अधमता का एक दृश्य, अविवेक का मात्र एक लक्षण, और मूर्खता का एक विभ्रम, कि एक को पिता, भ्राता, सखा, अथवा पति की मृत्यु पर अपना जीवन त्याग देना चाहिए। यदि जीवन हमें स्वयं से नहीं त्यागता है, हमें भी इसे नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि यदि हम निरीक्षण करें, यह जीवन-त्याग हमारी अपनी रूचि हेतु है, क्योंकि निज में उपचार-शून्य (निरुपाय) हैं। मृत पुरुष को यह किसी भी भाँति उत्तम नहीं लाता है। क्योंकि यह उसको पुनः जीवन-प्रदान का उपाय नहीं है, अथवा पुण्य-संचित करने का, अथवा उसके हेतु स्वर्ग-प्राप्ति का, अथवा उसे नरक से मुक्ति का, अथवा उसे पुनः देखने का, अथवा उसके संग पुनः जुड़ जाने का। क्योंकि वह अपने स्वयं के कृत्यों के फलों हेतु असहाय, प्रबल रूप से अन्य स्थिति-प्राप्ति हेतु संचालित होता है। और वह मित्र के दोष को साँझा करता है जिसने आत्म-हत्या की है। परन्तु हत्या द्वारा वह किसी को भी सहायता नहीं करता है। स्मरण करो कि कैसे रति ने, मदन की एकमात्र प्रिय-भार्या, जब उसका उत्तम भर्ता, जिसने सब कामिनियों के उर्वश कर लिए थे, शिव की नेत्राग्नि द्वारा भस्मित हो गया था, तथापि अपना जीवन नहीं त्यागा; और सूरसेन-दुहिता वृषिणी कुल-दुहिता कुन्ती को भी स्मरण करो, क्योंकि उसका पति बुद्धिमान पाण्डु था; उसका आसन सभी नरेशों के मुकुट-पुष्पों द्वारा सुवासित था, और वह समस्त पृथ्वी का उपहार (शुल्क) ग्रहण करता था, और वह किंडम के शाप द्वारा ग्रसित हो गया, और वह तथापि जीवित रही। विराट की अल्प-वयस्का सुता उत्तरा भी, अभिमन्यु की मृत्यु पर, जो विनीत और वीर, और नव-इंदु सम नयनाभिराम था, तथापि जीवित रही। और उसने अपने शत-भ्राताओं द्वारा स्नेह-दुलारित, धृतराष्ट्र-पुत्री दुहेशल्य ने भी; जब सिंध-नृप जरासन्ध अर्जुन द्वारा मारा गया जबकि वह चारु महान था जैसे कि वह शिव के वरदान द्वारा बन गया था, तथापि उसने जीवन-त्याग नहीं किया। और अन्य सहस्रों राक्षस, देव, दैत्य, तपस्वी, नश्वर, सिद्ध गन्धर्वों की कन्याऐं बताई जाती है, जो जब अपने भर्ताओं से विहीन हो गई तथापि अपना जीवन-सुरक्षित रखा। परन्तु अपने हेतु, तुमने उस महात्मा से पुनर्मिलन-वचन सुन रखा है। तुम्हारे अपने अनुभव के विषय में क्या सन्देह हो सकता है, और इतने उत्तम सत्य-वक्ता साधु-वचनों में कैसे मिथ्या एक स्थल पा सकता है, चाहे बृहत्तर कारण ही क्यों हो ? और मृतक एवं जीवित के मध्य क्या सन्धि हो सकती है ? अतएव निश्चय से वह विस्मयी-प्राणी करुणा-पूर्ण था और पाण्डुरीक को स्वर्ग में मात्र उसे पुनर्जीवित करने हेतु लेकर गया था। क्योंकि महापुरुषों की शक्ति विचार से उत्तम होती है। जीवन के अनेक आयाम हैं। दैव बहु-रूपी है। जो तप-निपुण हैं, विस्मयी-चमत्कारों हेतु उपयुक्त हैं। अनेक पूर्व-कृत्यों द्वारा प्राप्त बल के रूप हैं। इसके अतिरिक्त, हम क्या तत्व को कितनी ही सूक्ष्मता से अध्ययन करें, पाण्डुरीक को ले जाने हेतु, हम क्या कारण आभास कर सकते हैं, सिवाय नूतन-जीवन के पारितोषिक के। और यह तुम्हें अवश्यमेव जानना चाहिए कि असम्भव है। यह पथ प्रायः गमित होता है। (३४१) क्योंकि गन्धर्वराज विश्ववसु और मेनका की पुत्री प्रमद्वारा ने स्थूलकेश के तपोवन पर एक विषैले भुजंग द्वारा अपना जीवन नष्ट किया, और प्रमति-पुत्र भृगु च्यवन के पौत्र, युवा तपस्वी रुरु ने अपने स्वयं के जीवन का अर्ध-भाग उसे भेंट कर दिया। और जब अर्जुन अश्वमेध अश्व का अनुसरण कर रहा था, उसको अपने पुत्र बभ्रुवाहन से शर द्वारा युद्ध-रथ में भेदित किया गया, और एक नाग-कन्या उलुपा ने उसे पुनर्जीवित किया। जब अश्वत्थामा के भीषण शर द्वारा अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित उपभुक्त हुआ, यद्यपि वह जन्म से पूर्व ही मर चुका था, उत्तरा के विलाप द्वारा करुणा-पूरित कृष्ण ने उसका बहुमूल्य जीवन पुनर्स्थापित किया। और उज्जैयिनी में, वह जिसके चरण त्रिलोकों द्वारा पूजित हैं, संदीपाणी ब्राह्मण के पुत्र को यमलोक से वापस लाया। और तुम्हारे विषय में भी, किंचित ऐसा ही होगा। किन्तु तुम्हारे वर्तमान दारुण द्वारा क्या प्रभावित हुआ अथवा विजित है ? दैव सर्व-शक्तिमान है। भाग्य बलवान है। हम अपनी स्वयं की इच्छा से एक श्वास भी नहीं खींच सकते हैं। उस शापित क्रूरतम भाग्य की तरंगें अतीव निर्दयी हैं। इसकी निष्कपटता में एक प्रेम-उत्सव दीर्घ सहन अनुमत्य नहीं है ; क्योंकि अपने सारे सुख-प्रमोद दुर्बल नष्टवान (अस्थायी) प्रकृति के हैं, जबकि अपने स्वभाव द्वारा दीर्घजीवी हैं। क्योंकि एक जीवन में कितनी कठिनाई से नश्वर परस्पर जुड़ते हैं जबकि एक सहस्र जन्मों में पृथक हैं।  तब वे निश्चित ही स्वयं को दोष नहीं दे सकते, सभी दोष के अनुपयुक्त। क्योंकि ये चीजें उनके साथ प्रायः घटित होती हैं जब वे देहान्तरण के जटिल पथ में प्रवेश करते हैं, और वह वीर है जो दुर्भाग्य-विजित करता है।' ऐसे उत्तम शांतिदायक वचनों उसने उसको सांत्वना दी, और यद्यपि अनमने मन से ही उसको निर्झर से अपनी अंजुली में लाए जल द्वारा अपना मुख-स्नान करने को तैयार किया।
......क्रमशः   


हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(२४ फरवरी, २०१९ समय १६:४६ सायं)