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Sunday 25 December 2016

दर्शन-यथार्थता

दर्शन-यथार्थता
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कैसा जहाँ हम बनाना चाहते, सोच का ही है खेल 
जो भी यहाँ अच्छा-बुरा जैसा है, सब है मानव-कृत। 

क्या सोचते हम परिवेश हेतु, जो हमारा आवास है 
कितनों  व क्या सबको, उसमें सम्मिलित करते ? 
अपने जैसों से सम्पर्क साधते, अन्यों को रखते बाहर 
स्वार्थ निज साधन सबके, व फिर जमाते अधिकार। 

कैसे संग्रह कुछ द्वारा, जब सब कुछ है प्रकृति-दत्त  
पृथ्वी पर जन्म लेने का अर्थ तो, भागीदारी है समस्त। 
कैसे कुछ वैभवशाली बनते, अन्य अनेक पिछड़ जाते 
भौतिक-स्थिति में अति-अंतर, यदा-कदा संग्राम होते। 

यह मेरा व तूने उठाया, निश्चित ही है अपराध महद  
मेहनत का यह परिणाम है, तू मुफ्त में चाहता मगर। 
एक बड़े ध्यान से कार्य करे, दूजा काम से दिल चुराए 
ईर्ष्या  करें  या भाग्य कोसें, या अपराध-प्रवृत्ति पाले। 

शरीर-मन स्थिति में असल, सबका पृथक  व्यवहार 
कुछ की रूचि इसमें-उसमें, अन्यों का और विचार। 
कुछ निज-प्रेरणा से इंगित, अन्य चिन्हित रास्तों पर 
अलग श्रम व ईनाम भिन्न, लाभ भी है तथैव वितरित। 

फिर किसी के पास अधिक उपलब्ध संसाधन-वस्तुऐं 
अन्य किन्हीं अल्प से ही, अपना जीवन यापन करते। 
शनै वर्धित अंतर उनमें, भौतिक-स्थितियाँ होती भिन्न  
प्रयोग तब अमीर-वस्तुओं का, अन्यों से और पृथक। 

अभिमान प्रकट नव-धनाढ्यों में, अन्यों को समझे निम्न 
कुछ यदि उन्नति भी चाहें, उसमें बाधा करते उत्पन्न। 
समकक्ष जन अपने दल बनाते, और अन्यों से स्पर्धा  
निर्बल मात्र निज-दैव कोसते, व करते लाचार गुजारा। 

तब सुख-तृप्ति हेतु, उनको सेवकों की आवश्यकता 
कुछ निरीहों को पकड़कर, बनाते हैं दास-सेविका। 
संघर्ष अल्प करणार्थ, कुछ मृदु-भाषी चतुरों को साथ  
जो वाक-पटुता से, करते अन्य-दलों को सन्तुष्ट प्रयास। 

समस्त कलाप शुरू, सामान्यों को रखने स्थिति निम्न 
     युग्म मधु-सोम, मात्र नशे में रखना चाहते फँसा कर।    
वे अल्पज्ञ भ्रमित, तथाकथित ज्ञान के व्यूह-पाशित  
कर्म-काण्ड व अंध-विश्वास लिप्त, व्यर्थ जीवन फिर। 

समस्त दर्शन व ज्ञान उपलब्ध की निज प्राथमिकताऐं  
कुछ सज्जन समदर्शी भी, पर अन्य स्वार्थों को बढ़ाते। 
कुछ का हित-साधन-स्वयं को परितोषिक, यही दर्शन 
बाह्य आवरण-आभास मृदुता से, अन्यों को भी लाभ।  

किन्हें रखना किनकों हटाना, किसको क्या देना ज्ञान 
इसका निर्धारण चतुर करते, अल्पज्ञ रहते जन-आम। 
बड़े-संघ, महद-चर्चाऐं, निश्चित ही समर्थ बल-वर्धन   
भला होता यदि सर्व-हित, लाभ भी बँटता सार्वजनिक। 

जीवन-विस्तार को, एक ज्ञान ही प्रेरणा-वाहक, संवर्धक 
अगर वह भी अनुचित, तो कैसे विकास-सुदर्शन संभव? 
मृदु-चित्त समझते सब, षडयन्त्र-स्थापन का घोर-विरोध 
झंडेवाले आते झुठलाने को, यथा-स्थिति रखने पर जोर। 

दार्शनिक हित साधते समर्थों का, तावत ही पाते सम्मान  
आम जन की क्या बात, अल्पज्ञान से व्यूह न पाते फाँद। 
यदि उनको भला भी लगता, तो भी न निम्न-स्थिति उबार  
आध्यात्मिक ज्ञान विकास से, कुछ तो अवश्य ही बाहर। 

चिंतक चिंतन करें यदि सर्वहित-सुख, तो निश्चयेव श्लाघ्य  
यदि वह नितांत भ्रामक-स्वार्थी, कितना विकास सम्भव ? 
आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने की बहु-आयाम लाने की पहल
सुविद्या-ज्ञान प्राप्त सभी को, तथापि प्रचलित कुछ प्रपंच। 


पवन कुमार, 
२५ दिसम्बर' २०१६, समय १८:४० सायं  
(मेरी डायरी दि० ५ जुलाई, २०१४ समय ११:५५ मध्याह्न से)

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