ज्ञान-सोपान
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निरुद्देश्य तथापि उत्कंठा तीक्ष्ण, अध्येय पर प्रखर अंतः-ताप
जीवन स्पंदन-चेष्टा रत, मन-संचेतना कराती स्व से वार्तालाप।
बहु-विद्याऐं मैं हत्प्रद, अबूझ-अपढ़, गुरु ग्रंथकुटि सम्मुख तिष्ठ
आभ्यंतर में न साहस, डर कहीं प्रवेश न कर दिया जाय रुद्ध।
अंदर तो कभी गया नहीं, कुछ विद्वानों का देखा सहज-प्रवेश
गूढ़ परस्पर वार्तालाप, कर में किताबें या निमग्न विचार-लुप्त।
मैं ग्राम-बालक, राजकीय-शाला शिक्षित, फिर नगर-स्कूल पठन
मुट्ठी-भर साहस, सुसाधित से आंशकित, अनुरूप संवाद असमर्थ।
सभी विद्वान प्रतीत श्रेष्टतर, निज वास्तविक रूप में खलबली रही
माना सहपाठी भी अवर-श्रेणी निजवत, उनमें रह सांत्वना मिलती।
पाठ्य-पुस्तकें अनेक रहस्य खोलती, पर असंख्यों में कुछ मात्र
ग्रंथालय-निधानों में सुघड़ता से रखी पुस्तकें, होता मन में त्राण।
कौन सारी पढ़ता होगा, कैसे बुद्धि विकसित इतनी ग्रहण-सक्षम
बस झलक देख ली काम से मतलब, इतना ही बस ज्ञान-संपर्क।
कुछ उच्च-विद्या माध्यमिक कक्षाओं में, ज्ञान से हुआ साक्षात्कार
तो भी बहु-ज्ञानों की महत्तर टीकाऐं, मस्तिष्क-प्रवृष्टि न थी सहज।
बहुदा शिक्षकों द्वारा कक्षा ज्ञान-प्रसारण, कुछ-2 पल्ले ही पड़ता
ज्ञान- सम्पर्क प्रथमतया ही हो रहा, अतः स्वाभाविक असहजता।
कुछ सहपाठी पाए स्व से श्रेष्ठ, अडिग से दिखते ज्ञानोपार्जन में
कदाचित आकस्मिक, जितना श्रम वाँछित, झोंकता उतना न।
कुछों की स्थिति दयनीयतर, कक्षा न प्रतीत अपितु है जंगल
बस समय यूँ ही व्यतीत, न सोचा क्या और बेहतर था संभव।
ज्ञान न उपलब्ध कक्षा-उपस्थिति से ही, मात्र होता परिचय सा
सत्य-शिक्षा बाद में गृह-कार्य से, स्व-शिक्षण से जूझना पड़ता।
धन्य वे जिन्हें भले गुरु मिलें, अनेक न शिक्षण-निर्वाह में उचित
निज-अकर्मण्यता, कर्त्तव्य-विमूढ़ता, विद्यार्थी-जीवन अदर्शित।
शिक्षक जलाते स्व-दीप, डाँट-फटकार-आलोचना भी आवश्यक
माना गुरु-सीमा एक स्तर तक, तो भी है शिष्य -इच्छा सर्वांगीण।
यह रचना-कृति उपलब्ध साधन-सामग्री से, प्राण-प्रतिष्ठा तृप्ति
शिष्य लग्न से ही सीख सकता, निश्चित ही संभव सब द्वार-प्रवृष्टि।
इसी बाल्य से यौवन यात्रा से, इतर-तितर बिखरे में की कुछ प्रवृष्टि
लेकिन वह ज्ञान कितना अल्प था, मात्र विचार ही असहज-वृष्टि।
सत्य कि निज-विश्व बस मन-कोष्टक सीमित, ऊपर से प्रयास-अल्प
कैसे विकास-वृद्धि हो आत्म की, पर अनेकों ने तो प्रगति ली कर।
तब वृहद ज्ञान से कुछ सम्पर्क, पर जितना निकट, उतना शेष
अकेला कहाँ बैठा था प्रकाश से दूर, ज्ञान-बाधक मेरे प्रमाद-द्वेष।
कई विषय, विपुल ज्ञान-संग्रह निकट, सक्षमों के प्रयास परिलक्षित
अनेक सदा ही कर्मशील रहते, तभी जुड़कर इतना कुछ निर्मित।
माना उन लेखकों, वृहद-दायकों का भी सीमित-वृत्त में ही ज्ञान
तथापि बृहत्तर कर जाते, सर्व-मानवता समाने का करते प्रयास।
कुछ कालिदास, शैक्सपीयर बने, कुछ गोएथे सम अति-विस्तृत
नेहरू सम चिन्तन, मार्क्स, एग्नेल, एसिमोव, सागन सम वर्धित।
कैसे पकड़ी कलम महानुभावों ने, व एकत्रण की सामग्री-लेखन
कितनी समय-ऊर्जा प्रतिदिन देते, कहाँ से अनेक विचार पनपन।
कैसे मस्तिष्क प्रबल न्यूनतम से ऊपर, बह निकला ज्ञान-प्रभाग
हर कड़ी योग में समक्ष, उनकी बातों को सब देते अति-सम्मान।
पूर्व-अवस्था में ज्ञान जोड़ा, कुछ साहस किया, वृहद से सम्पर्क
अनेक रोमांचक भिन्न-विषय अतिगूढ़, अभी तक था अपरिचय।
पारंगतों-समक्ष तो अब भी भय, स्व-स्थिति है अति-असहज सी
असल बेचैनी स्व-अल्पता से, अनेक बहुदा अग्र-वर्धित क्योंकि।
संचित ज्ञान अति - धरातली, अस्मरण से वह भी जाता फिसल
जो कुछ पाया वह भी खो दिया, अकिंचन के ही रहें अकिंचन।
अभूतपूर्व मन-प्रणाली, सबको प्रदत्त पर पृथक ढंग से निखारती
कौन प्रेरणा महानर बनाती, अन्यों को अति-मद्धम ही रखती।
माना हम एकसम अंतः से, विभिन्न परिस्थितियों में होते असहज
सबका निज-स्तर सहन, अध्ययन-अभ्यास-प्रयास से उच्च वर्धित।
कुछ थोड़े सामान के प्रयास से, वृहद परियोजनाऐं खड़ी लेते कर
हर ईंट-जोड़ में उनका प्रयास, सहायता माँगने में न कोई झिझक।
कैसे-कौन मित्र बनते, योजना-मूर्तरूप में अक्षुण्ण-सफल बनाते
कैसे विभिन्न-मस्तिष्क योग, मदद से परियोजनाऐं आगे बढ़ाते?
मानो निज से सीमित संभव, अतः कुछ अवश्यमेव साथी बना लो
यही कवायद करती किंचित अग्र, प्रगति-पथ अध्याय सीख लो।
मुझे असहज होना ही चाहिए, वही तो विवेक का द्वार खोलेगी
जग-आगमन - लीक खींच दो, बहु-काल तक न तो कुछ देर ही।
यही रोमांच खींचेगा अनेक अज्ञात-रहस्यों की ओर, काष्ठा-वर्धन
जीवन-अर्थ ही नित-गति, अतः हिम्मत करो स्व से निकलो बाहर।
सब जग विद्यालय, पुस्तकालय मेरे हेतु ही, धैर्य से बैठना सीखो
निज मूढ़ता-अज्ञानता पर हँस लो, पर उचित हेतु सुदृढ़-चित्त हो।
स्व-स्तर में वृद्धि संभव, यदि ऊर्जा-विकसित करना जाओ सीख
जीवन माँगता प्रयास, अतः रुको नहीं, सर्वत्र से होवो आत्मसात।
धन्यवाद। और बेहतर के लिए प्रयास करो।
पवन कुमार,
२१ नवम्बर, २०१६ समय २२:३८ रात्रि
(मेरी डायरी दि० ८ मार्च, २०१५ समय ८:५० प्रातः से)