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Sunday 4 November 2018

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -२


परिच्छेद -  

  
एक बार एक समय शूद्रक नामक एक राजा था। द्वितीय इंद्र भाँति उसका प्रभुत्व सभी नृपों के नमित शीर्षों द्वारा सम्मानित था; चार महासमुद्रों द्वारा परिसीमित वसुंधरा का वह स्वामी था, उसके पास उसके तेज के समक्ष सिर झुकाए पड़ौसी मुखियों की एक सेना थी, उसमें एक सार्वभौम नृप के लक्षण थे।

विष्णु भाँति उसके कर-कमल में शंख एवं चक्र थे, शिव भाँति उसने काम को विजित कर लिया था; कार्तिकेय सम वह बल में अपराजेय था; बलराम सम विनीत नृप-वृत्त उसके पास था; महासागर सम वह लक्ष्मी-स्रोत था; गंगा-स्रोतों सम वह पावन सम्राट भागीरथ का पथ अनुसरण करता था; सूर्य सम वह प्रतिदिन नूतन भव्यता में उदित होता था; मेरु सम अपनी चरण-कांति से वह समस्त विश्व द्वारा सम्मानित थी; दिग्गजों सम वह निरंतर एक उदारता-स्रोत प्रवाहित करता था। वह विस्मय-कर्ता, यज्ञों का अर्पण-कर्ता, नैतिक न्याय का मुकुर (दर्पण), कला-उद्गम और गुणों का मूल-स्थान था। वह काव्य-सुधा माधुर्य का एक स्रोत, अपने समस्त सखाओं हेतु सूर्योदय-पर्वत और रिपुओं के लिए एक भयावह धूमकेतु था।

वह अतिरिक्त साहित्य-समाजों का संस्थापक था, सभी सुरुचिपूर्ण मनुजों का शरणदाता, धृष्ट चापलूसों में उदासीन, वीरों में नेता और धीमानों में अग्र था। वह दीनों में हर्ष का कारण था जैसे वैनतेय (गरुड़) विनता हेतु। उसने अपने धनुष के सिरे से अपने शत्रुओं के सीमा-पर्वतों को उखाड़ फेंका था जैसे पृथुराजा ने उत्तम पर्वतों को। वह कृष्ण का भी उपहास करता था क्योंकि उत्तरवर्ती तो मात्र अपने नरसिंह रूप की डींगें हाँकता था, जबकि वह स्वयमेव रिपुओं को उर में मात्र अपने नाम से हरा देता था, और कृष्ण ने जहाँ अपने तीन कदमों से ब्रह्माण्ड क्लांत किया था, उसने मात्र एक वीरोचित प्रयास से समस्त विश्व विजित कर लिया था। कीर्ति उसकी खड़ग की पैनी धार पर दीर्घ समय तक निवास करती थी, जैसे कि एक सहस्र क्षुद्र-राजपुरुषों (मुखियों) के सम्पर्क से कलंक को धोने में। उसके मस्तिष्क में धर्म के अन्तर्निवास से, यम उसके क्रोध में, कुवेर उसकी करुणा में, अग्नि उसकी भव्यता में, पृथ्वी उसकी भुजाओं में, लक्ष्मी उसके दृष्टिपात में, सरस्वती उसकी वाग्मिता (वाक्पटुता) में, इंदु उसके मुख में, मारुत उसकी शक्ति में, बृहस्पति उसके ज्ञान में, कामदेव उसके रूप में, प्रभाकर उसकी भव्यता में होने से वह पावन नारायण सदृश था जिसकी प्रकृति प्रत्येक रूप में प्रदर्शित है और जो ईश्वर का मूल-सत्व है। राजसी-महिमा सदा हेतु उसके पास गई थी, जैसे कर्ण-पीप से पीड़ित प्रचण्ड हस्तियों की युद्ध वाली रात्रि में एक कामिनी अपने प्रियतम से मिलने आती है और वीरों के वक्ष-कपाटों से उतारे गए सहस्रों कवचों के तिमिर-मध्य उसके संग खड़ी हो जाती है। वह खड़ग द्वारा प्रबल रूप से उसकी ओर खिंची सी लगती है जो उसके सुदृढ़ कर के दबाव से बाहर निकलती स्वेद-बिंदुओं के कारण प्रवाह में असमतल प्रतीत होती है, और जो विशाल-मणियों से जड़ित है जो उसको वन्य-करियों की मस्तक-अस्थियों को चीरते हुए मिली है। उसकी प्रताप-ज्वाला दिवस-रात्रि प्रदीप्त थी जैसे यह उसके अरियों की लावण्य-भार्याओं में एक अग्नि हो यद्यपि चाहे अपने स्वामियों द्वारा पूर्ण हों, जैसे कि वह उनके हृदयों में ऐसा संजोया था कि वह मात्र अभी उनके पतियों का विनाश कर देगा।

यद्यपि वह धरित्री विजित करके विश्व-स्वामी था, वर्ण-मिश्रण मात्र चित्रकला में था, केश-कर्षण मात्र प्रेम-स्पर्श में था, कपट मात्र स्वप्नों में था, सुवर्ण दण्ड मात्र वितानों (छतरी) में था। केवल ध्वज ही कंपायमान होते थे, केवल गीत ही विविध प्रदर्शित करते थे, मात्र हस्ती ही उच्छृंखल थे, केवल खड़ग ही गुणों को काटते थे, मात्र गवाक्षों में लुभावना जाल था, प्रेमियों के मतभेद मात्र संदेशवाहकों द्वारा प्रेषित थे, जुआँ एवं शतरंज खिलाड़ी मात्र रिक्त-वर्गों को छोड़ते थे और उसकी प्रजा के पास कोई निर्जन आवास थे। उसके अधीन डर भी मात्र अगले जन्म का था, पाणि-ग्रहण मात्र विवाह में था, अश्रु-निकास मात्र अनवरत यज्ञाग्नि-धूम्र कारण था, चाबुक-मार मात्र अश्वों हेतु थी, टंकार मात्र काम-बाण चलाने से थी।

जब सहस्र-मरीचि भास्कर नव-मृणाल कलियों में प्रवेश करके पंखुड़ियों को खोलता है, यद्यपि यह पूर्ण-उदित नहीं हुआ था तथापि उसने प्रभात की किञ्चित पीतिमा त्याग दी थी, एक स्त्री-द्वारपाल ने नृप की सभागार में प्रवेश किया, और विनीत भाव से सम्बोधित किया। उसका रूप लावण्यमयी था यद्यपि भयावह था और अपने वाम भाग पर लटकी कृपाण के साथ वह चंदन-वृक्ष में लिपटे भुजंग सम प्रतीत हो रही थी। उसका वक्ष-स्थल गहन चंदन-लेप से आकाश-गंगा सम दमक रहा था जब इसकी धाराओं में से ऐरावत का मस्तक बाहर उठता है।

उसके समक्ष झुकते हुए अधिकारी अपने मुकुटों पर उसके प्रतिबिम्ब से ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे मानव रूप में उन्होंने राजाज्ञा अपने शीश धारण की हुई है। हंसों की श्वेतिमा लिए हेमन्त ऋतु सम वह शुभ्र-अंशुक पहने थी, परशुराम के फरशे सम उसके समक्ष नृप ने समर्पण कर रखा था, विंध्य-वनभूमि भाँति उसने दण्ड धारण कर रखा था और वह क्षेत्र की संरक्षण-देवी सम प्रतीत हो रही थी। भूमि पर कमल-हस्त एवं जानू (घुटने) टिकाते हुए उसने उवाच किया, "महाराज, वहाँ द्वार पर दक्षिण की चाण्डाल-युवती खड़ी है जो त्रिशंकु-कुल की राजसी महिमा है, जो स्वर्ग में चढ़ गया था परन्तु क्रोधित इंद्र के बड़बड़ाने से वहाँ से गिर पड़ा था। उसने पिंजरे में एक शुक पकड़ रखा है और मुझे आप महाराज को यह कहने का निवेदन किया है, "महाराजाधिराज, आप महासागर सम सम्पूर्ण-धरिणी की धन-सम्पदा ग्रहण के योग्य हैं। यह विचार करके कि यह पक्षी एक विस्मय है तथा समस्त-धरा निधि है, मैं इसे आपके चरण-अर्पण करने लाई हूँ और आपके अवलोकनार्थ इच्छा रखती हूँ।

हे नृप, आपने संदेश सुन लिया है, कृपया निर्णय करें। यह कहकर उसने अपनी वाणी को विश्राम दिया। महाराज, जिसकी जिज्ञासा जागृत हो चुकी थी, ने अपने गिर्द राजपुरुषों को देखा और इन शब्दों के साथ 'क्यों नहीं' ऐसा कहकर उसको अंदर आने की आज्ञा दे दी। तब तुरंत सम्राट की अनुज्ञा से स्त्री द्वारपाल ने चांडाल-कन्या को अंदर प्रवेश कराया। उसने प्रवेश करके इंद्र के वज्र से भीत परस्पर दुबके पर्वतों में उच्च सुवर्ण-शिखर मेरु सम सहस्र-राजपुरुषों मध्य विराजमान महाराज को निहारा, जिसकी वेशभूषा पर जड़ित आभूषणों की चमक से उसका रूप लगभग छिप गया था जैसे प्रलय-दिवस में पृथ्वी के अष्ट-मंडल इंद्र के सहस्र धनुषों द्वारा आच्छादित कर दिए जाते हैं। वह चंद्रकांत जड़ित एक आसन्न पर विराजमान था जो एक लघु रेशमी-छत्र नीचे रखा था और जैसे दैवी-सरिताओं के अम्बु सम श्वेत था, और इसके रत्न-जड़ित चार स्तम्भ हेम-श्रृंखलाओं से युजित किए गए थे और विशालाकार मणि-रज्जुओं द्वारा सुसज्जित थे। सुवर्ण मूँठ लगे अनेक चँवर चारों ओर पंखा झल रहे थे।

उसका वाम पाद एक स्फटिक-पादपीठ पर रखा हुआ था जो इंदु सम उसके मुख की दमकती चारुता के समक्ष लज्जा से झुका था और उसकी चरण-कांति द्वारा सुशोभित था जो अभी तक नीलमणि जड़ित पथ की प्रकाश-रश्मियों से नील-रंजित था जैसे कि विजित शत्रुओं की आहों में कृष्ण। उसका वक्ष उसके सिंहासन-पद्मराग द्वारा रक्तिम सा हुआ मधु-कैतभ वध से नूतन लहू से रक्तिम हुए कृष्ण की स्मृति दिलाता था, उसके अमृत-फेन सम धवल दो कौशेय (रेशमी) अंशुक, जिनके गोटों पर पीत वर्ण में हंस-युगल चित्रित था, चँवरों की वात से हिलते थे।सुवासित चंदन लेप द्वारा श्वेतित उसका वक्ष ऐसे प्रतीत था जैसे प्रभात सूर्योदय-मरीचि से हिमाच्छदित कैलाश। उसका मुख मणि-आवृत था जैसे सितारों को भूलवश शशि समझ लिया गया हो, नीलमणि जड़ित भुजबंदों ने उसकी  बाजुओं को ऐसे बाँध रखा था जैसे चंदन-वन की सुवास से आकर्षित भुजंग।

उसके कर्ण में मृणाल-पत्र किंचित नीचे लटक रहा था, उसकी नासिका गरुड़ीय थी, उसके नयन पूर्ण-विकसित उत्पल सम थे, केश उसकी भ्रूओं मध्य में उगे थे और वह जल द्वारा पावनित था जो उसके अखिल ब्रह्माण्ड-साम्राज्य का परिचय कराती थी। उसका मस्तक रुचिकर बेला (चमेली) की माला पहने एक विशुद्ध सुवर्ण भाग से घड़े हुए अष्टमी के इंदु-सम था जैसे कि उषाकाल-नक्षत्रों सहित शिखर पर पीत पश्चिमी-पर्वत। वह शिव की नेत्राग्नि-प्रहार से उसके आभूषणों का वर्ण कपिल (पीला-भूरा) हो गए कामदेव भाँति था। उसकी दासियों ने उसको चारों ओर से घेर रखा था जैसे कि पृथ्वी की दिशा-देवियाँ हों और पूजा करने आई थी। उसको पृथ्वी ने उत्पन्न किया था क्योंकि निष्ठा द्वारा उसका उर-प्रतिबिम्ब संगमरमर कुट्टिम (फर्श) पर स्पष्ट दिखता था, भाग्य मात्र उसका प्रतीतमान था क्योंकि उसके द्वारा भूमि को सबके आनंद हेतु दान दिया गया था।

वह अद्वितीय था यद्यपि उसके असंख्य अनुचर थे; वह मात्र अपनी खड़ग पर विश्वास करता था जबकि उसकी सेवा में असंख्य गज एवं अश्व थे; वह समस्त धरित्री आच्छादित करता था और यद्यपि वह भूमि के एक अल्प भाग में ही खड़ा होता था; वह मात्र अपने धनुष पर ही विश्वास करता था और तथापि अपने सिंहासन में बैठता था; वह कीर्ति-अग्नि के साथ चमकता था यद्यपि उसके शत्रुओं का समस्त ईंधन उखाड़ा जा चुका था; उसके नेत्र विशाल थे और तथापि वह सूक्ष्मतम वस्तुओं को देख लेता था, वह समस्त गुण-आकर था और तब भी बहुत सी रिक्तता थी; वह अपनी भार्याओं का प्रियतम था तथापि एक निरंकुशस्वामी था; वह उन्माद-मुक्त था यद्यपि उसके पास उदारता की अचूक धारा थी; वह प्रकृति में पारदर्शी था तथापि चरित्र में एक कृष्ण था; वह अपनी प्रजा पर भारी कर नहीं थोपता था और तब भी समस्त-विश्व उसकी मुट्ठी में था।

वह उस प्रकार का महानृप था। और फिर भी उसने उसको दूर से निहार कर, लाल-कमल पल्लव सम कोमल खनखनाते कंकणों से घिरे और नुकीली धार वाले बाँस पकड़े हस्त से नृप का ध्यानाकर्षण हेतु एक बार पच्चीकारी संगमरमर के फर्श का स्पर्श किया; और उस ध्वनि से  एक ही क्षण में समस्त राजपुरुष-सभासदों ने अपने नेत्र नृप से हटाकर उसकी ओर कर लिए, जैसे वन्य हस्ती- दल नारियल के गिरने पर। तब नरेश ने अपने सभासदों को 'वहाँ देखो' सम्बोधन कर चाण्डाल-कन्या पर दीर्घ दृष्टिपात किया, जैसे कि वह स्त्री-रक्षक द्वारा इंगित की गई थी।उससे पूर्व एक पुरुष आया जिसके केश वय के साथ श्वेत हो गए थे, उसकी अक्षियों में लाल राजीव  वर्ण था, अनवरत श्रम के कारण उसके जोड़ सुदृढ़ थे यद्यपि यौवन गत हो गया था; उसका रूप  यद्यपि मतंग सम था, तिरस्करणीय था और उसने राजसभा अनुरूप धवल पोशाक पहन रखी थी।उसके पीछे एक चाण्डाल बालक था जिसकी लटें किसी एक स्कंध पर पड़ती थी, ने एक पिंजरा  पकड़ रखा था जिसकी छड़ें यद्यपि सुवर्ण की थी, शुक-पंखों के प्रतिबिम्ब के कारण हरित-मणि (पन्ना) सम चमक रही थी।

वह स्वयं अपनी वर्ण-कालिमा द्वारा कृष्ण से मेल खाती थी जब उसने दानवों द्वारा चुराए हुए अमृत को छीनने हेतु कपट- पूर्ण एक मनमोहिनी के वस्त्र धारण कर लिए थे। वह अकेली चलती नीलमणि-पुतली सम प्रतीत होती थी और नील-वस्त्रों के ऊपर जो उसके टखने तक पहुँच रहे थे, लाल-रेशम का एक आवरण पड़ा हुआ था जैसे संध्या की भास्कर-ज्योति नीलोत्पलों पर क्षिप्त होती है उसका गण्ड-वृत्त (कपोल) एक कर्ण से लटकते आभूषण द्वारा श्वेत था जैसे कि उदित इंदु-रश्मियों द्वारा जड़ित निशा-मुख; उसने गोरचना निर्मित पीत-वर्ण का एक तिलक लगा रखा था जैसे कि यह तृतीय नेत्र हो, जैसे कि शिव-परिधान के अनुरूप पर्वतीय-वेशभूषा में पार्वती। वह श्री की भाँति थी जो उसके वक्ष-स्थल परिधान पर नारायण की नीलिमा वैभव जैसे प्रकट हो रही थी, अथवा वह रति सम थी जो  क्रोधित शिव की नेत्र-अग्नि द्वारा भस्मित मदन के उठते धूम्र द्वारा अभिरंजित हो गई थी; अथवा क्रूर बलराम के हल द्वारा खींची जाने के भय से भागती यमुना की भाँति; या गाढ़े लाक्षरस से, दुर्गा भाँति जिसके पग जब उसने महिषासुर को कुचलने से निकले रक्त से लोहित हो गए थे, अपने चरणकमल मुकुलों में परिवर्तित कर लिए थे।

अपनी ऊँगलियों की पीत लाली से उसके नखाग्र गुलाबी थे; संगमरमर-फर्श उसके स्पर्श हेतु अति-कर्कश था और कोमल शाखाओं भाँति अपने पग भूमि पर जमाते हुए वह आगे आई। अग्नि-वर्ण में उठते उसकी नूपुर-रश्मि अग्नि-भुजाओं संग उसको वृत्तमय करती थी क्योंकि उसकी रमणीयता हेतु प्रेम द्वारा वह जन्म-अपयश को पवित्र कर देगा और विधाता को तुच्छता हेतु तैयार कर लेगा। उसकी मेखला मदगज-भ्रूओं पर सितारों की माला की भाँति थी और उसका कंठहार शुभ्र विशाल-मणियों की एक रज्जु थी जैसे कि गंगा-धारा अभी यमुना द्वारा रंजित हुई हो। हेमंत भाँति उसने उत्पल-नयन खोले; पावस भाँति उसकी लटें मेघसम थी, मलय पर्वतिका-वृत्त सम वह चन्दन द्वारा माल्यापर्ण थी।

ज्योतिष-चक्र सम वह सितार-जवाहिरों से सजी हुई थी, श्री भाँति उसके हस्त में कमल-शुचिता थी, मूर्च्छा सम उसने हृदय मोह लिया था, वन भाँति वह जीवन्त-लालित्य से सम्पन्न थी, देवी-सन्तति सम उसपर किसी जनजाति (तुच्छ) द्वारा अधिकार नहीं जमाया गया था, शयन सम उसने नयन-मुग्ध कर दिए थे, जैसे वन में पुष्करिणी (कमल-सरोवर) को गजों द्वारा विव्हलित किया जाता है वैसे ही वह मतंग (चाण्डाल) जनजाति में जन्म कारण मद्धम थी, एक आत्मा भाँति वह अस्पृश्य थी, पत्र सम वह मात्र नयन प्रसन्न करती थी, वसंत-मंजरी सम वह जाति-पुष्प विहीन थी, उसकी तनु कटि काम-धनुष सम हाथों से मापी जा सकती थी, अपने घुँघराले केशों संग वह अलका में यक्ष-नरेश की लक्ष्मी सम थी।

इस सौंदर्य-निर्माण करने में विधाता का परिश्रम निरर्थक था क्योंकि यदि जैसे स्वाँग में उसे चाण्डाल रूप में निर्मित किया गया है, जैसे कि विश्व की समस्त रूप-सम्पदा का उसके द्वारा उपहास किया गया है, क्यों वह ऐसे वर्ग में पैदा हुई है जिससे कोई परिणय नहीं कर सकता ? निश्चित ही प्रजापति ने उसे इस विचार के साथ पैदा किया कि मतंग-कुल संग सम्पर्क करने के दण्ड का डर रहेगा अन्यथा उसकी निर्मल-कांति स्पर्श से दूषित हो जाती। इससे भी अधिक, यद्यपि गौर रूप में अपनी जन्म-निम्नता के कारण, वह पाताल लोक की एक लक्ष्मी सम है, देवों का सतत तिरस्कार है क्योंकि इतनी प्रिय वह इस अदभुत संयोग के विधाता ब्रह्म में भी भीत पैदा करती है। जब महाराज अतएव मनन कर रहा था, कुसुम-माला धारण किए, जो उसके कानों पर पड़ी थी, उस युवती ने अपनी आयु से भी बढ़कर सविश्वास उसको नमस्कार किया। और जब उसने अपना सत्कार कर लिया और मरमर फर्श पर चरण रखे, पिंजरे में अभी गत शुक को हाथ में पकड़े उसके अनुचर ने उसे महानृप को दिखाते हुए कहा, श्रीमान ! वैशम्पायन नामक यह शुक जो सभी शास्त्रों का अर्थ-ज्ञाता है, राजसी नीति के व्यवहार में निपुण है।

वह कथाओं, इतिहास एवं पुराणों में कुशल है, और संगीत-मध्यान्तरों संग गीतों से भिज्ञ है।वह गायन करता है और स्वयं चारु एवं अतुलनीय नूतन प्रणय, प्रेम-कथा, नाटकों, काव्यों का निर्माता है और इसी तरह प्रत्युपन्नमति (हाजिर-जवाबी) में पारंगत है और वीणा, बाँसुरी एवं मृदंग वाद्य का एक अद्वितीय शिष्य है।वह नृत्य की विभिन्न मुद्राओं में निपुण, चित्रकला में दक्ष, नाटक में अति-साहसी, एक प्रेमी-कलह में क्रोधित कामिनी को शांत करने योग्य साधनों में तत्पर, और गज-अश्व एवं नारी गुणों से भली-भाँति परिचित है। वह समस्त मेदिनी का रत्न है और इस विचार से कि समस्त वैभव आपसे सम्बन्धित हैं जैसे मोती सागर से, मेरी स्वामी-दुहिता इसे आपके चरण-अर्पित करती है। महाराज, यह कृपया आप द्वारा स्वीकार किया जाए।

ऐसा कहकर उसने पिंजरा महाराज के समक्ष रखा और वापस कदम लिए।

और जब वह चला गया, खग-नृप ने महाराज के समक्ष खड़ा होकर और अपना दक्षिण पद उठाकर ये शब्द उवाच किए, 'अभिवादन है महाराज', प्रत्येक शब्द एवं स्वर में उत्तम एक छंद का व्याख्यान इस प्रकार है :

विलपते हैं तुम्हारी रिपु-भार्याओं के हृदय-स्थल
अब, एकांत विधवा-व्रत को किए हुए धारण,
क्षारित अश्रुओं में नहाई हुई, त्याग मोती-माला सब,
स्व निराश हृदयों द्वारा दग्ध, जो अतीव है निकट। '

और महाराज ऐसा सुनकर विस्मित हुआ और हर्ष से उसने अपने मंत्री कुमारपालित को सम्बोधन किया, जो उसके विद्वान सभासदों में प्रथम, महाराज के राजनीति-दर्शन मण्डल में वृहस्पति सम था। 'तुमने पंछी के विशुद्ध ध्वनि-उच्चारण और उसकी स्वर-शैली की मधुरता सुन ली है। प्रथम-दृष्टतया यह एक महान चमत्कार है, उसको एक ऐसा गीत गाना चाहिए जिसमें शब्दांश स्पष्टतया पृथक हों, और स्वर एवं अनुनासिका में स्पष्टता विशुद्धता का भी मिश्रण हो।

तब हम पुनः कुछ अधिक जान सकते हैं, क्योंकि यद्यपि निम्न-जन्मा होते हुए भी इसमें निपुणता है जैसे कि एक पुरुष एक रोचक कला में, और उसका गायन-क्रम ज्ञान-प्रेरित है। क्योंकि 'अभिवादन है' कूक संग इसने अपना दक्षिण पग सीधा किया था और मुझसे संबंधित यह गीत गाया था जबकि पक्षी-जंतु प्रायः डराने, खाने, युग्ल बनाने और शयन विद्याओं में मात्र निपुण होते हैं। यह सर्वाधिक आश्चर्यजनक है।' और जब महाराज यह कह चुके, कुमारपालित ने मन्द-मुस्कान सहित उत्तर दिया : 'विस्मय कहाँ है ? महानृप, जैसा कि तुम जानते हो कि शुक से प्रारम्भ होकर सभी प्रकार के पंछी एक बार सुनकर ध्वनि को पुनरावृत्त करते हैं, अतः यह कोई आश्चर्य नहीं है कि या तो मानव प्रयासों द्वारा अत्यधिक निपुणता उत्पन्न की जाती है, या पूर्व-जन्म में प्रवीणता के फलस्वरूप।इसके अतिरिक्त विगत काल में उनके पास शुद्ध उवाच संग मनुष्य सम वाणी थी। तोतों की अस्पष्ट वाणी तथा गजों की भाषा में बदलाव अग्नि के शाप के कारण हुआ है।'

कठिनता से उसने ऐसा बोला ही था कि मध्याह्न शंख-ध्वनि का तूर्यनाद हुआ, इसके बाद घंटा बीत जाने पर मृदंग पर स्पष्ट डंके का नाद, जो इंगित करता था कि भास्कर शिरोबिंदु (खमध्य) पर पहुँच गया है।

और यह सुनकर महाराज ने राजपुरुष-दल को उत्सर्ज (त्याग) कर दिया क्योंकि यह स्नान-समय था और अपने सभागार से उठ गया।

उसके बाद जैसे ही वह उठा, महामात्य भी उठकर परस्पर एकत्रित हो गए, अपनी कौशेय (रेशमी) पोशाकों को अपने परं-कार्य (सुघड़ित) कंकणों टकराते हुए जैसे कि यह चलने की हड़बड़ी में अपने स्थान से गिर गए थे। उनके कंठहार झटके के साथ हिल रहे थे, अधीरता में उनके अंगों का सुगंधित चंदन-चूर्ण एवं केसर के बिखराव से उनके मध्यांतर कपिल (पीला-भूरा) हो गया था; मालती-कुसुमों की उनकी मालाओं से मधु-मक्खियाँ झुँडों में उड़ने लगी, स्पंदन करने लगी, उनके कपोल कर्णों से अर्ध-लटकते उत्पलों द्वारा चूमे जा रहे थे, मोती-मालाऐं उनके वक्ष-स्थल पर कम्पित थी; जैसे ही महाराज ने विदाई ली, प्रत्येक अपनी चेतना में उन्हें आदर देने का इच्छुक था।

सभागार सब ओर से चँवर-वाहकों की नुपुर-ध्वनि से झंकृत था। वे चँवरों को अपने कंधों पर रखे हुए थे, उनके रत्न प्रत्येक कदम में खनक रहे थे जो मृणाल-मधु पान को उत्सुक कलहंसों के क्रंदन से बाधित हुए, अपना सम्मान देने आती नृत्य-बालाओं की रत्न-मेखला एवं मालाओं के मधुर संगीत संग, जब वे उनके वक्षों बाजुओं से टकराते थे, हर्म्य-ताल के कलहंसों सहित, जो नूपुरों की संगीत-ध्वनि से प्रमुदित थे, इन सबने सभागार के चौड़े सोपानों (पौड़ियाँ) को श्वेत कर दिया था; पालतु सारसों के क्रंदन के साथ, जो मेखला-संगीत सुनने को उत्सुक थे, एक घंटी-नाद की तरह अतिरिक्त एक सतत चीख-निनाद कर रहे थे, एक शत पड़ौसी-राजपुरुषों की अकस्मात विदाई से सभागार के फर्श पर भारी चरणों की आवाज से लगता था कि जैसे एक चण्डवात (तूफान) सा गया था।

राजदण्ड लिए द्वारपालों की 'देखो !' के उच्च-स्वर से, जो अपने समक्ष भ्रमित जनों को हाँक रहे थे, और यद्यपि भली-प्रकृति से ही चिल्ला रहे थे, 'ध्यान से देखो !' दीर्घ एवं तीक्ष्ण स्वर जो प्रासाद-मंडपों में अपनी गूँज के साथ दूर तक प्रतिध्वनित हो रही थी

फर्श बजने के साथ ही जैसे यह कलगी बाहर निकले मुकुटों की नोकों द्वारा खरोंची जा रही थी क्योंकि महाराज शीघ्रता से मुड़े थे जब तक कि उनके रत्नाभूषित मुकुटों ने भू-स्पर्श नहीं किया था; कर्ण-बालियाँ बजने से जैसे वे अपने स्वामियों द्वारा दंडवत प्रणाम करने में कठोर फर्श से टकराए, स्तुतिपाठकों (भाटों) द्वारा मंगलगानों के पूरे वातावरण में कोलाहल के साथ, और निरंतर रुचिकर शोर के साथ आगे बढ़ते हुए, 'हमारे महाराज दीर्घायु एवं विजयी हों !', शतों विदाई लेते कदमों की हलचल के कारण पुष्पों को छोड़कर जैसे ही ऊपर उड़ी मधु-मक्खियों के साथ, रत्न-जड़ित स्तम्भों पर राजपुरुषों के कंकणों की नोकों से टकराने से निकलती ध्वनि के साथ जब राजपुरुष भ्रम में हड़बड़ी में शीघ्रता से दंडवत कर रहे थे। तब महाराज ने एकत्रित नृपों को 'किंचित विश्राम करो' कहकर विदा किया और तदुपरांत चांडाल-कन्या को कहा, 'वैशम्पायन को अन्तः -कक्ष में लाया जाए' और ताम्बूल-वाहक को यह आदेश देकर वह कुछ विश्वसनीय राजकुमारों संग निजी आवास में चला गया। वहाँ, जैसे सूर्य अपनी किरणों को मुक्त कर देता है अथवा नभ चन्द्र एवं तारकों से शून्य हो जाता है, ऐसे ही उसने आभूषण एक ओर रखकर सुसज्जित व्यायामशाला में प्रवेश किया।

वहाँ अपनी वय के युवराजों संग क्रीड़ा-पश्चात उसने स्नानागार में प्रवेश किया जो अनेक चारण-स्तुतियों द्वारा गुंजित एक श्वेत वितान (छत्र) से आवृत था। इसमें एक सुवर्ण-बम्बा (टब) था जो मध्य में सुगंधित-जल से पूरित था, जिसके साथ एक स्फटिक स्नान-चौकी रखी थी और एक तरफ रखे कलशों द्वारा सुसज्जित था जो अति-सुवासित जलों द्वारा भरे हुए थे, जिनके मुख महक से आकर्षित भ्रमरों द्वारा कृष्ण थे, वे ऊष्मा के भयसे नील-अंशुकों द्वारा आवृत कर दिए हों। तब साकार मुकुलों सम पल्लव-चषक में, कुछ रजत (चाँदी) कलश पकड़े हुए अपने मरकत (पन्ना) जड़ित कलशों की कांति से कुछ साँवली दासियों ने, जैसे कि पूर्णमासी-चन्द्र द्वारा प्रकाश-पुंज सहित रात्रि, ने महाराज के ऊपर जल-बौछारें की।

वहाँ सीधे स्नानार्थ तूर्यनाद गीत, बाँसुरी, वीणा, मृदंग, करताल (मजीरा) तम्बूरे के कोलाहल  संग जो शीघ्रता से विभिन्न ध्वनियों में अनेक भाटों के गायन से मिश्रित होकर अतिरिक्त श्रवण-पथ चीर गया। तब कुछ देर बाद महाराज ने सर्प-केंचुली सम महीन दो श्वेत अंशुक धारण किए और श्वेत मेघ-चिट्टी सम एक महीन रेशम की पगड़ी पहनी, अपने ऊपर पड़ती स्वर्गिक नदी-धारा संग हिमालय सम उसने एक अंजुलि-भर अभिमन्त्रित जल के संग पितरों को जल तर्पण किया और फिर अर्क (सूर्य) के समक्ष दंडवत होकर सुर-सदन (मंदिर) में प्रवेश किया। तब उसने शिव-आराधना की और अग्नि को आहूति दी, सुगंधी-कक्ष में उसके अंग चंदन-चूर्ण से मले गए जो केसर, कपूर और कस्तूरी-सुवास से मधुर था जिसकी सुगंध गुनगुनाती मधु-मक्खियों द्वारा अनुसरित थी, उसने सुवासित मालती-पुष्पों का हार पहना, अपने वस्त्र बदले और कर्ण-बालियों के अतिरिक्त कोई अन्य आभूषण पहनकर अन्य नृपों संग, जिसके हेतु अनुकूल भोजन तैयार किया गया था, जो मधुर महकता आनंदमयी सुस्वादु था, आनंद के साथ उपवास भंग किया।तब एक सुवासित द्रव्य से मुख को कुल्ला कराया और ताम्बूल (पान) लेते हुए अपने चमकते संगमरमरी फर्श पर रखे आसन से उठ गया।निकट ही खड़ी सेविका ने उसके हेतु जल्दी की और वह उसकी भुजा पर झुकते हुए अन्तः-प्रासाद में प्रवेश योग्य अनुचरों सहित सभागार की ओर चला गया, जिनकी हथेलियाँ अपने दण्डों की पकड़ से अति-कर्कश शाखाओं सम थी। सभागार अपने भित्ति-सिरों पर श्वेत मलमल पहनने से स्फटिक भाँति प्रतीत हो रहा था, शीतलता हेतु रत्न-जड़ित फर्श चंदन-मिश्रित जल से छिड़का गया था जैसे अति-सुगंधित कस्तूरी मिश्रित थी, शुभ्र संगमरमर निर्बाध रूप से पुष्प-भार से छितरित था, जैसे कि आकाश अपने तारा-मंडलों से।

सुवासित जल से पवित्रित और जैसे कि कुलदेवता अपने कोष्टकों (आलों) में असंख्य चित्रों से अलंकृत अनेक स्तम्भों समक्ष चमक रहे थे; अगरु अपनी प्रखर सुगंध बिखेर रहा था, यह समस्त एक कुञ्ज द्वारा आच्छादित था जिसमें वर्षा पश्चात श्वेत धराधर (मेघ) सम एक शुभ्र शय्या थी जिसपर  सुगंधित पुष्प-चादर बिछी हुई थी, सिरे पर एक उत्कृष्ट क्षौम का उपधान (तकिया) रखा हुआ था, जिसके पाए रत्न-जड़ित थे, इसके एक बाजू में एक आभूषित पायदान रखा था जिस तरह धारण करने हेतु हिमालय-शिखर।

इस पर्यंक (पलंग) पर लेटते हुए, जबकि अपनी कटार को आँचल में रखते हुए भूमि पर बैठी एक सेविका ने उसके चरणों को शनै- नूतन मृणाल सम कोमल करों से सहलाया, इस प्रकार महानृप ने कुछ समय विश्राम किया और अनेक विषयों पर भूपों, मंत्रियों एवं सखाओं से मंत्रणा की जिनकी उपस्थिति इस समय हेतु सुनिश्चित थी। तब उसने रनिवास से वैशम्पायन शुक को लेकर दासी को बुलवाया जिसकी कथा सुनने को वह उत्सुक था और उसने कर एवं घुटनों को नमित करते हुए इन शब्दों के साथ 'आपकी इच्छा शिरोधार्य', आदेश लेकर उसकी अनुज्ञा पूर्ण की। शीघ्र ही एक संदेशवाहक (अग्रदूत) के रक्षण में दासी द्वारा उसके पिंजर को पकड़े हुए वैशम्पायन को महाराज के समक्ष लाया गया जो एक सुवर्ण-दण्ड पर किंचित झुका हुआ, शुभ्र-वस्त्र धारण किए वय-क्रमानुसार श्वेत हुई चोटी रखे हुए कदमताल में धीमे एवं वाणी में कम्पायमान, जैसे कि एक पक्षी-कुल हेतु अपने प्रेम में एक वयोवृद्ध हंस, ने पृथ्वी पर अपनी हथेली रखते हुए यह संदेश दिया : 'महाराज, महारानियों ने आपको संदेश भेजा है कि आपके आदेश से इस वैशम्पायन को नहला दियागया है और भोजन खिला दिया गया है, और अब सेविका द्वारा इसे आपके चरणों में लाया गया है। ऐसा कहकर वह चला गया और महाराज ने वैशम्पायन से पूछा : 'क्या तुमने मध्यांतर में स्वरुचि अनुसार पर्याप्त भोजन खा लिया ? उसने उत्तर दिया, 'मान्यवर, मैंने क्या नहीं खाया है ? मैंने सुगंधित मधुर गुलाबी और वसंत की प्रसन्नता में पिक-नेत्रों सम नील जामुन-फल रस से उदर-पूर्ति कर ली है, सिंह-नख द्वारा फाड़े गए गज-मस्तकों सम लोहित कांतिमय अनारदानों को मैंने काटा, यही जो मुक्ताओं की भाँति लाल चमक रहे थे। मैंने अपनी इच्छा से उत्पल-पल्लव सम हरित अंगूर सम मधुर पुरानी हरीतकी (मिर्च) को काटा है।

परन्तु आगे शब्दों की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि राज्ञियों द्वारा दत्त सर्वस्व सुधा-परिवर्तित हो जाता है। और नृप ने उसकी बात काटकर कहा : 'आओ इसे कुछ काल हेतु छोड़ दें, और तुम हमारी जिज्ञासा को निर्मूल करो। हमें अपना जन्म-इतिहास प्रारम्भ से बताओ- तुम किस देश कैसे पैदा हुए और किस द्वारा नामकरण किया गया ? कौन तुम्हारे माता-पिता थे ? कैसे तुमने वेद-शास्त्रों का उपार्जन किया, और कैसे तुम ललित-कला प्रवीण हुए ? किसने तुम्हें पूर्व-जन्म की स्मृति दी ? क्या यह तुमको प्रदत्त एक विशेष वरदान था ? और क्या तुम मात्र एक पंछी की आकृति ओढ़े छद्मवेश में रहते हो, और कहाँ तुम पहले रहते थे ? तुम्हारी वय क्या है, और कैसे तुम एक पिंजर-बद्ध हुए, और एक चांडाल-कन्या के कर पड़ गए और यहाँ पहुँच गए ? अतएव नृप द्वारा आदरसहित प्रश्न किए जाने पर, जिसकी जिज्ञासा प्रज्वलित हो चुकी थी, वैशम्पायन ने एक क्षण सोचा, और सादर प्रत्युत्तर दिया, 'मान्यवर, कथा दीर्घ है, परन्तु यदि यह आपकी प्रसन्नता है तो इसे सुना जाए।


......क्रमशः   

भाष्यांतर,

द्वारा 
पवन कुमार,
(०४ नवंबर, २०१८ समय १४:०२ अपराह्न )

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