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Saturday 26 September 2015

कुमार-सम्भव : मदन दहन (निग्रह)

कुमार-सम्भव 
तृतीय सर्ग : मदन दहन (निग्रह)
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देवों को छोड़कर उस इंद्र ने,

एक साथ सहस्र नयन डाले कामदेव पर। 

प्रायः गौरव के विषय में प्रभुओं* की दृष्टि

प्रयोजन अनुरूप होती है आश्रितों पर।१। 


प्रभु* : समर्थ

 

 वासव* ने उस कामेश्वर को अपने सिंहासन निकट

आसन-स्वीकृति दी, व प्रेम से 'यहाँ बैठो' कहे शब्द। 

और उसने भी स्वामी-कृपा को सिर नवाँ कर,

गुप्त वार्तालाप सा यूँ कहना किया प्रारम्भ।२।


वासव* : इंद्र

 

हे नर-विशेष गुण-धारक इंद्र ! निज इच्छा की करो आज्ञा

जिसे तीन लोक पृथ्वी, नभ व पाताल में चाहते हो करना। 

तुम्हारी आज्ञा पालन से बढ़े, तेरे द्वारा

मुझे स्मरण से मैं अनुग्रह प्राप्त हुआ।३। 

 

कौन चाह रहा घोर तप द्वारा तुम्हारे पद को

प्राप्त करना, व तुम्हारे प्रतिकार को है बढ़ा रहा?

बोलो, कुछ समय में मेरी धनुष-परिधि में होगा

जिसके ऊपर बाण है चढ़ा हुआ।४। 

 

    कौन तुम्हारी इच्छा बिना

पुनर्जन्म भय से मुक्ति-मार्ग ढूँढ़ है रहा?

सुंदरियों के चतुर चित्तहारी कटाक्षों द्वारा

    उसे इन संसार-बंधनों में ही रहने दूँ खड़ा।५।


कहो, तुम्हारा कौन शत्रु है, चाहे वह स्वयं उशनस

 द्वारा ही धर्म-शिक्षा में अध्यापित ही न किया हो गया?

 मेरे ऐन्द्रिय-दूत राग व आत्म-विकास बाधित कर देंगे

  जैसे प्रवृद्ध प्लुत* सिंधु-तटों को बाधित है कर देता।६।


प्लुत* : बाढ़


किस एक सुंदर नितम्बिनी* की है कामना?

पतिव्रता एवं सयंमित है व जिसका चारु रूप

जो तुम्हारे भ्रमित चित्त में प्रवेश है गया कर।

बताओ, क्या तुम उसे विवश करना हो चाहते

  कि लज्जामुक्त हो तेरे कण्ठ बाहें डाले स्वयं?।७।


नितम्बिनी* : नारी

 

ओ रसिक ! यद्यपि उसके पदनत हो,

तुम बताओ किस कामुक नारी द्वारा,

प्रेम-दीवाना होने से किए हो अस्वीकृत?

उसके शरीर को घोर पश्चाताप में कर दूँगा,

     असहाय सी प्रेम में लेटेगी आ तृण-शय्या पर।८।


ओ वीर ! प्रमुदित हो, अपने वज्र को विश्राम दो,

मेरा कामबाण किस देवरिपु-बाहुबल को विफल न कर देगा?

और वह सुंदर रमणियों के मादक अधर-कोप से न डरेगा।९।


तेरी कृपा से यद्यपि कुसुम-आयुध हुए भी

और वसंत को सहायक बनाकर अपना।

मैं पिनाकी* का भी धैर्य च्युत कर देता

      फिर अन्य धनुर्धरों की बात ही क्या? ।१०।


पिनाकी* : शिव, त्रिशूलधारी हर


तदुपरांत अखण्डल* ने जंघा से टाँग हटा और

पद वहाँ रख हृदयादेश से काम को यूँ कहा।

अपनी संकल्प-शक्ति सम्पन्न की जाने वाली

वस्तु-अनुरूप जिसने कर ली घोषणा।११।


अखण्डल* : सहस्र-नयनी इंद्र


  हे सखा ! तेरे द्वारा सर्व-तत्व हैं सम्भव,

मेरे दो ही अस्त्र हैं - एक तुम, दूजा वज्र।

पर मेरा वज्र तपस्वी वीरों पर है कुण्ठित*

जबकि तेरे अस्त्र निरोधित सर्वत्र जाते हैं

और सर्व-प्रयोजन कर लेते हैं सिद्ध।१२।


कुण्ठित* : निष्क्रिय


तेरी शक्ति जानता हूँ व विचार कर अपने सम

हे मित्र ! अब गंभीर कार्यों हेतु तुम्हें करता नियुक्त।

 पृथ्वी-धारण क्षमता देख जैसे कृष्ण ने शेष नाग को

अपनी देह वहन करने हेतु किया है नियुक्त।१३।


तुमने वार्ता में स्व-बाणगति* द्वारा वृषांक* को भी

साधन-शक्ति कही, तो कार्य पूर्ण हो गया लगभग।

जानो, इस समय शक्तिशाली शत्रु से प्रताड़ित

 यज्ञांश-बाहु देवों का यही लक्ष्य इच्छित।१४।


                बाणगति* : शर; वृषांक* : अंक में है वृष जिसके - शिव            


उस हर के वीर्य प्रभव* अर्थात संतान को देव

शत्रु-विजय हेतु सेनानायक हैं चाहते बनाना।

पर जितात्मा, ब्रह्मांग स्वामी शिव, मन ब्रह्म-स्थापित,

वह मात्र तेरे एक शर से ही साधित हो सकता।१५।

 

प्रभव* : शक्ति


 तुम तपस्वी योगी शिव साध्य करो कि

 वह रूचि लेने लगे हिमाद्र तनुजा उमा में।

क्योंकि योषिताओं में मात्र वही है भव का

       वीर्य-धारण सक्षम, ऐसा आत्मभू ने स्वयं कहा है।१६।


 और नगेन्द्र-कन्या अपने गुरु* के

आदेश से हिमालय के उच्च स्थान में।

घोर-तपस्वी अविनाशी-स्था* की करती प्रतीक्षा,

 ऐसा मैंने सुना गूढ़चर* अप्सराओं के मुख से।१७।


गुरु* : पिता; स्था* : शिव; गूढ़चर* : गुप्तचर


अतः तब जाओ व देवकार्य सिद्ध करो इस,

 यह लक्ष्य अन्य वस्तु से ही प्राप्त है संभव

तुमसे इस उत्तम कारण की इच्छा की जाती

      जैसे बीज-अंकुरण हेतु जल की अपेक्षा प्रथम।१८।


तुम्हारे पुष्पास्त्रों में ही उस शिव पर सुर-विजय

उपाय हेतु शक्ति है, कार्य कर सकते तुम्हीं यह।

 धन्य हो, कार्य करना यद्यपि अन्यों से असाधनीय

      चाहे प्राप्य न प्रसिद्धि, नरों में यश का है कारण।१९।


ये सुरजन तुम्हारे प्रार्थी हैं,

ऐसे कार्य में तीन लोक का कल्याण है।

फिर न किया जा रहा तेरे धनुष द्वारा

कोई अति-हिंस्र कर्म भी

     ओ आश्चर्य ! तुम्हारा बल स्पृहणीय है।२०।

 

मधु* तुम्हारा मित्र है साहचर्य से,

ओ मन्मथ ! चाहे पूछा न हो उससे।

कौन हुताशन* को वात देने हेतु

समीर की अनुमति लेता है।२१।


मधु* : वसन्त; हुताशन* : यज्ञ-अग्नि


तथास्तु, कहकर स्वामी-आज्ञा ले व शीर्ष-नमन

जैसे भेंट में माला दी हो, मदन ने प्रस्थान किया।

ऐरावत गज को प्रेम-स्पर्श से कर्कश हस्त से इंद्र ने

विशेष कृपा हेतु उसकी वपु-स्पर्श किया।२२।


निज प्रिय सखा मधु व रति को
संग ले,

अपनी देह-मूल्य की आशंका पर वह 

      निश्चय कर गया स्थाणु* के आश्रम पर।२३। 


स्थाणु* : शिव

 

उस वन में संकल्प से एक यथोचित स्वरूप में

प्रकट हो मधु, जो विषय है मनोज हेतु गर्व का।

संयमी, मुनि व तप-समाधिस्थों हेतु विपरिस्थितियाँ*

या मन-विचलन प्रयास पैदा करने लगा।२४।

 

विपरिस्थिति* : प्रतिकूल परिस्थितियाँ

जब उष्ण-रश्मि* उचित-ऋतु विपरीत

समृद्ध कुबेर-दिशा उत्तर गमन हुआ प्रवृत।

मनस्ताप आह में दक्षिण दिशा के

मुख से बहने लगी अनिल।२५।


उष्ण-रश्मि* : सूर्य


 या


एक विशेष दयालु किशोरी

अश्रु सहित मुख से संताप-आह निकालती है।

जब उसका एक साहसी रसिक, वचन भंगकर अन्य युवती

   पास जाने लगे, जो किसी अपंग नर द्वारा रखी गई है।२५।


तब अशोक तरु बिना किसी बाह्य सहारे के तुरन्त

स्कन्धों* से नव-पल्ल्वों सहित कुसुम उत्पन्न करता है।

और सुंदरियों के पग बँधे नूपुरों की खनक

सुनने की प्रतीक्षा नहीं करता है।२६।


स्कन्ध* : शाखा


मधुमास ने नव-आम्र के नव-पल्लव

और चारु पत्रों की आकृति में।

कामबाण इस प्रकार निवेशित किए जैसे ये

मनोभव* का नाम है भ्रमर-आकृति में ।२७।


मनोभव* : मनोज


कर्णिकार* पुष्प विशेष वर्णों से आकर्षित करते
,

परन्तु विषाद विषय कि उनमें गंध न होती।

प्रायः विश्वसृजा ब्रह्म की प्रकृति वस्तुओं में,

पूर्ण गुण न भरती।२८।


कर्णिकार* : अमलतास


गहरे रक्त-वर्णी पलाश-कलियाँ बाल-इंदु सम

वक्राकार है, जो पूर्ण खिली नहीं अभी तक।

ऐसे प्रतीत जैसे नर रूपी वसंत ने नखक्षत से चिन्ह

बना दिए, प्रेमिका रूपी वनस्थली की देह पर।२९।


मधुश्री* मुख पर भ्रमर रूपी अंजन से

अति कलात्मक चित्र का तिलक लगाकर, व 

ओष्ट आम्र नव-पल्ल्वों से कर अलंकृत दीप्तिमान ऐसे।

     प्रातः का बाल-अरुण मृदु रक्त-वर्ण से सुशोभित जैसे।३०।

 

मधुश्री* : वसंत-लक्ष्मी


पियाल* वृक्षों के परागकण दृष्टिपात से मृग 

दृष्टि-भ्रमित, पतित पल्लव ध्वनि-मर्मर से।

शोरगुल वनस्थली में मत्त होकर

   पवन वेग विरुद्ध कुलाँचे भरते।३१।


पियाल* : कनियार


आम्र किसलय* आस्वाद से लाल है

नर कोकिल कण्ठ - उसका मधुर कूजन।

मनस्विनी प्रयेषियों का गर्व निर्वाण हेतु

स्मर* का बन गया वचन।३२।


आम्र किसलय* : नव-पल्लव; स्मर* : कामदेव


हिम-ऋतु पश्चात किन्नर-योषिताओं की मुख-छवि कुछ पाण्डु

 व अधर स्वस्थ रसीले हैं, जबकि लाली न लगाई है उन पर।

पुरुष-अंगों से निकला स्वेद अपने चिन्ह 

बना देता है विशिष्ट चित्रों पर।३३।


स्थाणु के तपोवन तपस्वी देखकर

वसंत की मतवाली प्रवृति अकालिक।

 महद प्रयत्न से ही हैं मन-वशीकरण सक्षम,

जिसके भटकाव को दबाना है दुष्कर।३४।


जब वह मदन कुसुम-बाण धारण करके,

रति को सहचरी बना, उस शिव-देश प्रवेश हुआ।

सब जंगम-स्थावर जीव युग्म बनाकर स्व-क्रियाओं से

        स्नेह-रस भाव दिखाने लगे व प्रेम अधिक ही बढ़ गया।३५।


द्विरेफ* कुसुमपात्र में मधु लिए निज प्रिया का

अनुसरण करता व उसी पात्र से पीता है मधु।

कृष्ण मृग निज हरिणी आकर्षण हेतु, शृंग से करता

  प्रेम-स्पर्श, जो आनंदातिरेक बंद कर लेती चक्षु।३६।


द्विरेफ* : भ्रमर


अति-प्रेम वश एक हस्तिनी शीतलता हेतु सूंड में भर,

अपने नर को देती है कमल-पराग से सुगंधित जल।

चक्रवाक निज प्रिया को रिझाने हेतु भेंट करता

  एक कमल-कली, अपने द्वारा अर्ध-खादित।३७।


गीत-मध्य किन्नर पुरुष शोभित मुख चूमते

पुष्प-मद्य से झूमती अपनी प्रियाओं के।

व श्रम से निकले स्वेद गिरने से उनके

 पत्रलेख* किंचित मलिन हो जाते।३८।


पत्रलेख* : चित्र


यहाँ तक कि तरु भी विनम्र शाखाओं से

लतारूपी वधू को करता है भुजबंद।

 जिनके मनोहर ओष्ट स्फुरित नव-पल्लव हैं

    और पर्याप्त पुष्प-गुच्छों से भरे हुए स्तन।३९।


इस वसंत में किन्नर अप्सरा-गीत

सुनते हुए भी, हर परम चिंतन-रत हैं।

आत्मेश्वरों* की समाधि-भंजन में

विघ्न समर्थ हुआ करते न हैं।४०।


आत्मेश्वर* : जितेंद्रिय

 

  तब लता गृहद्वार पर अपने वाम हस्त में

हेम*-दण्ड लिए नन्दी, मुख पर उँगली-संकेत।

गणों का प्रवेश नियंत्रण करता, जिससे

भंग न हो स्थल की शांति उस।४१।


हेम* : सोना


उसके आदेश से सर्व कानन की

गतिविधियाँ चित्र भाँति ही अर्पित शान्त हैं।

वृक्ष निष्कम्प, भ्रमर निभृत*, पक्षियों ने निज-गीत

रोक लिया, और मृगों ने चलना छोड़ दिया है।४२।


निभृत* : मौन


जैसे कोई यात्रा शुरू करते समय

अनिष्टकारी शुक्र ग्रह-क्षेत्र पर दृष्टि न डालता।

ऐसे ही सीधी नजर बचाकर उस कामदेव ने

शिव के विशेष ध्यान-प्रान्त* में प्रवेश किया जो

        सर्वत्र परि-आच्छादित था नमेरु वृक्ष-शाखाओं से।४३।


प्रान्त* : आवास


देवदारु द्रुम-वेदिका में शार्दूल*-चर्म ओढ़े

संयमी त्रियम्बकम* को देख वह काम। 

आसन्न मृत्यु सी को हो गया प्राप्त।४४।


शार्दूल* : व्याघ्र; त्रियम्बकम* : त्रिनेत्र, शिव


 सीधी एवं खिंचित उसकी देह का अग्र-भाग

वीरासन मुद्रा, जबकि द्वि-स्कंध* कुछ झुके से।

और उसके पाणि* ऊर्ध्व दिशा में अंक में

प्रफुल्लित राजीव वहाँ रखे हुए हैं।४५।

 

द्वि-स्कंध*  : दोनों कंधे; पाणि* : हस्त


 उलझी उच्च जटा एक भुजंग से बँधी,

कर्णों से रुद्राक्ष दो माला रही लटक।

कृष्ण-मृग चर्म ओढ़ व उसमें ग्रन्थि लगा, विशेष

       नील-वर्णी प्रभा संग कण्ठ और भी काला रहा दिख।४६।


अस्पन्दित नेत्र नासिका अग्र-भाग पर है लक्षित,

भीषण जिसकी अविचलित पुतली चमकती किंचित।

जो भृकुटि* तराशने की आदत से परे है, जिसकी मोटी

पलक* स्थिर, और दृष्टि अधोमुखी है किंचित।४७।


भृकुटि* : भौं; पलक* : बरौनी


अंतर-श्वास* रोध से न करता अम्बु वाहन

जो प्रतीत होता एक अवृष्टि-मेघ सम।

या एक विशाल सर सम, जिसका अतिरंजित जल

      जैसे अनिल के झोंके से अनावृत निवात* में दीपक।४८।


अंतर-श्वास : वायु; निवात* : शांत स्थान


मृणाल*-सूत्रों से मृदु, भाल के बालशशि से

निकलती प्रकाश-किरणों से वह सुशोभित।

और उसके कपाल पर नेत्रों के मध्य

ब्रह्म-रंध्र* से ज्योति है अंकुरित।४९।


मृणाल* : कमल; इंदु* : शशि; ब्रह्म-रंध्र* : प्राप्त मार्ग


समाधिवश हृदय में मन को ज्ञानेन्द्रियों के

नवद्वार-संचार को वह निषिद्ध* करता है।

जिसको क्षेत्रविद* जानते हैं, अपने को

     अवलोकित कर आत्मा में जानता है।५०।


निषिद्ध* : निग्रह; क्षेत्रविद* : विद्वान


स्मर* उस त्रिनेत्र भूतनाथ को, उस मुद्रा में

दूर से भी आक्रमण करने की सोच न सका।

भय से उसका हस्त सन्न हो गया, वह हाथ से

गिरते कुसुम-धनुष एवं शर देख न सका।५१।


स्मर* : कामदेव


 अथोपरांत 
सखियों संग स्थावरराज* पुत्री

पार्वती के देख अपूर्व दैहिक सौंदर्य को।

लगभग मृतप्राय एवं वीर्यच्युत हुए

      पुन्नर्जीवन सा प्राप्त हुआ काम को।५२।


स्थावरराज* : अचल हिमालय

 

वसंत में कौन पहनाता है पुष्प आभरण?

अशोक पुष्पों में पद्म रंग मणि भाँति दर्शित

कर्णिकार पुष्पों में हेम-पीतिमा का आकर्षण

     चमकते सिन्धुवार कुसुम मोती माला सम।५३।


कौन तरु
णी अर्क* वर्णी वस्त्र

पहनकर स्तन भार से किञ्चित झुकी है?

ऐसे लगती कि सञ्चारिणी* लता है, जो पल्लव व

 स्तन सम पर्याप्त पुष्प-गुच्छ भार से झुकी है।५४।


अर्क* : सूर्य; सञ्चारिणी* : चलती हुई


कौन बकुल पुष्पों की लटकती, नितम्बों से सरकती

मेखला माला को हाथों से पुनः-२ देती अवलंबन?

जैसे यह स्मर हेतु द्वितीय धनुष प्रत्यंचा है

  जो उसने बांध रखी उचित स्थान पर।५५।


सुगंधित श्वास से प्रवृद्ध तृष्णा से एक द्विरेफ* 

मँडराता, उसके बिम्ब से अधरों का सुधापान।

भ्रमित सी विचलित दृष्टि से उसको

    अरविन्द लीला* से रही हटा वह।५६।


द्विरेफ* : भ्रमर; अरविन्द लीला* ; पत्र


उसको देखकर जो
सर्वांग त्रुटि-रहित,

रति भी हृदय में ईर्ष्या को हुई लब्ध

त्रिशूलधारी जितेन्द्रिय* का आदर करते

       वह काम पुनः कार्य सिद्धि को हुआ उद्धत।५७।

 

जितेन्द्रिय* : शिव


उमा ने अपने भविष्य में होने वाले

स्वामी शम्भु के द्वार* प्रवेश किया।

तत्क्षण हर ने योग से स्वयं में परम ज्योति देख,

       जिसे परमात्मा भी कहते, समाधि से ध्यान हटाया।५८।


द्वार* : आवास


तब ईश ने शनै प्राण-वायु बाहर मुक्त की

जिससे उसके नीचे का भूभाग हिल पड़ा।

जिसको भुजङ्गाधिपति* को वीरासन छोड़

बड़े यत्न से फणाग्र पर संभालना पड़ा।५९।

 

भुजङ्गाधिपति* : शेष नाग 


उनको नमस्कार कर नंदी ने सेवाभाव हेतु

शैलसुता उमा के आगमन की दी सूचना।

उसको हर के पास ले गया व प्रवेश मात्र

    भृकुटि-निक्षेप* अनुमति से सम्भव हुआ।६०।


भृकुटि-निक्षेप* : मुद्रा

 

उसकी दो सखियों ने शिशिर पश्चात वसंत के

स्व-हस्त चुनित तृण-पल्लव मिश्रित पुष्प।

त्र्यम्बकम शिव-चरणों में किए अर्पण।६१।


 उमा ने भी सिर नमन कर

वृषभ-ध्वज शिव को किया प्रणाम।

जिससे उसके कर्ण-सज्जित पल्लव गए गिर नीचे

   व जूड़े लगे ढ़ीले हो गए नूतन पुष्प-कर्णिकार।६२।


भव ने उसको तथ्य बताया कि तुम्हें मिलेगा

ऐसा पति, जिसे अन्य स्त्री में न होगी प्रीति।

 महापुरुष-कथन का लोक में विपरीत

अर्थ लिया जाता नहीं कदापि।६३।


काम इसको शर-साधन का उचित अवसर जान

जैसे पतंगा अग्नि* में जाने की प्रतीक्षा करता है।

बारम्बार हर को लक्षित कर निज धनुष-प्रत्यंचा

चढ़ाता है, और उसके समक्ष उमा है।६४।


अग्नि* : दीपक


तब गौरी ने तपस्वी गिरीश को

मंदाकिनी* में उगे व सुखाए भानुमति*-किरणों से,

ताम्रवर्णी पुष्कर* विटपों* की माला की भेंट।६५।


मंदाकिनी* : गंगा; भानुमति* : सूर्य; पुष्कर* : कमल; विटप* : बीज

 

जैसे ही त्रिलोचन प्रियों हेतु प्रणय* से

वह माला ग्रहण करने हेतु हुए उद्यत।

तत्क्षण पुष्प-धन्वा* ने सम्मोहन नामक

 चढ़ाया एक अमोघ शर धनुष पर।६६।


प्रणय* :  प्रेम; पुष्प-धन्वा* : कामदेव


चन्द्रोदय पर जैसे अम्बुराशि* मारता ज्वार,

तथैव हर का भी धैर्य लुप्त सा हुआ किंचित।

 जब उसने दृष्टि डाली उमा मुख पर जिसका 

अधर-ओष्ट था जैसे बिम्बफल।६७।


अम्बुराशि* : सागर


शैलसुता ने भी अंग छिपा लि
 भाव-भंगिमा से

जैसे बाल-कदम्ब पुष्प अग्र स्फुरित तंतुओं से।

उसका साची* मुख था चारुतर और

विचलित नयन लज्जा से।६८।


साची* : अर्ध-छिपा

 

अयुग्मनेत्र* ने इन्द्रिय-क्षोभ* को

तब पुनः बलात स्व निग्रह किया।

अपने चित्त-विकृति कारण ढूँढने हेतु

उसने सर्व-दिशा दृष्टिपात किया।६९।

 

अयुग्मनेत्र* : त्रिनेत्र; इन्द्रिय-क्षोभ* : विचलन

 

तब उसने मनोभव* देखा, जिसकी बन्द मुष्टि

लगी थी बायीं आँख पर, स्कन्ध आगे को नत।

और पीछे खिचे हुए पद, अपने चारुचाप* को

एक चक्र में खींच लक्ष्य-भेदन को उद्यत।७०।


मनोभव* : कामदेव; चारुचाप* : धनुष


तप-विघ्न से उनका मन प्रवृद्ध क्षोभित हो गया,

क्रोध से नेत्र-भृकुटि तनी, मुख असहनीय हो गया।

सहसा अग्नि स्फुरित हो गई, उनके तृतीय नेत्र से

और अग्नि की होने लगी वर्षा।७१।

   

व्योम में विचरते मरुतों ने जब तक 'हे प्रभु !

निज क्रोध शांत, शांत करो' का क्रंदन किया।

तब तक भव के त्रिनेत्र से जन्मी वह्नि* ने

उस मदन को भस्म कर दिया।७२।


वह्नि* : अग्नि


और रति जो उस मुहूर्त खड़ी थी, 
स्व भर्ता-नाश से अज्ञात

तीव्र असहनीय प्रभाव से इन्द्रिय-शून्यित, हो गई मूर्छित।

यह किंचित उसके ऊपर उपकार ही था, क्योंकि

पीड़ा असहनीय होती यदि रहती जागृत।७३।


जैसे इंद्र वज्र वनस्पति शीघ्र नष्ट कर देता, ऐसे ही उस

तपस्वी आशु* ने तप-विघ्नकर्ता मदन का नाश कर दिया।

फिर वह भवपति अपने गणों संग स्त्री-सान्निध्य से

 दूर रहने की इच्छा लिए दृष्टि-ओझल हो गया।७४।


आशु* : शिव


शैलात्मजा पार्वती भी प्रसन्न पिता की अभिलाषा व

अपनी ललित देह व्यर्थ जान और भी गई लज्जालु हो।

क्योंकि यह दो सखियों समक्ष घटित हुआ, अपने भवन

        किसी प्रकार गमन किया, जैसे कोई शून्य-भाव हो।७५।      


हिमाद्र ने भव*-क्रोध से भीत आँखें मींचे अनुकम्पा योग्य

दुहिता को, तभी अपने अंक ले पथ में संग भरे कदम।

जैसे दंत से कमल पकड़ अति-वेग में सुरगज अपनी

देह पूर्ण खींच कर गतिमान होता है पथ पर।७६।


भव* : रूद्र


अथ श्री कालिदासकृतौ कुमारसम्भवे महाकाव्ये मदनदहनो (निग्रहो) नाम

तृतीय सर्ग का हिंदी रूपान्तर।


पवन कुमार,

२६ सितम्बर, २०१५ समय २३:४८ म० रा०

(रचना काल २३ अगस्त से ४ सितंबर, २०१५)

      

2 comments:

  1. आभार एवं धन्यवाद! सुंदर सरलार्थ हेतु

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