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Thursday 21 November 2019

संभव उदय

संभव उदय
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कितना ऊर्ध्व शिशु उदय संभव, इस मनुज के अल्प वय-काल 
चेष्टा से ही संपूर्ण कार्य परिणत, अनुरूप परिस्थिति मात्र सहाय। 

देश-काल में एक समय अनेक जन्म, आवागमन का ताँता सतत 
सबका तो निज समय व्यतीत, पर क्या उच्च स्तर से भी संपर्क ?  
मानसिक-भौतिक की उच्च श्रेणी से निष्णात घड़ित विद्वान-समृद्ध
उन्नत स्तर तो कुछ ही जन्म से, उनमें से अत्यल्प ही पाते सँभल। 

संपन्न-राजकुल जन्मा बालक, पूर्वज-योग्यता प्राप्त हो न आवश्यक 
प्रायः अपघटित कभी वृद्धि भी, निज प्रयास-परिस्थिति भाग अहम।  
कालिदास के रघुवंश में दिलीप-रघु, दशरथ-राम की गुरुता दर्शित
पश्चाद वाले शनै सुख-ऐश्वर्य में मस्त, व महान वंश हो गया विनिष्ट। 

उच्च महत्त्वाकांक्षी कुशल-चेष्टालू ही चाहिए, महत्त्वपूर्ण है प्रतिपल 
मुफ्त में न यश-श्लाघा प्राप्त, यदि भी तो अप्राकृतिक बस अनर्थ। 
योग्य तो बनो एक पद-स्तर के, हो मन में कुछ स्व-आश्वासन भाव 
हाँ अनेक कृत्रिम आत्म-मुग्ध, लघु मूढ़-कूप में ही लगाते छलाँग। 

किससे है निज  तुलना, एक स्तर देखोगे तो ही पाटन-दूरी ज्ञात 
कितनी ऊर्जा-वृद्धि  वाँछित, चरम-स्तर चूमने का लक्ष्य महान। 
अधुना काल में अनेक विज्ञान-अविष्कार, संचार-क्षेत्र अति-प्रगति 
वीडियो-दूरदर्शन, सोशल-मीडिया, अचरज-करतब सतत कई। 

कलाकार अति परिश्रम करते, उच्च अवस्था तो स्वतः ही न प्राप्त
अडिग यावत न वाँछित फलन, पूर्ण झोंके बिना तो न कोई बात। 
खेल-प्रतिभाऐं कठोर अभ्यास-परिश्रमी, अनुशासित लाभार्थ कुछ 
व्यर्थ तज ध्येय में रूचि, ऊर्जा-संघनन से सहसा विक्रम-पौरुष।  

क्यों मद्धम अवस्था में ही मुदित, जब खुले अनेक प्रगति-आयाम 
त्याग अति निद्रा-तंद्रा, घातक निम्न-प्रवृत्ति, तब  अति-दूर छलाँग। 
किसी दिशा बढ़ लो स्वरूचि अनुरूप, भाँति-२ के कुसुम-विस्मय 
अपने को कुछ प्राप्त ही, व्यर्थ सुस्ती छूटे व मिलें विकास आयाम।

अवसर मम  चेष्टा का ही स्वरूप, चलेंगे तो चक्षु दूर तक दर्शन
मन में  नवीन विचार, कई संभावनाओं का नृत्य-गायन प्रस्तुत। 
यदि कुछ जँच जाता, अग्र बढ़कर होता उस हेतु प्रयास आरंभ 
प्रगाढ़ इच्छा - बंद कपाट भी खुलें, लहरों से भीत तीर ही तिष्ठ। 

अपरिचित से तो सत्य-डर, शनै-२ आयाम सीख लो तो सौहार्द 
यह यथोचित प्रशिक्षिण, परिचय से पूर्ववत विस्मय लगे सहज। 
भय तो कुछ पलों का ही, उस पार ही तो खुलता विकास पथ 
प्रथम पग तो किंचित कष्टकारी, अभ्यस्तता से सुहानी पवन। 

अनेक व्यवधान, मन-अरुचि, आवश्यक कृत्य, और अन्य कभी 
शीघ्र निबट, मन सहज, कुछ विश्राम से गुणवत्ता-क्षमता वृद्धि। 
लक्ष्यार्थ जुट जाओ, थोड़ा-२ बढ़ने से ही है महद दूरी जाती पट
पूर्ण-स्पंदिन न अकस्मात, कई शनै-प्रक्रियाओं का ही है फल। 

सर्वपल न एक सम, मन जम जाता कभी चाहकर भी न प्रबल 
मन-देह नैसर्गिक प्रक्रिया, दैनंदिन क्षमताओं में वृद्धि-अपघट। 
फिर भी प्राण  चलित, अगर मन में प्रगाढ़ इच्छा है तो गतिमान 
जब दिशा लक्ष्य-इंगित तो क्यूँ डरना, पूरा न तो कुछ ही प्राप्त।  

चंद्र-मंगल आदि ग्रह चुंबन हेतु तो जरूरी फाँदना ही होगा गुरुत्व 
'निकास गति' से अधिक जरूरी, पुनः गुरुत्वाकर्षण से पतन वरन। 
कई विद्या-यंत्र-प्रक्रियाऐं सीखनी पड़ेगी, खगोलज्ञ करते अति-श्रम 
नासा, इसरो, रशियन स्पेस एजेंसी आदि, प्रयोगों से हैं होते सफल।

जन्म पर अदने से, पालन-पोषण-शिक्षण-स्वाध्याय से कुछ योग्य 
 परिष्करण एक सतत प्रक्रिया, जीवन संवारना है अपना दायित्व। 
लोहा तप्त रखना ही होगा, अवसर मिलते चोट, उपकरण फिर 
यंत्र सक्षम, पैदल से साईकिल, कार-वायुयान गतिमान अधिक। 

निश्चित ही भौतिक-मानसिक क्षमता-वर्धन से उच्च स्तर तक पहुँच 
जग में विशाल संख्या-प्रचलन, अल्प का ही उनसे आत्मसात पर। 
तन-कोशिका, मस्तिष्क-सूत्रयुग्म, केश-श्वास, प्रायः अगणित नक्षत्र 
पर सामान्य मन न सोचता, वह तो अल्प परिवेश में ही मस्त-व्यस्त।

पर महद-कर्मी दैनंदिन कार्यशैली में ही उद्देश्य हेतु पूर्ण समर्पित 
प्रेरणाओं का पीछे से सहारा, सुप्रबंधन प्रक्रियाओं का संग नित। 
कुछ शीघ्र ही अति-विकसित, जो असंख्य आजीवन भी असमर्थ 
कुछ तंत्र-विज्ञान जरूर इसके पीछे, किसी मंत्र से अग्र संवर्धित। 

अनेक चिंतक-प्रेरक-सज्जनों का प्रोत्साहन, पर सब श्रोता तो असम 
प्रवृत्ति 'खाया व मलरूप त्यागा', सुपाचन से न उपयोग हर अवयव। 
प्रचलित विचार-धाराओं व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ, नव-नियम स्थापन 
विश्व उनके पदचिन्ह चलता, उनका उद्देश्य मुख्यतया स्वहेतु ही पर। 

न्यूटन-आर्किमिडिज-एडिसन-आइंस्टीन-गैलीलियो-डार्विन से अनेक 
सुकरात-बुद्ध-कृष्ण-कबीर-हजरत-जीसस-लेनिन से हैं युग प्रवर्त्तक। 
व्यास-कालि, शेक्सपीयर- टेनीसन, टॉलस्टॉय-डांटे से  कवि-लेखक 
सिकंदर-चंगेज, अशोक-अकबर, सोलोमन-नेपोलियन से योद्धा-नृप।

पेले-ध्यानचंद, तेंदुलकर-फ्लेप्स, मुहम्मद अली-बोल्ट सी प्रतिभा-खेल 
विदुर-चाणक्य, मैकियावली, 'आर्ट ऑफ़ वॉर' के सुन तजू कूटनीतिज्ञ। 
ब्रूसली से स्फूर्त, बीरबल-चार्ली चैपलिन से विदूषक, निपुण जैफरसन  
प्लेटो-सिसिरो, अंबेडकर से विधिज्ञ, अर्थशास्त्री मार्क्स-आडम स्मिथ। 

अनेको-अनेक नाम उज्ज्वलित हैं विश्व में, जितने चाहो उतने लो खोज 
महामानव इस धरा पर सब ओर छितरित, आदर्शों की कोई कमी न। 
बिल गेट्स-वारेन बुफे-अंबानी, इलोन-मस्क, जुकेरबर्ग व स्टीव जॉब्स  
कैसे अल्प से इतने अधिक अग्र-वर्धित, कल्पना से ही खड़े जाते रोम। 

आज चिंतन-विषय स्व-वृद्धि, सब उन भाँति न तो स्व-रूचि अनुसार ही 
जीवन न मिलगा दुबारा, जो पूर्ण-उपयोग, कुछ ऊँचाई चूमो तुम भी। 

पवन कुमार,
२१ नवंबर, २०१९ समय १८:३५ सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ नवंबर, २०१६ समय १२:३० अपराह्न से)   

Monday 4 November 2019

ऊर्ध्व-जिजीविषा

ऊर्ध्व-जिजीविषा 
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अजीब सी हैं ये सुबहें भी, ख़ामोशी से बैठने ही देती न 
कुछ पढ़ो, प्रेरक लोगों में बाँटो, बैठो जैसा हो दो लिख। 

यह निज संग सिलसिला पाने-बाँटने का, कुछ करने का 
अन्य साधु उपयोग थे संभव, पर अभी वैसा जैसा भी बने।
बकौल रोबिन शर्मा प्रातः ५ बजे वाले क्लब में होवों शामिल
अभी तो खास न हो सका, तथापि जैसा बनता करता निर्वाह
कभी अवसर मिला तो शायद वह भी या और उत्तम होगा। 

न एकलक्षित, कुछ पूर्व सोचा सीधा लेखन पर आ जाओ 
मन बोला कुछ प्रेरक पढ़ो, व्हाट्सएप्प आत्मीयों में बाँटो। 
अवश्य कि पढ़कर ही अग्रेसित, बिन समझे तो है अनुचित
ट्विट्टर जोड़ता कुछ अनूठे व्यक्तियों से, छापते उत्तम नित्य। 

अनेक भली चीजें बिखरी सर्वत्र, वाँछित उठाने का इच्छा-बल 
माना लब्ध सीमित समय-ऊर्जा, तो भी सोचकर कुछ चयन। 
अनेक सहयोगों से ही सार्थक परिवर्तन, अन्यों हेतु भी उद्देश्य 
जीवन निजोपरि होना चाहिए, जब नहीं रहूँगा मेरे होंगे शब्द। 

कैसा दिग्गजों का जीवंतता प्रयास, बाद भी देह-प्राण गमन
क्या सहज पथ या व्यक्तित्व शैली, बलात तो बड़ा न संभव। 
न कोई होड़ आगे निकलने की, जिसकी जो समझ रहा कर
तथापि शक्ति अनुरूप क्रियान्वित, समयाधीन तो परिणाम।

विटप से अंकुर -पादप, फिर सुरक्षित-स्वस्थ  पूर्ण वृक्ष रूप
कई अवस्था, नित-संघर्ष, अनेक आत्मसात, निर्वाह कठिन। 
प्राकृतिक साधन, भला परिवेश है तो गति संभावना अधिक 
अन्यथा अनेक स्व ही हट रहें या हटाए जाते, निर्बल बेबस। 

कली-पुष्पन, सूर्योदय संग विकसन, साँझ ढ़ले पँखुड़ी निमील 
प्रकृति सुगंधि, परिवेश सुरुचिर-प्रयास, स्व ओर से न कसर।
नैसर्गिक या अदम्य प्राण-शक्ति, पूर्ण झोंकूँ हेतु जग-निखरण
यह हर अंतः-गुह्य, वे भली जाने अभी  स्वयं की करता बात। 

अवश्य सब निज भाँति कुछ कहते, ख़ामोशी-मस्ती मशगूल 
क्या उससे अच्छा था संभव या उनके व्यक्तित्व का प्रयत्न।  
कमतर प्रयास भी न, उपलब्ध ऊर्जा से  कर सकते अधिक 
जिजीविषा है ऊर्ध्व की, अनुपम-मिलान का प्रयास किञ्चित। 

कोई यत्र मस्त, कोई तत्र उसमें, निज प्रयास पूर्ण निखरण का 
प्रयास भी एक बड़ा शब्द, मन से जुड़ स्व से जूझना सिखाता।
जैसी स्थिति भी उत्तम करना, ऊर्जा सहेज कर जाना अनुपम
दिल से जुड़न निखरण-प्रक्रियाओं से, खुलें विकास के पथ। 

प्रथम अंतः-प्रेरणा ही, तभी प्रातः जल्द जग अन्न -जल प्रबंधन 
स्वजनों का ध्यान, तन को गतिमान रखने को उचित व्यायाम। 
पड़ोसियों-समाज से हो सहयोग, मेरा सा व्यवहार वे भी करेंगे
फिर बाँटूँगा तभी मिलेगा, स्व सहेजा  सबके काम का बनते। 

अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संग जुड़े, अपने में धुरंधर मान लो तुम 
यदि न करूँ तो भी भले-चंगे, किसके जाने से रुका यह जग। 
पर जीवन कैसे फलीभूत, अकर्मण्य रहकर यूँ बीत गया यदि  
औचित्य प्रमाण प्रथम आत्म से, अन्य भी आँकेंगे किसी भाँति। 

जग के सहज-चलन में सहायतार्थ, हृदय-गति समझनी होगी 
उचित संवेदन-उकेरन-व्यायाम से स्वयं प्रतिपादित यत्न-गति। 
ये चेष्टाऐं सक्षम स्व-निर्माण हेतु, नियम-कायदे तो सीखने होंगे 
कैसे महक सकती जग-बगिया, माली-पुष्प बन सहयोग करें। 

चलो मानते निज नितांत भी न चिंता, हूँ पूर्णतया जग-समर्पित 
जो भी हूँ इससे ही, इस हेतु व गणतंत्र भाँति इसका ही अंश। 
कोई न एक विशेष इकाई, स्वस्थित होते भी कण विश्व-ब्रह्मांड 
संभव योगदान सुनिर्वाह में, न झिझकूंगा, मेरी भी सीमाऐं हाँ। 

इस  कार्यशैली से ही पथ अग्रेसित, कालजयी न सही तो कुछ 
सब कालों में था, हूँ, हूँगा, पर अभी है बात चेतना आधार पर। 
इस संज्ञा-रूप जन्म का महद काल विसरण व हेतु ही प्रयास 
सब पूर्वज, अद्य सखा-सहयोगी, भविष्य के कर्मठ भी स्वरूप। 

एक वृहद में सब लुप्त, सागर में जल-कण क्या श्रेष्ठ या निम्न 
सर्व-मिलन से अनुपम जलराशि, सार्थकता में स्वयमेव निज। 
प्रति वाष्पकण सहयोग, वही पुनः-२ भिन्न रूपों में लौट आता 
जग-सुनिर्वाह में पूर्ण न्यौछावर, सार्थकता है अस्तित्व हमारा। 

कैसे हो सुबुद्धि-विसरण, यदि दक्ष तो क्या औरों में  सकता बाँट 
एक आयाम-योग से अन्य प्रभावित, पर सीमा में ही संभव काम। 
प्रयास से है सीमा वर्धन, जब चलोगे तो कुछ अन्य हो ही लेंगे संग 
अन्यथा भी भला आरोग्य हेतु, ज्ञान-प्रवाह ही तुम्हे बनाएगा उत्तम। 

सहज ही ये अनूठे शब्द उदित, मस्तिष्क में कुछ तो महाप्रयाण 
यह विपश्यना कैसे संभव, सुघड़-विचरण स्वतः ही है प्रस्फुटित। 
बुद्ध, सुकरात, महावीर की चेतना में भी रहे होंगे प्रयोग अनेक
कुछ असहज क्षण ही पकड़े होंगे, समेकित कर अनुपम बाहर। 

मेरा लेखन भी स्व से ही झूझना, चित्त हो निर्मल तो सब द्वेष बाहर
प्रयास जग हो मधुर-सुंदर, जितना बन सकेगा,  जान दूँगा लगा। 
दायित्व बहु-आयामों का इर्द-गिर्द, पूरा करने में न कोई हिचक 
कैसे हो गण-जीवन सुभीता, न मात्र  रुदन, संभावनाऐं तलाश। 

सेवी दिल से समझो अबलों प्रति दायित्व, सबकी अवस्थाऐं विभिन्न
वे भी कल्पतरु बनेंगे, शुभ्र सौंदर्य, सबकी मनोकामना पूर्ण समर्थ। 
पर तभी संभव जब निज का ही उभरन-प्रयास, फिर न कोई बवाल
तब स्वयमेव परस्पर संगी-प्रेरक, जग-आगमन होगा कुछ सार्थक। 


पवन कुमार,
४ नवंबर, २०१९  ७:४० सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २९ दिसंबर, २०१६ समय ८:२६ प्रातः से)