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Saturday 29 August 2015

महाकविश्रीकालिदास विरचितम् कुमार संभवम् : उमा- उत्पत्ति

कुमार-सम्भव 
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प्रथम सर्ग : उमा- उत्पत्ति 
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उत्तर दिशा की देवभूमि में

पर्वताधिराज हिमालय है। 

पूर्व व पश्चिम के सागरों को चूमता,

किए स्थापित भू पर मानदण्ड है।१।

 

जिसको समझते सब शैलवत्स, 

मेरु पृथ्वी रूपी गो दुग्ध-दोहन में सक्षम।

पुरा-समय के पृथु-आदेश से ये सब करते

  हिमालय को रत्न-औषधि से आभूषित।२।

                                                                  

   अपरिमित रत्नों से सुसज्जित, एक हिम

नहीं सकती उसका सौभाग्य ही हर।

एक दोष गुणों में छिप जाता है जैसे

किरणों में इंदु पर दाग एक।३।

 

 शिखरों पर बहुमूल्य धातु धारण करे,

संध्या सी हो जगमग।

मेघ-खण्डों में जिसके वर्ण रंजित, व

       विलासिनी अप्सरा-गृह ओर ले जाए कदम।४।

 

पर्वत समीप मैदानों में शिखरों की

घन-छाया का लेकर आनंद जब।

प्रखर वृष्टि से पीड़ित, सूर्य से चमकती

       उसकी चोटियों पर करते विश्राम सिद्ध।५।

 

जहाँ किरात गज-हन्ता सिंहों के

नख-रंध्र से गिरते मुक्ता खोजते।

यद्यपि उनके रक्त-रंजित पद-चिन्ह देख पाते,

जो परिगलित हिम-नालियों में लुप्त हो जाते।६।

 

   भोज-पत्रों पर धातु-स्याही से लिखे अक्षर,

जहाँ कुञ्जर* रक्त-वर्ण से मेल खाते हैं।

विद्याधर-सुंदरियों के लिए ये लेख,

    कामुक सम्पर्क-साधन काम आते हैं।७।

 

कुञ्जर* : हस्ती

 

हर गुहा-मुख से आती समीर से,

वह हिमाद्र कीचक* से गान सुनाता।

किन्नर सुंदरियाँ उच्च-स्वरों में गाती

और देती संगीत को फैला।८।

 

कीचक* : बाँस

 

जहाँ भीषण गज देवदार द्रुमों को अपने

पीड़ित कर्णों को सुख देने हेतु रगड़ते।

अनुपम सुवास फैलती पवित्र पर्वत पर

सुगन्धित रिसते उन के गोंद से।९।

 

रात्रि में चमकती औषधियों से कंदराऐं दीप्त 

जहाँ प्रकाश हेतु ते की आवश्यकता होती न।

वनवासी अपनी सुंदर रमणियों संग

करते हैं काम क्रीड़ा जब।१०।

 

श्वमुखी कामिनी-कटि झुकीं पूरे उरोज-भार से

गृह-लक्षित अपने क़दमों की छोड़ती चाल न।

यद्यपि शिला सी बनी हिम पर चलने से उनकी

ड़ियाँ एवं उँगली पोर शीत से जातीं कट।११।

 

जो गुहाओं में आदित्य प्रकाश से भीत

निशाचर उलूकों की है रक्षा करता।

 शरण में पड़े क्षुद्र को भी, सज्जन हैं

कवच देते अपनी ममता का।१२।

 

चन्द्र-मरिचियों सी शुभ्रपुच्छल-चँवर हिलाकर

जहाँ याक उसका गिरिराज होना करते सिद्ध।

 वीजन गति से उनकी शोभा

 सब ओर है विस्तारित।१३।

 

जहाँ जलद* विभिन्न आकृतियों में

अकस्मात गुहा-गृह द्वार पर लटक जाते।

और निर्मित विलज्जित किन्नरियों हेतु चिलमन*,

जिनके अंशुक पुरुषों द्वारा जा रहे उतारे।१४।

 

जलद* : मेघ;  चिलमन* : परदा
    

जहाँ भागीरथी नदी की जलाच्छादित फुहारें

बारम्बार देवदार तरुओं को करती कम्पित।

और कटि-बंध मयूर-पंख घर्षण से पीड़ित

        मृगया-हानि से क्लांत किरीटों को आनंदित।१५।

 

उच्च शिखरों की ताल-कमलों को जिके 

राजीव नभ-सप्तर्षि नीचे उतर चुगते।

बचे अरविन्द भास्कर किरणों से

पुनः ऊर्ध्व-वृद्धि करते।१६।

 

जिसकी यज्ञ-साधन व धरित्री-धारण सक्षमता

देखकर प्रजापति स्वयं कल्पित यज्ञ-भाग से,

हिमालय को शैलाधिपति घोषित करते।१७।

 

इसके पश्चात कथा प्रस्तुत है :

 

उस मेरु-सखा ने अपनी कुल-निरंतरता हेतु

अनुरूप माननीय एवं मुनिजन सम्मानित।

पितरों द्वारा विधि-पूर्वक स्थिति जानकर

मानसी* कन्या से किया परिणीत*।१८।

 

मानसी* : मन से उपजी; परिणीत* : विवाह

 

  कालान्तर में जैसे कि वे हुए अपने

स्वरूप योग्य काम-प्रसंगों में प्रवृत।

मनोरम यौवन धारण किए भवत

      भूधरराज पत्नी ने किया धारण-गर्भ।१९।

 

 उस मेना ने मैनाक जन्मा, जिसने एक नागकन्या से

विवाह किया, निज  रक्षार्थ समुद्र से मित्रता की।

माना क्रुद्ध इंद्र के वज्र-प्रहार से सर्व पर्वत छेदित,

      पर मैनाक ने कदापि न अनुभव की पीड़ा ही। २०।

 

तब, पूर्वजन्म में दक्ष-कन्या व शिव-पूर्वपत्नी

पवित्र सती ने पुनः शैल-वधू से लिया जन्म।

जिसने पिता द्वारा पति-अपमान करने पर

योग से अपनी देह दी थी त्याग कर।२१।

 

उस सुभागिनी मेना से जन्मी उमा, सदा

समर्पित पर्वतराज द्वारा पवित्र कर्मों में।

क्योंकि समृद्धि पनपती है उत्साह व

सुनिर्देशित कर्मों के निर्वाह से।२२।

 

उस पार्वती के जन्मदिवस पर

सब दिशाऐं रज-रहित पवन।

शंख-ध्वनि व पुष्प-वृष्टि से प्रमुदित जो सब

   जंगम-स्थावर देहों में सुख हेतु संचारित।२३।

 

नव-मेघ स्वर से वैदूर्य*-पर्वतिकाओं से सटे

जैसे भू-भाग भी रत्न-किरण से हैं चमकते।

वैसे ही माता भी कान्तिमान होती है

पुत्री के प्रभा-मण्डल से।२४।

 

वैदूर्य* : रत्न-जड़ित

 

बालचंद्र नव-कला प्रस्तुत करता,

जैसे बढ़ता जाता है प्रतिदिन।

वैसे ही उस उमा में कालांतर में

विशेष लावण्य हुआ संचारित।२५।

 

बन्धु-अभिजन उसे पार्वती नाम से पुकारते, पर

तप द्वारा माता अत्यंत सावधानी से रही पाल।

उसे उ (हे पुत्री) मा (मत कर) निषिद्ध-शब्दों से पुकारती,

अतः उसे मिला उमा नया नाम।२६।

 

यद्यपि पुत्र होते हुए महीभृत* की नजरें

अपनी इस बाला को देखते न होती तृप्त।

जैसे वसंत में अनेक प्रकार के पुष्प होते भी भ्रमर,

 आम्र-अंकुर ओर ही पूर्ण प्रेम से होते आकर्षित।२७।

 

महीभृत* : हिमाद्र

 

उसे पाकर पर्वतराज को अपर* महत्ता-कीर्ति,

जैसे दीप को मिले शिखा प्रभायुक्त अति।

या त्रिमार्गी गंगा से स्वर्ग-पथ या जैसे

         शुद्ध वाणी से विभूषित होता मनीषी।२८।

 

अपर* : अतिरिक्त

 

बालपन में वह पार्वती

 क्रीड़ारस प्रवेशित सखियों से घिरी।

प्रायः गेंद व खिलौनों से खेलती और

       मंदाकिनी तीर रेत पर वेदिका बनाती।२९।

 

उसके पूर्वजन्म-संस्कार, विद्या-ग्रहण समय प्रकट

हो जाते, जैसे पूर्व के स्थिर प्रभाव होते चिरस्थायी।

शरद में हंस-पंक्तियाँ गंगा ओर लौट आती व रात्रि में

 निज रोशनी से जगमग करती जैसे महौषधि।३०।

 

वह बालपन पार कर उस आयु में पहुँच गई,

अब जो स्वयं में एक अकृत्रिम शरीर-सौंदर्य है।

मदिरा से भी अधिक मधुर आनंद का कारण व

  काम भी कुसुम-बाण का शस्त्र लिए हुए है।३१।

 

जैसे चित्रकार-तूलिका से चित्र शनै-२ बढ़ता जाता

या अरविन्द सूर्य-किरण प्रभाव से खिलता जाता है।

वैसे ही उसकी शोभित सुडौल काया

    नूतन यौवन से खिलती जाती है।३२।

 

 गतिमान उसके चरण पृथ्वी को सदा-चलित 

स्थल-राजीवों की सौजन्यता प्रदान करते।

क्योंकि वे अति-उन्नत अंगुष्ठ और

     बढ़े नख के रक्त-वर्ण से चमक रहे।३३।

 

उरोज-भार से झुकी हुई सी, कदमों द्वारा दर्शित,

और मोहक चंचल अदाओं द्वारा वह विभूषित ।

पदगति विषय में राजहंसों द्वारा शिक्षित, जो बाद में 

स्वयं ही उसकी नूपुर-संगीत शिक्षा को हैं उत्सुक।३४।

 

उसकी अति-सुंदर, न अति लम्बी, गोल,

मांसल-सुडौल जंघा ली बना विधाता ने जब।

उनको अनन्य लावण्यमयी शेष अंग-निर्माण में

बहुत ही प्रयास करना पड़ा तब।३५।

 

ऐरावत हस्ती की सख़्त त्वचा की सूँड और

अत्यंत शीत जलवायु की विशेष कदलीफल।

जो हालाँकि सुडौल व गोलाकार, पर उसकी

जंघाओं की उपमा के मानदंड में मद्धम।३६।

 

अतिशोभित सम्पूर्ण काञ्ची गुण यानि नितम्ब आदि

स्थलों की सुंदरता इस तथ्य से जानी जा सकती।

कि कौमार्य पश्चात् वह गिरीश-अंक बैठने को सक्षम हुई

जो अन्य किसी नारी हेतु सम्भव न था किंचित भी।३७।

 

उसकी कटि-वस्त्र ग्रन्थि नवल में प्रवेश करके

मेखला-मध्य एक सूक्ष्म सुंदर नीली लेखा बना लेती।

जो एक नीलम रत्न से निकलती

चमक सी सुंदर है दिखती।३८।

 

वेदी-मध्य कुश भाँति उस पार्वती की सुंदर

तनु कटि, चारु माँस की तीन वलियाँ सी बना लेती।

जो नवयौवन में काम-सोपान सी प्रयुक्त होती।३९।

 

उस कुमुदिनी सी अँखियों वाली के

परस्पर पीड़ित करते गौरांग स्तन।

 हैं इतने गोल-सुडौल व प्रवृद्ध कि एक कमल-पत्र

भी कष्ट से ही स्थान पा सकता उनके मध्य।४०।

 

उसकी बाहु कोमल हैं

शिरीष-पुष्पों से भी अधिक।

पूर्व से ही पराजित मकरध्वज* द्वारा

जो पहनाए गए हैं हर* के कण्ठ।४१।

 

मकरध्वज* : कामदेव; हर* : शिवजी

 

उसके स्तन-बंधु ऊपर कंठ में

मोती-माला है सुशोभित।

इस स्थिति में भूषण एवं भूष्य* हैं

शोभा प्रदान करते परस्पर अभिन्न।४२।

 

भूषण एवं भूष्य* : सजाया गया व सजाने वाला

 

सौंदर्य-देवी जब शशि देखती, तो कमल-चारुता में आनंद न

जब वह अरविन्द देखती, तो सुधांशु में नहीं दिखता रस।

 लेकिन वह उमा-आनन को निहारती, तो तब

     दोनों लालित्य मिल जाते एक स्थल पर।४३।

 

 चाहे अति सुंदर पुष्प अति-शुभ्र शैवाल पर क्यों न हो खिला,

चाहे अभी बहु समृद्ध शैल से ही मोती क्यों न हो निकला?

वे मात्र रमणीय दिखते हैं, उस उमा के

        गुलाबी ओष्टों से निकली मोहक मुस्कान जैसे।४४।

 

जिसकी संगीतमयी वाणी है,

स्वर से हो रही जैसे अमृत-वर्षा।

अन्य कोयलादि के गीत भी श्रोताओं को न हैं सुहाते,

ऐसा प्रतीत कि जब बाजा बजाया, तो सुर से चला गया।४५।

 

 उसकी चकित भीत नजरें, अति-तीव्र

पवन में अस्थिर नीलकमलों से न भिन्न।

मृगिणियाँ भी ऐसे लोचन,

      उमा से माँग सकती हैं उधार।४६।

 

अञ्जन से श्लाका - चित्रित सी

भौहों की कान्ति देखकर।

लज्जित हो लीला-चतुर मनोज त्याग देता,

अपने प्रेम-धनुष की भव्यता का गर्व।४७।

 

पर्वतराज पुत्री उमा के भव्य केश देखकर, होगा

चमरी* को भी निज लम्बे केश-विषय में सोचना।

यदि पशुओं के चित्त में कुछ लज्जा है, तो

      सुंदरता-विषय में वह शिथिल पड़ जाएगा।४८।

 

चमरी* : मादा याक

 

संक्षेप में विश्व-सृजा ने सर्व उपमाओं का

समुच्चय करके, उचित स्थान पर रखा उनको।

और उस उमा को बड़े यत्न से बनाया, जैसे इच्छा

एक ढाँचे में ही सर्व-सौंदर्य को देखने की हो।४९।

 

इच्छागामी नारद ने पार्वती को

तात समीप देखकर उद्घोषणा की।

यह कन्या शिव-वधू भवानी बनेगी

और प्रेम से उसकी अर्धांगिनी।५०।

 

यह सुनकर पिता भी अपनी युवती

 पुत्री हेतु वर-अभिलाषा से हुए निवृत्त

जब आहुति मंत्रों द्वारा पवित्रित हो, तो अग्नि के अलावा

किसी अन्य चमकती वस्तु के विषय में सोचा जाता न।५१।

 

 स्वयं से दुहिता का देवाधिदेव महादेव संग

पाणिग्रह करने का साहस अक्षम थे हिमाद्र।

ऐसे विषयों में प्रार्थना अस्वीकार के भय से

मध्यस्थ का सहारा लेते हैं सज्जन।५२।

 

जबसे इस सुदंती* ने पूर्वजन्म में,

तात दक्ष विरोध में किया था स्व-देह विसर्जन।

पशुपतिनाथ* ने सब आकर्षण-संग त्याग दिए, 

और एकाकी रहते हैं अपत्नीक।५३।

 

सुदंती* : सुंदर दंतों वाली, पार्वती; पशुपतिनाथ* : शिव

 

शम्भु मृगछाला पहन तपस्वी, जितात्मा, ध्यान-मग्न,

ऐसे हिमालय के किसी शिखर पर निवासित हैं वह।

देवदार तरु गंगाजल-प्रवाह से सिंचित होते, कस्तूरी-गंध

जहाँ सुवासित करती व किन्नर करते हैं मधुर गायन।५४।

 

 नमेरु-पुष्पों की कर्ण-बालियाँ पहने, गण भोजवृक्ष छाल के

सुखदायक वस्त्र पहने, योगिराज इच्छा का करते हैं पालन

वे शिला-कंदराओं में रहते, जहाँ शिलाजित धातु

प्राप्त होती और निकलती है एक विशेष गंध।५५।

 

का वाहक नंदी वृषभ मधुर-ध्वनि निकालता हुआ,

गर्व में खुरों से उखाड़ता संघनित हिम-शिला को।

 पर्वत में सिंह-दहाड़ सुन वह, उच्च नाद करता

मृग बड़े भय से देखते हैं जिसको।५६।

 

वहाँ अष्टमूर्ति, जो स्वयं तप-फलदायक

और अग्नि, जिसका अपना एक रूप है।

यज्ञाग्नि में सब समिधाओं की आहुति देते,

      किसी अज्ञात कामना संग करते तप हैं।५७।

 

अद्रिनाथ* ने की अमूल्य सामग्रियों से शिव-पूजा,

जिका स्वर्ग-देवता करते हैं सम्मान एवं अर्चना।

और निज सुता उमा को उसकी दो सखियों* संग

ईश्वर की आराधना हेतु दी आज्ञा।५८।

 

अद्रिनाथ* : हिमवान; सखियाँ* : जया व विजया

 

गिरीश ने पार्वती को उसकी इच्छानुसार शुश्रूषा करने की

अनुमति दे दी, यद्यपि यह उसकी समाधि में एक बाधा है।

पर वे ही धीर, जिनके चित्त प्रतिभूतों की उपस्थिति में भी

विकार-रहित रहते हैं।५९।

 

पूजा हेतु पुष्प चुगकर, वेदी-सुचिता में दक्ष,

पवित्र मंत्रोच्चार हेतु नियमित जल व कुश लाती।

अतएव सुकेशी* गिरीश की नियमित सेवा में व जब परिखेदित, 

तो शिव के भाल-चन्द्र किरणों से पुनः तरोताजा हो जाती।६०।

 

सुकेशी* : सुंदर केशों वाली, पार्वती; परिखेद* : थकी

 

 । इति उमा-उत्पत्ति।

 

(महाकवि कालिदास के मूल प्रथम सर्ग : उमा- उत्पत्ति नाम

का हिन्दी रूपान्तरण-प्रयास)


पवन कुमार,

२९ अगस्त, २०१५ समय १८:५१ सायं

  (लेखन ९ से १६ अगस्त, २०१५)  

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