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Saturday 29 June 2019

वहम-भग्न

वहम-भग्न
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अद्भुत मन-प्रणाली, उत्तंग चेष्टा, चित्ति वृहत्काया का गुण ज्ञान
सक्षम संभाव्य, सर्व ब्रह्मांड-कण समाहित, तब क्यूँ कम विकास।

मन-विचार क्या क्षणों में, नर का सुंदर रूप हो स्वयं में प्रादुर्भाव
निम्न से उच्च सभी इसी चेष्टा में, कैसे निखरे रूप, हो गर्वासक्त।
सभी तो भरपूर ध्येय में लगे हैं, पूर्ण विकास हेतु ही जद्दो-जेहद
शरीर में तो कोटिशः अणु, कैसे हो उनका अधिकतम प्रयोग।

प्रखरतम दर्द क्या मानव का, निज को न कर पाया सुविकसित
एक खिलौना क्रय किया अति महँगा, पर शेल्फ में पड़ा निष्फल।
कहने को विद्वान-पीएचडी पर खाली बैठे, अति कुछ था हाथ में
इंजीनियरिंग पढ़ाई की है, लेकिन घर बैठकर ही समय काट रहे।

मन क्या उत्तमतम सोच सकता है, बेचैनी तो है पर द्वार न खुल रहें
कोई महद लक्ष्य चिन्हित न कर सका, चिंतन उसी के इर्द-गिर्द में।
विषय महत्वपूर्ण या यूँ ही भटकते, एकाग्रता न तो कैसे ऊर्जा संचय
प्रथम शीर्षक ढूँढ़, दिशा-दर्शन होगा, गति तेज तो लक्ष्य तीव्र-गमन।

उद्देश्य वर्तमान-चिंतन का, कुछ गहन वार्ता स्व से, समुद्र-मंथन सा
पर अवस्था अर्ध-विक्षिप्त सी, चाहकर भी स्वरूप दर्शन न संभव।
अपने में ही लुप्त, निज-शक्तियों से अभिज्ञ, कुँजी कहाँ है न मालूम
कुंभकर्ण निद्रा में, खा-पीकर मस्त, तंद्रामय, बौद्धिक-कर्म अभाव।

पुरा-कथाओं में प्रसंग असुर का, कराया उसका शक्ति-परिचय
यदि उत्तम-रूप दर्शन हो जाए, निस्संदेह कर्म सुभीता करे वह।
अंधे निज कुचेष्टाओं से ही भीत, समाधान निकट ही, पर ध्यान न
रुग्ण-मंदता पार से ही उत्तम संभव, अन्वेषण-पथ चाहिए बस।

कहते हैं सिंह पिंजर-बद्ध, बाहर तो निकालो, शक्ति देखो उसकी
स्वयं को ही घोंटकर रखा कक्ष में, पर अबुद्धि बाहर निकलने की।
निज-जाल में तो फँसे पर न कुचक्र, सारल्य में ही आयाम अजान
पर अंततः परिणाम पर ही सबकी दृष्टि, क्या कर रहे क्षेत्र तुम्हारा।

जग-स्वरूप ज्ञान तो अत्यंत दुष्कर, जब आत्म-ज्ञान में ही इत्ता कष्ट
कैसे खुले मस्तिष्क-रंध्र, स्वच्छ वायु-रक्त प्रवेश तो शुरू हो मनन।
मुफ्त में तो बनता न, श्रम होगा, युक्ति से ही तो उत्पादकता वृद्धि
विचारना भी आना चाहिए, लक्ष्य-निर्माण से चरण हों अग्रसर ही।

कौन से परिवर्तन वाँछित इस स्व में, आगे बढ़कर सफलता चुंबन
अध्ययन आवश्यक या फिर मंथन, एक कला तकनीक-शिक्षण।
जब निज से न बने तो सफलों से सीखो, जीवन में रहें वे श्रमरत
आदान-प्रदान सिलसिला, उद्देश्य सबको निखारने का असल।

सिविल इंजीनियर रूप में क्या बेहतर हो, प्रयोग तकनीकें उत्तम
किन पुस्तक-पत्रिकाओं से सदा-संपर्क, ज्ञान शनै-२ बढ़े निरत।
उत्तम विशारदों से संपर्क हो, पर सिद्धि तब जब स्वयं भी पारंगत
अर्जित ज्ञान कैसे कार्यों में प्रयोग हो, तुम्हारी उपलब्धि होगी वह।

परम-रूप पग-अग्रसरण से संभव, विकास है प्रक्रिया-पर्याय एक
जीवन तो सदा चलायमान, अवधि से गुणवत्ता अधिक महत्वपूर्ण।
सर्व-उद्यम गुणवत्ता-वर्धन का, स्वयं को न होता निज-बोध भी पूर्ण
कुछ बाह्य निज-टिपण्णी दे देते, तुलना तो स्वयं न कर सकते तुम।

यह भी एक विचित्र सी स्थिति, निज स्वरूप से ही अभिज्ञता नितांत
तथापि उत्तम-कर्म प्रयास, कुछ सुधरोगे तो होगा छवि-परिष्कार।
पर-दोषारोपण तो यहाँ अध्याय ही न, स्वयं-सुधार ही परम-लक्ष्य
यह भी महत्त्वपूर्ण कि क्या कर्त्तव्य हैं, कौन चरण लूँ दिशा-गमन।

विश्वरूप दर्शन में असमर्थ, कौन से आयाम-अन्वेषण हैं वाँछित
इस व्यग्रता का क्या अर्थ, सत्य-रिक्तता तो संपर्क-पथ की पर।
सबको तो कृष्ण सा सारथी न लब्ध, कौन बताए उठो, करो इदम
या कर्ण को सुयोधन विश्वास, मित्र-दुर्दशा में सहायक भी है श्रेष्ठ।

चलो प्रयास करें आज वहम-भग्न का, निज को ललकारने का
विफलता भले, पर प्रयास सतत, सत्व-निष्कर्ष पर ही विश्राम।

पवन कुमार,
२९ जून, २०१९ समय ११:१४ बजे रात्रि
(मेरी डायरी ८ जून, २०१७ समय ९:०२ बजे प्रातः से)

Sunday 16 June 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : उत्तर भाग परिच्छेद -१३


परिच्छेद१३ 

यह कथा सुनाने के बाद, मुनि जाबालि ने एक तिरस्कार-पूर्ण स्मित संग अपने पुत्र हरित अन्य तपस्वियों से कहा : 'तुम सब देख चुके हों कि कैसे इस कथा में हम सबको और हमारे उरों को इतना दीर्घ बाँधने की शक्ति है। और यह काम-पीड़ित जीव है जो अपने दोष कारण स्वर्ग-पतित हुआ, और पृथ्वी पर शुकनास का पुत्र वैशम्पायन बना। यह वह है जो अपने क्रुद्ध तात के शाप से, और महाश्वेता द्वारा अपने हृदय-सत्य के अनुनय द्वारा एक शुक-रूप में जन्मित हुआ है। जैसे ही उसने अतएव उवाच किया, मैं ऐसे जागृत हुआ जैसे कि निद्रा से, और जैसे कि मैं बालक था, एक पूर्व-जन्म में प्राप्त सभी ज्ञान मेरी जिव्हा के अग्रभाग स्थित थे; मैं सभी कलाओं में निपुण बन गया, मेरे पास एक स्पष्ट मानव-वाणी, स्मृति और एक मानव-वपु के अतिरिक्त सब कुछ था। युवराज हेतु मेरा स्नेह, मेरा अनियंत्रित अनुराग, महाश्वेता प्रति मेरी श्रद्धा, सब प्राप्त हो गए। मुझमें उनके तथा मेरे अन्य सखाओं के विषय में ज्ञान की प्रखर-इच्छा उदित हो गई तथा यद्यपि गव्हरतम ह्री (लज्जा) ही में, मैंने दुर्बलता से जाबालि को प्रश्न किया : 'आशीर्वादित महर्षि, अब कि तुमने मेरा ज्ञान वापस ला दिया है, मेरा उर युवराज हेतु विदीर्ण हो रहा है जो मेरी मृत्यु के दारुण में मरण-प्राप्त हो गया था। कृपया उसके विषय में मुझे बताऐ, जिससे कि मैं उसके निकट जा सकूँ; अन्यथा यहाँ तक कि एक पशु-रूप में भी मेरा जीवन क्लेशित रहेगा। घृणा करुणा से मिश्रित उन्होंने उत्तर दिया : 'क्या तुम अभी भी अपनी पुरातन-अधीरता को नियंत्रण नहीं करोगे ? पूछना, जब तुम्हारे पंख उग आऐं।' तब अपने पुत्र के पूछने पर कि कैसे एक ऋषि-वंश काम द्वारा अतएव दास हो जाता है, उन्होंने उत्तर दिया कि यह दुर्बल अनियंत्रित प्रकृति उनसे सम्बन्ध रखती है, जो मेरी भाँति एक माता से जन्म लेते हैं। क्योंकि वेद कहते हैं, 'जैसे मनुष्य के अभिभावक हैं, वैसे ही वह है', और चिकित्सा-विज्ञान भी उनकी दुर्बलता घोषित करती है। और उन्होंने कहा कि अब मेरा जीवन मात्र अल्प होगा, परन्तु कि जब शाप समाप्त होगा, मैं अनेक वर्षों तक जीवित रहूँगा। मैंने विनय से पूछा कि किन अर्पणों से मैं एक दीर्घतर जीवन प्राप्त कर सकता हूँ, परन्तु उसने मुझे प्रतीक्षा करने का आदेश दिया, और जैसे कि समस्त रात्रि उसकी कथा में अपरीक्षित व्यतीत हो गई, उन्होंने मुनियों को प्रातः-कालीन अर्घ्य अर्पण करने हेतु भेजा, जबकि हरित मुझे ले गया, और मुझे अपनी कुटिया में अपने शयन के निकट रख दिया, और अपने भोर-कालीन कर्तव्यों हेतु चला गया। उसकी अनुपस्थिति के मध्य मैंने व्यथा-पूर्ण विचार किया कि कैसे एक तापसी एक पक्षी से एक ब्राह्मण में उदित होगा, एक मुनि की तो बात छोड़ ही दी जाय, जिसको स्वर्ग के आनन्द हैं। तथापि यदि मैं उन सबसे नहीं जुड़ सकता हूँ जिनको मैं पूर्व-जन्मों में प्रेम कर सकता था, मुझे अभी क्यों जीवित रहना चाहिए ? परन्तु हरित तब वापस गया और बताया कि कपिञ्जल वहाँ है। जब मैंने क्लांत देखा, तथापि सदैव की भाँति चारु, मैं उसके पास उड़ जाने को उद्यत हुआ, अपने को ऊपर उठाते हुए, अब अपने को उसकी गोद में रख दिया, और तब उसकी मूर्धा पर। तब उसने मुझे बताया, 'तुम्हारे तात श्वेतकेतु को अपनी दिव्य-दृष्टि द्वारा तुम्हारी दुर्गति का ज्ञान है, और उन्होंने तुम्हारी सहायतार्थ एक यज्ञ प्रारम्भ किया है। जैसे ही उन्होंने इसे शुरू किया, मैं अश्व-वपु से स्वतंत्र हो गया; परन्तु उन्होंने मुझे अपने पास रखा जबतक कि जाबालि तुम्हें भूतकाल का स्मरण दिला दे, और अब अपने आशीर्वाद देने हेतु मुझे भेजा है, और कहा है कि तुम्हारी माता लक्ष्मी भी यज्ञ में सहायता कर रही हैं। तब मुझे तपोवन-निवास का आदेश देकर, वह यज्ञ में भाग लेने हेतु गगन में उड़ गया। कुछ दिवस पश्चात, किसी प्रकट से, मेरे पक्ष (पंख) उग आऐं, और मैंने महाश्वेता के पास डयन (उड़ जाने) का निश्चय किया, और मैं उत्तर की ओर अग्रसर हुआ; परन्तु शीघ्र क्लांत मुझपर छा गया, और मैं, मात्र एक भीषण चाण्डाल के पिंजर में फँसकर जागृत होने हेतु, एक वृक्ष में शयनार्थ गया। मैंने उससे मुक्ति हेतु अनुरोध किया, क्योंकि मैं अपनी प्रिया के पथ में था, परन्तु उसने मुझसे कहा कि उसने मुझे नव-यौवना चाण्डाल-राजकन्या हेतु पकड़ा है, जिसने मेरे परितोषिकों के विषय में सुना है। मैंने भय से वह सुना कि लक्ष्मी एक महर्षि के पुत्र मुझको यहाँ तक कि बर्बरों द्वारा भी त्यजित एक क़बीले संग रहना पड़ेगा; परन्तु जब मैंने अनुरोध किया कि वह बिना किसी संकट के मुक्त कर सकता है, क्योंकि उसे कोई नहीं देखेगा, वह हँसा और प्रत्युत्तर दिया : 'वह, जिसके हेतु उत्तम अधम के साक्षी लोक के पञ्च-रक्षक (इंद्र, यम, वरुण, सोम कुबेर) भी नहीं रहते हैं, अपने कर्मों के दर्शनार्थ अपनी वपु में रहते हुए, किसी अन्य प्राणी के भय के कारण अपना कर्तव्य नहीं तजेगा।' अतएव वह मुझे दूर ले गया, और जैसे कि मैंने उससे मुक्त होने की आशा में बाहर देखा, मैंने बर्बरों की पल्लि (बस्ती) देखी, पातक-कृत्यों का मात्र पण्य-स्थल। यह सभी दिशाओं में मृगया-रत बालकों द्वारा परित थी, अपने आखेटक-श्वानों को छोड़ते हुए, अपने उत्क्रोशों (बाज) को प्रशिक्षित करते हुए, पाशों का जीर्णोद्धार (मुरम्मत) करते, अपने अस्त्र-शस्त्र ले जाते, और मछली पकड़ते, दैत्यों भाँति अपनी वेशभूषा में भीषण। सघन बाँस-अरण्यों द्वारा छिपे हुए इतर-तितर (यहाँ-वहाँउनके आवासों का प्रवेश-द्वार, हरताल के उठते धूम्र से ज्ञात हो रहा था। सभी ओर बाड़े मुण्डों से बने थे; मार्गों में धूल के ढ़ेर अस्थियों से पूरित थे; झोंपड़ियों के आंगन रक्त-वसा और शर्मित (काटे गए) माँस द्वारा मलिन थे। वहाँ जीवन आखेट-निर्मित था; मिष-भोजन (माँस); वसा-लेप; स्थूल कपड़े के वस्त्र; शुष्क-चर्मों के शयन; श्वानों के पालतु रक्षक; पशु-गऊओं का आरोहण; सुरा-सुंदरी के पुरुषों के व्यवसाय; रक्त की देव-आहुति; गो-बलि। स्थल सभी नरकों का चित्र था। तब पुरुष मुझे चाण्डाल-कन्या के पास लाया, जिसने मुझे प्रसन्नता से ग्रहण किया, और यह कहते हुए एक पिंजर-बद्ध कर लिया : 'मैं तुमसे तुम्हारी समस्त उच्छृंखलता ले लूँगी।' मैं क्या कर सकता था ? यदि मैं उससे अपने को मुक्त करने की प्रार्थना करूँ, जो मेरी वाणी-शक्ति थी, उसे मेरी चहेती बना देगी; यदि मैं मौन रहता हूँ तो क्रोध उसको निर्दयी बना सकता है; तथापि, यह आत्म-नियंत्रण की मेरी वंचना थी जिसने मेरी सब दुर्दशा कृत की थी, और अतएव समस्त इन्द्रियाँ निग्रह करने का निश्चय किया, और पूर्णतया मौन रखा और सब भोज्य अस्वीकार कर दिऐं।

अग्रिम प्रातः, हालाँकि, कन्या फल जल लेकर आई, और जब मैंने उन्हें स्पर्श नहीं किया, उसने मृदुलता से मुझे कहा : 'यह पक्षियों पशुओं के लिए अस्वाभाविक है कि जब भूखे हों, भोजन मना कर दें। यदि तुम एक पूर्व-जन्म के ज्ञाता भी हो, कोई भेद करो कि क्या खाद्य है अथवा क्या अखाद्य, तथापि तुम एक पशु-रूप में जन्में हो, और ऐसा कोई भेद रख सकते हो। तुम्हारे गत-कृत्यों ने तुम्हें जिस अवस्था में लाया है, के अनुसार आचरण करना कोई पातक नहीं है। नहीं, उनके हेतु भी जिनके लिए भोजन-नियम हैं, दुर्गति-स्थिति में जीवन-रक्षण हेतु उनके उपयुक्त भोजन होते हुए भी भक्षण, यह नियम-पूर्ण है। तुम्हें भय की कोई आवश्यकता नहीं है कि यह भोजन हमारी जाति से है; क्योंकि फल हम द्वारा भी स्वीकार किए जा सकते हैं; और जल हमारे पात्रों से भी पवित्र है जब यह भूमि पर पड़ता है, अतएव पुरुष कहते हैं।' उसकी बुद्धिमता पर आश्चर्य करते मैंने भोजन ले लिया, तथापि मौन-व्रत रखा।

'
कुछ काल पश्चात, जब मैं बड़ा हो गया, मैंने एक दिवस इस सुवर्ण-पिंजर में स्वयं को पाया, और चाण्डाल-कन्या को देखा जिसको कि महाराजाधिराज, तुमने देखा है। समस्त बर्बर-पल्लि (बस्ती) एक देव-नगरी सम प्रदर्शित थी, और इससे पूर्व कि मैं कुछ पूछ सकूँ कि इस सबका क्या अर्थ है, वह कन्या मुझे आपके चरणों में ले आई। परन्तु वह कौन है और क्यों एक चाण्डाल बन गई, और क्यों मैं बँधित हूँ अथवा यहाँ लाया गया हूँ, महाराज, मैं भी तुम सम ज्ञातुम इच्छुक हूँ। '

उसपर महाराज ने महद विस्मय में, कन्या को बुलावा भेजा, और प्रवेश करते हुए उसने अपनी भव्यता से महाराज को अत्यधिक भीत कर दिया, और गरिमा के साथ कहा : 'तुम वसुंधरा-रत्न, रोहिणी-स्वामी, कादम्बरी के नयन-हर्ष, तुमने चन्द्र, अपने पूर्व-जन्म की कथा सुनी है, और कि इस मूढ़ प्राणी की। तुम उससे जानो कि कैसे इस जन्म में भी उसने अपने तात-आज्ञा की अवहेलना की, और अपनी वधू-दर्शनार्थ प्रस्थान कर गया। अब मैं लक्ष्मी हूँ उसकी माता, और उसके पिता ने अपनी दिव्य-दृष्टि से कि वह प्रस्थान कर चुका है, मुझे आदेश दिया कि उसे सुरक्षा में रखा जाय जब तक कि उसके हेतु किया जा रहा धार्मिक-अनुष्ठान सम्पूर्ण हो जाय, और उसको प्रायश्चित-अग्रसर करूँ। अब अनुष्ठान पूर्ण हो चुका है। शाप-समाप्ति निकट ही है। मैं उसको तुम्हारे पास इसलिए लाई हूँ कि उसके साथ यहाँ हर्षित हो सको। मैं मनुष्य-जाति के स्पर्श-रक्षा हेतु एक चाण्डाल बन गई। अतः तुम दोनों सीधे जन्म, वृद्धायु, दुःख मृत्यु के पातकों से युक्त अपनी वपुओं को त्याग दो, और अपनी-2 प्रियाओं संग मिलन-आंनद को विजित करो।' अतएव कहते हुए वह, सभी जनों की दृष्टि द्वारा अनुसरित होती, अकस्मात व्योम में उड़ गई जबकि नभमण्डल उसके खनकते नूपुरों से ध्वनित हो गया। उसके शब्दों पर महाराज ने अपना पूर्व-जन्म स्मरण किया और कहा : 'प्रिय पाण्डुरीक, अभी कहे जाने वाले वैशम्पायन, यह अति हर्ष का विषय है कि हम दोनों हेतु शाप एक ही क्षण समाप्ति पर आया है', परन्तु जैसे ही उसने यह कहा, कामदेव ने कादम्बरी को अपना सर्वश्रेष्ठ शस्त्र बनाते हुए अपना धनुष खींचा, और उसका जीवन नष्ट करने हेतु उसके उर में प्रवेश किया। काम-ज्वाला ने उसे पूर्णतया उपभुक्त कर लिया, और महाश्वेता की कामना से, वैशम्पायन जो सत्य में पाण्डुरीक था, ने भी महाराज सम उसी प्रकार की पीड़ा सहन की।

अब इसी समय वसन्त की सुरभित ऋतु में ऐसा कुछ उदित हुआ जैसे कि उसे पूर्णतया दग्ध कर देगा, और जबकि इसने सभी जीवित प्राणियों को मत्त कर दिया, कार्मुक द्वारा इसको कादम्बरी-हृदय को भी विभ्रांत करने हेतु अपना सर्वाधिक-शक्त शर के रूप में प्रयोगित किया गया। मदनोत्सव पर उसने दिवस अति-कठिनता संग बिताया, और सन्ध्या होने पर जब दिशाऐं कृष्ण हो रही थी, उसने स्नान किया, कामदेव-उपासना की, और उसके समक्ष अभिषिक्त-सुगन्धित, कस्तूरी-मिश्रित चन्दन से सुवासित एवं कुसुम-विभूषित चन्द्रापीड़-वपु को रखा। एक गहन चाह-पूरित, वह समीप आकर्षित हुई, जैसे कि अचेतना से और अकस्मात एक नारी-सुलभ भीरुता के प्रेम से च्युत, वह स्वयं को और अधिक नियंत्रित कर स्की, और चन्द्रापीड-कण्ठ को अतएव आलिंगन किया जैसे कि वह अभी तक जीवित हो। उसके अमृतमयी-आलिंगन से युवराज का जीवन उसको घनिष्ठता से पाशित करते हुए पुनः उसमें वापस गया, जैसे कि निद्रा से जागृत हुआ हो।

'
उसने यह कहते हुए उसे प्रसन्न किया, 'भीत कन्ये, अपना भय दूर करो ! तुम्हारे आलिंगन ने मुझे जीवन प्रदान किया है; क्योंकि तुम सुधा-उत्पन्न अप्सरा-कुल की जन्मी हो, और यह मात्र शाप ही था जिसने पूर्व में मुझे स्पर्श करने से पुनर्जीवित होने से अवरुद्ध किया। मैं अब शूद्रक की नश्वर काया त्याग चुका हूँ, जिसने तुममें विरह-पीड़ा उत्पन्न की है; परन्तु मैंने यह वपु रखी है, क्योंकि इसने तुम्हारा प्रेम विजित कर लिया है। अब यह लोक एवं शशि दोनों तुम्हारे चरण-बद्ध हैं। तुम्हारी सखी महाश्वेता का कान्त वैशम्पायन भी मेरे संग शाप-मुक्त हो चुका है।' चन्द्रापीड़ रूप में जब शशि ने अतएव उवाच कियामहाश्वेता दत्त माला-पंक्तियों को अभी तक धारण किए और कपिञ्जल का कर पकड़े, पीत पाण्डुरीक ने गगन से अवतरण किया। हर्ष से कादम्बरी ने महाश्वेता को उसके वल्लभ की वापसी के विषय में बताया, जबकि चन्द्रापीड़ ने कहा : ' प्रिय पाण्डुरीक, यद्यपि एक पूर्व-जन्म में तुम मेरे जामाता थे, अब तुम्हें मेरा सखा होना चाहिए, जैसे कि हमारे अंतिम जन्म में।' इसी मध्य, केयूरक ने हंसा चित्ररथ को सन्देश देने हेतु प्रस्थान किया, और मदालेखा तारापीड़ और विलासवती के चरणपात हो गई, जो मृत्युञ्जय शिव की प्रार्थना-तल्लीन थेऔर उनको हर्षदायक संदेश सुनाया। तब महारानी मनोरमा संग वृद्ध महाराज शुकनास पर किंचित झुका हुआ वहाँ आया, और सबका हर्ष महद था। कपिञ्जल भी श्वेतकेतु से शुकनास हेतु यह कहते हुए संदेश लाया : 'पाण्डुरीक यद्यपि मेरे द्वारा पोषित किया गया, परन्तु वह तुम्हारा पुत्र है, और तुमसे स्नेह करता है; क्या तुम अतएव उसे पातक से दूर रखोगे, और उसकी अपने पुत्र भाँति परिपालना करोगे। मैं उसमें अपना निज-जीवन स्थापित कर चुका हूँ, और वह इन्दु सम ही दीर्घ जीऐगा; जिससे कि मेरी कामनाऐं पूरित हो जाऐं। मुझमें जीवन की दिव्य-आत्मा अब देवलोक से भी श्रेष्ठ एक अन्य-लोक में गमन की आकांक्षा है।' वह रात्रि उनके पूर्व-जन्म वार्ता में बीत गई, और उत्सव एक सहस्र-गुणा वर्धित हो गए। तथापि चित्ररथ ने कहा : 'जब हमारे पास अपने हर्म्य हैं, हम अरण्य में उत्सव क्यों मनाऐं ? इसके अतिरिक्त, यद्यपि मात्र गन्धर्व-विवाह (परस्पर प्रेम-आधारित) हममें नियम-पूर्ण है, तथापि हमें लोक-परम्परा का पालन करना चाहिए। 'नहीं', तारापीड़ ने उत्तर दिया, 'जहाँ एक पुरुष अपने महानतम हर्ष से ज्ञात होता है, वहीँ उसका आवास है, चाहे यह एक अरण्य में ही हो। और यहाँ जैसे आनन्द मैंने और अन्यत्र कहाँ जाने हैं ? मेरे सब हर्म्य भी, तुम्हारे जामाता को दिए जा चुके हैं; अतः मेरे पुत्र को उसकी वधू संग ले जाओ, और गृह-प्रमोदों का सुस्वाद लो।' तब चित्ररथ ने चन्द्रापीड़ संग हेमकूट गमन किया, और कादम्बरी के कर के साथ अपना समस्त राज्य उसे भेंट कर दिया। हंसा ने भी ऐसा ही पाण्डुरीक के साथ किया, किन्तु दोनों ने कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया, क्योंकि उनकी अभिलाषाऐं अपनी उर-प्रिय वधू-विजय से सन्तुष्ट हो गई थी।'

अब एक दिवस कादम्बरी ने, यद्यपि उसके सब सुख पूर्ण थे, अश्रुओं सहित अपने भर्ता से पूछा : 'यह कैसे है कि जब हम सब मर जाते हैं और जीवन प्राप्त करते हैं, और फिर जुड़ जाते हैं, पत्रलेखा मात्र ही यहाँ नहीं है, ही हम उसके विषय में जानते हैं कि उसका क्या हुआ है ?' 'मेरी प्रिये, वह यहाँ कैसे हो सकती है ?' युवराज ने मृदुता से उत्तर दिया। 'क्योंकि वह मेरी भार्या रोहिणी है, और जब उसने सुना कि मैं शापित हूँ, मेरे शोक हेतु बिलखती, उसने मुझे नश्वर-लोक में एकाकी छोड़ना मना कर दिया, और यद्यपि मैंने उसे विरत करने का प्रयास किया, उसने उस लोक में मुझसे पूर्व भी जन्म लेना स्वीकार कर लिया, जिससे कि वह मेरी प्रतीक्षा कर सके।  जब मैं एक अन्य-जन्म प्रवेशित हुआ, उसने पुनः धरा-अवतरण की अभिलाषा की; परन्तु मैंने उसे चन्द्रलोक वापस भेज दिया। वहाँ तुम उसे पुनः देखोगी।' परन्तु उसको सुनकर कादम्बरी, रोहिणी की उदारता, स्नेहलता, महानुभावता, पतिव्रतता, पेशलता (मृदुता) विस्मित-हृदयता पर अति-लज्जित हो गई और किञ्चित भी प्रत्युत्तर में असमर्थ थी।

दस रात्रियाँ जो चन्द्रापीड़ ने हेमकुण्ट में बिताई, वे एक दिवस सम शीघ्रता से बीत गई, और तब चित्ररथ मदिरा से विदा होकर, जो उनसे पूर्णतया सन्तुष्ट थे, वह अपने तात-चरणों में आमुख हुआ। वहाँ उसने राजपुरुषों को अपना सम्मान प्रकट किया, जिन्होंने उसके कष्टों को, उसकी अवस्था को साँझा किया था, अपने पितृ-पादों का अनुसरण करते हुए राज्य-भार पाण्डुरीक को सौंप दिया, और स्वयं को सर्व-कार्यों से परित्यक्त कर दिया। कदाचित अपनी मातृभूमि-स्नेह से, वह उज्जैयिनी में वास करता था, जहाँ नागरिक उसे अद्भुत-विस्फरित लोचनों से देखते थे; कदाचित गन्धर्व-राज के सम्मान से अनुपम अतुलनीय रमणीयतम हेमकूट में; कदाचित रोहिणी के अति-सम्मान से चन्द्र-लोक में, जहाँ प्रत्येक स्थल शीतलता अमृत-परिमल से सुरभित था; कदाचित पाण्डुरीक के स्नेह कारण, सरोवर समीप जहाँ लक्ष्मी निवास करती थी, जहाँ दिवस-रात्रि में भी सदा मृणाल विकसित रहते थे, और कादम्बरी की प्रसन्नता हेतु अनेक अन्य रमणीय-स्थलों में।

कादम्बरी संग उसने अनेक सुख आनन्दित किए, जिससे दो जन्मों की उत्कट-अभिलाषा ने एक नित-नूतन एवं अतृप्त हर्ष प्रदान किए। मात्र चन्द्र ने कादम्बरी संग कोटि-हर्ष प्राप्त किए, अपितु कादम्बरी ने महाश्वेता संग, और पाण्डुरीक ने चन्द्र संग, सभी ने परस्पर-संगति में एक प्रमोद-निरतता व्यतीत की, और सुख की अति-पराकाष्टा पर पहुँचे।


टाइपिंग सम्पूर्ण 20:35 सायं 18 मार्च, 2017
सम्पादन शेष
प्रथम सम्पादन समाप्ति १२:३०, ३० जुलाई, २०१७।
द्वितीय सम्पादन समाप्ति २२:५० रात्रि, अक्टूबर, २०१७।    


    
    हिंदी भाष्यांतर समापन 

द्वारा
पवन कुमार,
                                                      (१६ मई, २०१९ समय २२:३४ रात्रि )