उत्प्रेरण-विधा
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वर्तमान अनूठे असमंजसता-पाश में, अबूझ हूँ जानकर भी
कैसे खेऊँ नैया, पार दूर, अकेला, फिर हिम्मत खण्डित सी।
सकारात्मक मन-मस्तिष्क धारक, तथापि अनिश्चितता घेरे
विवेक प्रगाढ़ न हो रहा, नकारात्मकता आकर है झिझकोरे।
वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद - उन्मुक्तता
वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद - उन्मुक्तता
सब ऊल-जुलूल बोलते, मानो जीवन की यही परिणति यहाँ।
भेजा गया कुछ इस आशा से, विभाग के नाम में होगा लाभ
अपने कर्म, विचार-शैली से, परियोजना को बढ़ाऊँगा अग्र।
सभी महारथी-ज्ञानी बनते यहाँ, कुछ तो बिल्कुल दयनीय
कुछ तव मुख ताकते, माना समस्त शक्ति तुममें समाहित।
उद्वेलित क्षुद्र-घटनाओं से, माना बाह्य न अति-प्रतिक्रिया
मनन सतत संचालित रहता, विभिन्न पहलुओं को देखता।
निर्णय लेने में समर्थ होते भी, अपने को असहाय सा पाता
कुछों के शंकालु होने से, अवश्यम्भावी है प्रभाव पड़ना।
माना कोई योग नहीं है, अब तक कृत कार्य-कलापों में
तथापि अब प्रथम, अतः सहभागी होता जा रहा शनै-२।
करो निज-मूल्य सशक्त, त्रुटि न हो कर्त्तव्य - निर्वाह में
मात्र उत्तम कार्य ही सम्बल देंगे, वही अपेक्षित तुमसे।
सभी से एक रिश्ता बनाओ, जिम्मेवारी और आदर का
बने सब एक दूजे के साथी, और परस्पर अनुभूति का।
नहीं हों मात्र पर-छिद्रान्वेषी ही, सुधार में सबका विश्वास
यदि आवश्यक हो तो बल भी, ध्यान में ला करो स्थापित।
अनन्त-शक्ति पुञ्ज हो, क्षीणता कदापि न करो स्वीकार
निज-शौर्य अंश-दान अन्यों को भी, प्रबल रक्त-संचार।
जीवन जीने का नाम व समझना इसको भली-प्रकार से
कर्त्तव्य हर पर नज़र हो, और कहीं कुछ छूटा न जाए।
निडर बनूँ प्रबल-मन संचालक, सदा दृढ़ता से हो बात
निज-कार्य निपुण हो सदा, औरों को समझाने का हुनर।
माना अन्य भी जानते होंगे, तुम स्व-विद्या में बनो प्रवीण
जग अपरिपक्व ज्ञान को आलोक दो, ताकि राह सुगम।
निज निष्ठा-कर्मठता से, जग में एक उत्तम छाप छोड़ो
माना सब कुछ न हाथ स्व, इतने भी असहाय नहीं हो।
बनाओ और सबल स्वयं को, दुर्बलता-भाव ही न आए
किञ्चित स्वस्थ मन-स्वामी बनो, निज-गुण जोड़ते जाए।
परम-युक्त में ध्यान सदा, निस्सन्देह बनो संकट-मोचक
अभय दो सह-कर्मियों को, गतिविधियाँ करो उचित-दक्ष।
अपनी श्रेष्ठता को सबमें बाँटो, तभी तो होगी उसमें वर्धन
सम्पूर्णता में और अधिक चाशनी, चहुँ ओर हो प्रकाशित।
माना यश-गान न अभिलाषा, जग-पार गमन महद लक्ष्य
कटे सब फंदे निम्नता के, मनुज के काले-कलाप, असत्य।
प्राणी-दुर्बलताओं से उठकर, सर्व-विकास का सागर-मंथन
प्रक्रियाऐं-साधन सब उचित होऐं, स्वयं-सुधार एक उत्प्रेरण।
मेरे मन के प्राण-पखेरू, लगा उत्तुंग उड़ान एक दूर गगन
देख अतीव दूर-दृश्य अद्भुत, विकास फिर क्यों न संभव?
ले संग उचित-मनन व कार्य-शैली, क्षमताओं में सतत वृद्धि
जीवन-उन्मुक्तता सन्देश जीवियों को, बृहत कल्याण दृष्टि।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
२ अक्टूबर, २०१६ समय १९:०३ सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०. ०९. २०१४ समय ८:४० प्रातः से)
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