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Saturday 12 September 2015

कुमार-संभव : ब्रह्म-साक्षात्कार

कुमार-संभव   
 द्वितीय सर्ग : ब्रह्म-साक्षात्कार

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उस पार्वती के सुश्रुषा काल में,

तारकासुर की विप्रकृति* से। 

त्वरित विजेता इंद्र के नेतृत्व में, सुरलोक-

निवासी स्वयंभू* ब्रह्म के धाम गए।१। 


विप्रकृति* : उत्पीड़न; स्वयंभू*; अपने से ही जन्मे

 

उन देवों के मलिन मुख देखकर,

ब्रह्म ने स्वयं को किया प्रकट। 

  तालों के सुप्त-कमलों हेतु,

      रवि जैसे प्रातः होता आविर्भूत।२। 

 

 उन देवों ने उस ब्रह्म को नमन कर,

  उपयुक्त वचनों से तब किया प्रसन्न।  

 जो चतुर्मुखी, वाणी-स्वामी वागीश,

वाचस्पति एवं है सृष्टि-जनक।३। 

 

हे त्रिमूर्ति ! तुम्हारा वंदन है

सृष्टि-जन्म पूर्व केवल था तुम्हारा रूप। 

तदुपरांत सत्व, रज व तमस गुणों में विभाजित

            कर लिया व विभिन्न रूपों में किया प्रदर्शित।४।           

 

हे अजन्मे! तूने निज हाथों से अमोघ बीज

तीव्र जलधारा में निक्षेपण* किए, पश्चात उसके।

तेरे प्रभाव से ही यह स्थावर-जंगम* विश्व-निर्माण,

इसीलिए जल-स्रोत से ही तुम्हारा यश है।५।


निक्षेपण* : बोए;  स्थावर-जंगम* : चराचर


निज शक्ति को तीन गुण-अवस्थाओं

कर्ता, पालक व संहारक में कर सर्जन।

तुम ही इस ब्रह्माण्ड का हो कारण।६।


स्त्री व पुरुष तुम्हारी ही भिन्न मूर्तियाँ हैं,

जो सृष्टि-इच्छा करने से किए गए अलग।

 ये सृष्टि-उत्पत्ति जनक रूप में पुकारे जाते व

      आत्म-नवीन फलदायिनी प्रकृति हुई उत्पन्न।७।


अपने ही माप से तुमने काल को अपने

दिवस एवं रात्रि में किया विभक्त।

तुम्हारा जागना-सोना ही है

प्राणियों की सृष्टि* व प्रलय।८।


सृष्टि* : जीवन


हे भगवन ! तुम ही जगत की आदि-योनि*

एवं अयोनि* हो, जग-संहर्ता स्वयं ही।

और नित्य हो, तुम प्रारम्भ रहित हो,

ब्रह्माण्ड आदि हो व इसके स्वामी।९।


आदि-योनि* : कारण; अयोनि* : अनादि


तुम स्वयं को अपने से ही जानते,

स्वयं को अपने से सृजन करते हो।

और स्वयं से निज बलशाली आत्म को

आत्म-समाहित कर लेते हो।१०।


तुम द्रव तुल्य तनु, व कण घनीभूत होने कारण ठोस हो,

स्थूल हो पर सूक्ष्म हो, हल्के भी हो और भारी भी हो।

तुम व्यक्त भी हो और अव्यक्त भी, और

तेरी इच्छा पराक्रम में विभूषित है।११।


तुम ही उन वाणियों के स्रोत्र हो
,

जिससे प्रारम्भ होता है प्रणव (ॐ)।

जिसका उच्चारण तीन ध्वनियों में है प्रकट,

     और तुम्हारी वाणी कारण कर्मफल है स्वर्ग।१२।


प्रकृति चलन देखकर कूटस्थ* जन

तुम मात्र को ही पुरुष जानते हैं।

वे तुम्हें ही पुरुषार्थ* प्रवृत्ति में

प्रकृति कहते हैं।१३।


कूटस्थ* : उदासीन; पुरुषार्थ* : आत्म-कल्याण हेतु


तु
म्हीं पिताओं के भी पितृ हो,

देवों के भी देव, सबसे ऊँचे हो।

तुम्हीं व्रत सुनने वाले हो, और

विधाता के भी कर्ता हो।१४।


तुम्हीं यज्ञ हो, तुम्हीं पुरोहित,

तुम्हीं भोजन-भोक्ता व शाश्वत।

तुम्हीं ज्ञान हो, तुम्हीं ज्ञाता,

       तुम्हीं ध्याता-ध्यान हो परम।१५।


उन दे
वों द्वारा सत्य-स्तुति

सुनकर, जो हैं हृदयंगम।

प्रसन्नमुख से ब्रह्म ने कृपादृष्टि

   करके सुरों को दिया उत्तर।१६।


पुराण कथित चतुर्विध अर्थात

द्रव, गुण, क्रिया, जाति भेद।

प्रवाह* से उस पुरातन कवि ने, निज चतुर्मुख से

 यूँ कहा, जो संवेदना सहेजने में था सफल।१७।


प्रवाह* : शब्द


ओ प्रबल पराक्रमी-अजानबाहु

यहाँ आऐ देवों ! तुम्हारा स्वागत है।

तुमने अपना अधिकार, स्व-सामर्थ्य

आलंबन से किया प्राप्त है।१८।


यह क्या है, तुम्हारी पूर्व जैसी

आत्मीय प्रभा न दिखाई देती।

तुम्हारे मुख की सितारों सी ज्योति

तुषार से क्लिष्ट हुई है लगती।१९।


वृत्रासुर संहार कर्ता इंद्र का वज्र

कुंठित सा हो रहा है लक्षित।

इसका विचित्र इंद्रधनुषी आलोक शमित होने से

ऐसा लगता है, इसकी धार हो गई है मंद।२०।


रिपु को असहनीय वरुण का फन्दा-हस्त एक

हतोत्साहित, अपराक्रमी फणी सम विवश।

दीन हो गया है, जैसे उसकी शक्ति को

मंत्र द्वारा दिया गया है कुचल।२१।


कुबेर-बाहु से उसकी गर्वित गदा त्यक्त है,

वृक्ष की भग्न शाखा की भाँति प्रतीत है।

ऐसा लगता है यह पराभव में

    हृदय-शूल सम चुभ रही है।२२।


यम भी कभी भूमि कुरेद रहा है अमोघ

दण्ड से, जिसकी चमक पूर्णतया त्यक्त।

भूमि लेखन में कभी अमोघ अस्त्र लघु

होकर शांत, हो गया है हीन-अर्थ।२३।


और ये आदित्य शक्ति

क्षीण होने से कैसे शांत हैं?

अत्यंत आलोक देखने वाले अब

      ये चित्र भाँति हो गए स्थित हैं।२४।


मरुत का वेग-भंग उसकी

दुर्बल गति से जाना जा सकता है ।

अतएव प्रवाह रोधित है,

   सागर-जल उतराव से।२५।


केशों में जटा, भाल पर बाल-चन्द्र लिए

रुद्र शीर्ष भय, लज्जा से नीचे हैं नमन।

वे उनकी क्षत हुँकार भरने वाले

शस्त्र-स्थिति करते कथन ।२६।


क्या तुमने पूर्व-प्राप्त प्रतिष्ठा को
,

अधिक बली शत्रुओं से भीत होकर।

उत्सर्ग कर दिया, जैसे सामान्य नियम

        विशेष नियमों द्वारा दिए जाते हैं त्यक्त।२७।


तब हे वत्सों ! बोलो, तुम किस

प्रयोजन हेतु हुए हो एकत्र यहाँ?

मुझमें अवस्थित है सृष्टि रचना

और तुममें लोकों की रक्षा।२८।


तब इंद्र, सहस्र नेत्र जिसके,

 शोभित मंद अनिल उद्वेलित कमल-गुच्छ जैसे,

ने गुरु बृहस्पति* को प्रार्थना की।२९।


बृहस्पति* : ब्रह्मा


तब उस इंद्र ने अपने

सहस्र-नयनों से भी उपयोगी अधिक।

द्विनेत्र कमलासन-स्थित वाचस्पति को

करबद्ध सहृदयता से कथन यह।३०।


हे भगवन ! जो तुमने पूछा है
, उसका उत्तर है

कि हमारी उच्च पद-प्रतिष्ठा शत्रु ने है हर ली।

जब तुम प्रत्येक आत्मा में नियुक्त हो, तो इसे

      कैसे नहीं जानते, ओ प्रभु शक्तिशाली !।३१।


तारक नामक एक महासुर
,

जो तुम्हारे दत्त वरदान से।

लोकों में धूमकेतु सम,

मचाए हुए उत्पात है।३२।


उसके प्रासाद में रवि मात्र उतनी ही ऊष्मा देता है
,

जिससे उसकी विलास-तालों के अरविन्द खिल सकें।

अर्थात सूर्य स्व-प्रतिष्ठा अनुसार,

चमकने में असमर्थ है।३३।


उसके हेतु चन्द्र
, सदा अपनी सोलह

कलाओं सहित प्रतीक्षा करता है।

जबकि केवल चूड़ामणि शिव की बालचंद्र लेखा को

    छोड़कर, इंदु निज कलाऐं धारण करता रहता है।३४।


उसके उद्यानों में दण्ड-भय से

पवन कुसुम-सुगंध चुरा न सकता।

अनिल उसके निकट एक पंखे से

 अधिक वेग से न बह सकता।३५।


और सदा-सम्भारण हेतु तत्पर ऋतुऐं
,

उस तारक की प्रतीक्षा करती हैं।

जैसे वे सामान्य उद्यानपालों से अधिक न और

 उसकी सेवा में अब सब काम छोड़ देती हैं।३६।


सरितापति समुद्र उस तारक को

उपहार योग्य बहुमूल्य रत्नों की जल-गर्भ में

     निर्माण की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।३७।


 शीर्षों पर ज्वलंत मणि लेकर,

अपने प्रमुख वासुकि संग भुजंग।

स्थिर प्रदीप* से उसकी उपासना करते,

     जिसको कोई बाधा न कर सकती मंद।३८।


प्रदीप* : प्रकाश


स्वर्ग-देवता इंद्र भी दूतों द्वारा
,

बारम्बार कल्प-तरु के विभूषित पुष्प।

उस तारक को भेजता है, जिससे उसका

अनुकूल अनुग्रह वह प्राप्त सके कर।३९।


इस प्रकार से आराधना करके भी

उससे त्रिलोक* पीड़ित है।

दुर्जन उपकार से कभी शांत न होते,

      उनका प्रतिकार मात्र शमन से ही सक्षम है।४०।


त्रिलोक* : स्वर्ग, नरक, पृथ्वी


उसके नन्दन वन के नव पल्ल्व-पुष्प

अमर देवों की वधुएँ चुगती हैं।

और हस्त-पाद छेदन-गिरने की

    उनको कटु अनुभूति होती है।४१।


उसकी सुप्त अवस्था में देवों की

बन्दी योषिताऐं डुलाती हैं चँवर।

बड़े अश्रु-वाष्प बरसाते हुए और

पवन को उठाते श्वास सम।४२।


कभी सूर्य की भयंकर किरण-खुरों

द्वारा क्षुण्ण मेरु-शृंग उखाड़कर।

उसने अपने प्रासादों में कल्पित

बना लिए हैं आनंद-पर्वत।४३।


मन्दाकिनियों में अब मात्र दिग्गज

कामोत्तेजना दूषित जल ही शेष है।

जबकि उस तारक की विलास-तालों में

सदा स्वर्ण-कमल खिले रहते हैं।४४।


अब स्वर्ग-देवताओं को विभिन्न

 लोक देखने में प्रीति है न किंचित

क्योंकि उनके विमान पथ उस

       तारक भय से हैं हो गए निर्जन।४५।


मायावी विद्या-कुशल यजमान-दत्त

यज्ञ-बलियों को वह लेता है हड़प।

    और असहाय से देखते रहते हम।४६।


उस क्रूर के विरुद्ध हमारे

समस्त उपाय हो गए हैं विफल।

जैसे सन्निपात* के जोड़-विकार में

      वीर्यवन्ती* औषधि भी कार्य-अक्षम।४७।


सन्निपात* : ज्वर; वीर्यवन्ती* : अचूक


विष्णु का सुदर्शन चक्र भी,

जिसमें हमारी जय आशा थी स्थित।

अब मात्र उनका कण्ठ सुवर्ण-भूषण बन रह गया,

         जिससे उनके वक्ष से टकराकर मात्र चमक ही गोचर।४८।


अब उसके गज,

जिन्होंने ऐरावत को भी हरा दिया है।

पुष्करावर्तक आदि मेघों के विरुद्ध

भिड़ने का अभ्यास कर रहे हैं।४९।


हे सर्व-शक्तिमान प्रभु
! उस तारक-विनाश हेतु

एक सेनानायक-सृष्टि की इच्छा हम करते हैं।

जैसे मुमुक्षु धर्म गुण वृद्धि हेतु

    कर्म-बंधन काटना चाहते हैं।५०।


उस सुर-नायक को पुरोधा

बनाकर पर्वत-छेदन कर्ता* इंद्र।

शत्रुओं द्वारा बंदी बना ली जयश्री*

को प्राप्त पुनःकर लेंगे हम।५१।


 पर्वत-छेदन कर्ता* : गोत्रभित ; जयश्री* : विजय


जब यह उवाच समाप्त हो चुका,

स्वयंभू ने ऐसी वाणी बोली।

जो मेघ-गर्जना पश्चात वसुधा पर पड़ती,

 वृष्टि से भी अधिक थी सौभाग्यशाली।५२।


कुछ प्रतीक्षा करो, तुम्हारी यह कामना पूरी होगी, परन्तु

इसकी पूर्ति हेतु मैं स्वयं सेनानायक नहीं करूँगा सृजन।

क्योंकि एक समय में उसने मेरा

वरदान किया है उपलब्ध।५३।


इस दैत्य ने यहाँ से श्री प्राप्त की,

यहीं से वह विनिष्ट न होना चाहिए।

जैसे अपने द्वारा लगे विषवृक्ष को भी,

स्वयं काटना अनुचित है।५४।


पूर्व में उस तारक ने मुझसे,

देव-हाथों अमृत्यु स्वतंत्रता-वर प्राप्त किया।

और इससे उसने घोर तप करके, लोकों को

       अग्नि-दग्ध कर्तुम स्वयं को सक्षम बना लिया।५५।


जब युद्ध-आक्रमण वह उद्यत हो,

तो भला कौन सह सकता है?

मात्र नीलकण्ठ अंश ही, उसका

मुकाबला कर सकता है।५६।


वही देव* तमस-व्यवस्था से

पार-गमन सक्षम ज्योति हैं

उसके प्रभाव को न तो मैं,

      न विष्णु जानने में सक्षम हैं।५७।


देव* : शिव


अतः अपने मनोरथ-इच्छुक तुम,

संयम से अडिग उस ध्यान-मग्न।

उमा के असाधारण रूप से विवाह हेतु,

      एक चुंबक सम करो शिव-मन का आकर्षण-यत्न।५८।


केवल ये दो ही
, हम दोनों का

बीज निरूपण* में सक्षम हैं।

वह उमा, उस शिव का और

       उसकी जलमयी मूर्ति मम है।५९।


निरूपण* : ग्रहण


उस नीलकण्ठ का निज ही रूप बालक
,

तुम मेजबानों का सेनानायक बनकर वह।

स्व पराक्रम-विभूति से दुखित बन्दी स्वर्ग-

अप्सराओं की केश-वेणी* करेगा शिथिल।६०।


केश-वेणी* : बंधन


ऐसा उवाच कर
, वह

विश्वयोनि ब्रह्म हुआ अंतर्ध्यान।

और देवता भी स्व-मन व्यक्तव्य

        स्थापित कर, सुरलोक किए प्रस्थान।६१।


परन्तु वहाँ पाक शासक* इस ब्रह्म-इच्छा सिद्धि

हेतु, कन्दर्प* को निश्चित कर उसके पास गया।

       उत्सुकता से उसकी कार्य गति, हो गई दुगुनी।६२।


पाक शासक* : इंद्र; कन्दर्प* : कामदेव


तत्पश्चात कामदेव चारु योषिता-भोंह सम चापाकार

पुष्प-धनुष कण्ठ लटका, रति कंगनों के चिह्न हैं जहाँ।

अपने चिर सखा वसंत का चूतांकुर* धनुष लिए,

शतयज्ञ कर्ता इंद्र के समक्ष प्रस्तुत हुआ।६३।


चूतांकुर* : आम्र-बौर


इति ब्रह्म-साक्षात्कार सर्गः।


(महाकवि कालिदास के मूल द्वितीय सर्ग : ब्रह्म-साक्षात्कार नाम

का हिन्दी रूपान्तरण प्रयास)


पवन कुमार,

१२ सितम्बर, २०१५ समय १५:१९ अपराह्न

(रचना काल १८ से २३ अगस्त, २०१५)






















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