सावधान
कुशलता इसी में है, कुशल कार्य करो
महानता इसी में है, महान कार्य करो।
तुम क्या जानो कार्य करने में कष्ट होता है
अच्छे परिणामों के लिए रातें जलानी पड़ती है।
केवल खुश-फहमी में क्या कुछ हुआ है
एक अनुसन्धान हेतु हज़ारों-लाखों प्रयोग हुए हैं।
तुम क्यों बिना शुरू किए ही हार मान जाते हो
क्या ऐसे ही किसी को पूर्णता का दर्ज़ा हासिल हुआ है ?
जीवन में कुछ पाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी ही
व्यर्थ कलह, चिंता, शोक से तो कुछ अच्छा न निकला है।
क्यों मानूँ ऐसा कुछ किया जो किसी श्रेणी में रखने योग्य है
क्या किसी तुला में बैठने की मेरी उपयुक्तता है।
या लगभग बराबर है जगत में आना या न आना
या कुछ मेहनत से दर्ज़ा कुछ बढ़ जाएगा।
विद्या, स्वाध्याय व क्रिया-योग से मुक्ति मिल सकती है
पर मैंने तो इस दिशा में मात्र देखने की कोशिश की है।
प्रयोग तो अभी सोचे तक न हैं
फिर इस छोटे से जीवन में कैसे गुजर होगा।
क्या आशाऐं बांधी जा सकती है स्वयं से
कब अर्जुन विडम्बनाओं से पार जा सकेगा?
कब वह कृष्ण गीता-पाठ पढ़ाएगा
और हृदय में आकर प्रेम-बाँसुरी बजाएगा।
कब माँ सरस्वती आकर ज्ञान-दान देगी
कब दक्षिणा-मूर्ति निज विवेक से आकर्षित करेगा?
कब उन राहों पर चलने में सक्षम हूँगा
जिन पर बहुदा महान जन चला करते हैं।
कब अपनी कमजोरियों पर विजयी हूँगा
कब उस महावीर भाँति जितेन्द्रिय बन सकूँगा?
कब यह वाणी ह्रदय का अनुसरण करेगी
और कब मुझमे सब हेतु रोशनी जलेगी ?
कब मन, कर्म, वचन एक जैसे होंगे
कब एक जिम्मेवार, विश्वनीय जीव बन सकूँगा ?
कब जग-कष्टों में से एक भी कम करने में सक्षम हूँगा
और कब निज क्षुद्र-दुनिया से उठ सबका बन सकूँगा ?
कब मुझे अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण-ज्ञान होगा
और कब वरिष्ठों में कुछ स्थान बना सकूँगा ?
कब इस हृदय से वितृष्णा-ज्वाला बाहर निकलेगी
और कब बुराईयों में आनंदित होना छोड़ दूँगा?
कब जरूरत-मंद परिवार की सहायता में सचेत हूँगा
कब बुज़र्ग माँ-बाप की सेवा में अडिग हूँगा ?
कब उनके दिल को कोमल वाणी से सुख दूँगा
और कब उनके आशीर्वाद का पात्र बन सकूँगा ?
केवल ऊँचा बोलकर कुछ भी न पाया जा सकता
ह्रदय को जीतना ही दुष्कर कार्य है।
जब उनको लगेगा कि सत्यमेव इस योग्य हूँ
वे भी अपने व्यवहार में कुछ कसर न छोड़ेंगें।
अनंतता के दौर में एक अवसर मिला बहने का
पहचान बनाने का व समय पर स्व छाप छोड़ने का।
यूँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो कुछ हो न सकेगा
यूँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो कुछ हो न सकेगा
सफलता का वही पुरा-रहस्य मात्र 'परिश्रम' व 'बुद्धि' ही है।
जन्म मिलता न बारंबार और मिलता भी तो पता नहीं
कुछ इस विषय में दावा भी करते लेकिन मेरी समझ से परे।
इतना अवश्य कि यदि इसी जीवन में मूल उद्देश्य समझ जाऊँ
तो शायद दुनिया में आना सफल हो जाएगा।
बहुत बार बात की है मैंने इस विषय में
कई बार शायद मंज़िल के निकट भी आया।
लेकिन जैसे पाठ याद करने में नितत अभ्यास चाहिए
अतः अनवरत अभ्यास करने की आवश्यकता है।
जैसे कि पूर्व बताया चीजें इतनी आसान भी न होती
फिर यह विषय ऐसा, मनीषियों ने पूरी ज़िन्दगी लगा दी।
फिर मैंने तो मात्र सोचा ही है
और अभी से मानो निश्चिन्त हुए लगते हो।
आपत्ति नहीं निश्चिन्त हुए देखकर भी
लेकिन अधिक प्रसन्न होता जब जिम्मेवार भी दिखते।
तब मंज़िल पाने के तमाम सामान जुटाने लगते
जिनसे निश्चय ही मंज़िल सुलभ है।
इस वर्ष का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है निर्मल वर्मा
व पंजाबी लेखक हरबंस सिंह जी को
इनमें से एक वर्मा जी को मैंने थोड़ा सा पढ़ा है।
उनका मानव के अंतः तक जाने का तरीका
और परिष्कृत हिंदी-भाषा निश्चय ही प्रभावित करती।
इस वर्ष का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है निर्मल वर्मा
व पंजाबी लेखक हरबंस सिंह जी को
इनमें से एक वर्मा जी को मैंने थोड़ा सा पढ़ा है।
उनका मानव के अंतः तक जाने का तरीका
और परिष्कृत हिंदी-भाषा निश्चय ही प्रभावित करती।
उनके ही भाई हैं रामकुमार वर्मा
जो बहुत बड़े, जाने-माने चित्रकार हैं।
'नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट्स' में कई चित्र देखें हैं उनके
और सत्य ही प्रशंसनीय हैं।
लेकिन अपनी क्या कहूँ जो अनाड़ी है हर क्षेत्र में
कुछ चीज़ों का अध-कचरा ज्ञान ही मस्तिष्क की जमा-पूँजी।
वह भी शायद अच्छी अगर दैनंदिन वृद्धि करते जाऊँ
पर जितना अपेक्षित है उतना कर नहीं पा रहा हूँ।
क्या नहीं देखते एक-2 ईंट से महल बन जाता
और एक-2 बूँद से सागर बन जाता है।
एक-2 रहस्योद्घाटन से मूर्ख ज्ञानी बन जाता
और एक-2 कदम से लोग कहाँ से कहाँ पहुँच जाते।
फिर क्या रहस्य है इस सब संवाद का
शायद निज प्रति ईमानदारी इस दिशा में पहला कदम है।
मुझे तो फिर अपने मन की कुछ थाह नहीं है
कि यह मुझे कहाँ से कहाँ ले जा सकता है।
निपट अज्ञानी सा बना रहकर जीने में पीड़ा होती है
सच्चा गुरु कहाँ से ढूँढूँ जो कान पकड़ चलना सिखा दे।
जो कठिन से कठिन डगर में भी मुस्कान दे दे
और फिर अपने पैरों पर खड़ा रहने की हिम्मत दे।
'स्वयं-सिद्धा' एक शब्द है सुना, प्रयोग किया करो
स्वयं के अनुभव से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है।
फिर जो भी आस-पास, कुछ उचित-बुद्धि प्राणी हैं
उनसे भी सन्मार्ग की शिक्षा लिया करो।
विषय परखना सीखो व फिर विश्वास करना
स्वयं पर विश्वास करो व अपने ढंग से जीना।
इससे पूर्व कि अन्य प्रभाव डालें, निज क्षेत्र शक्ति-शाली करो
हालाँकि अच्छा गुण-ग्राही बनने में कोई आपत्ति नहीं है।
फिर तुम्हें अपने से कैसी आशा है
यह शायद तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर देगा।
हाँ यदि कहूँ खुद पर विश्वास है, विश्वास है, विश्वास है
और कठिन परिस्थितियों में भी स्वयं के संग जी सकता हूँ
तो निश्चय ही कुछ विश्वास के योग्य हो।
तो मुस्कुराना सीखो, खीझना छोड़ो व व्यवहार उचित करो
तब तुम सभी के होंगे और सब तुम्हारे।
फिर अपने-पराए का भेद निकल जाएगा
समस्त जग की ज्ञान-राशि कर्म-क्षेत्र होगी।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
28 जून, 2014 समय 19:10 साँय
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 11फरवरी, 2001 समय 01:05 बजे म० रा० से)
निपट अज्ञानी सा बना रहकर जीने में पीड़ा होती है
सच्चा गुरु कहाँ से ढूँढूँ जो कान पकड़ चलना सिखा दे।
जो कठिन से कठिन डगर में भी मुस्कान दे दे
और फिर अपने पैरों पर खड़ा रहने की हिम्मत दे।
'स्वयं-सिद्धा' एक शब्द है सुना, प्रयोग किया करो
स्वयं के अनुभव से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है।
फिर जो भी आस-पास, कुछ उचित-बुद्धि प्राणी हैं
उनसे भी सन्मार्ग की शिक्षा लिया करो।
विषय परखना सीखो व फिर विश्वास करना
स्वयं पर विश्वास करो व अपने ढंग से जीना।
इससे पूर्व कि अन्य प्रभाव डालें, निज क्षेत्र शक्ति-शाली करो
हालाँकि अच्छा गुण-ग्राही बनने में कोई आपत्ति नहीं है।
फिर तुम्हें अपने से कैसी आशा है
यह शायद तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर देगा।
हाँ यदि कहूँ खुद पर विश्वास है, विश्वास है, विश्वास है
और कठिन परिस्थितियों में भी स्वयं के संग जी सकता हूँ
तो निश्चय ही कुछ विश्वास के योग्य हो।
तो मुस्कुराना सीखो, खीझना छोड़ो व व्यवहार उचित करो
तब तुम सभी के होंगे और सब तुम्हारे।
फिर अपने-पराए का भेद निकल जाएगा
समस्त जग की ज्ञान-राशि कर्म-क्षेत्र होगी।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
28 जून, 2014 समय 19:10 साँय
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 11फरवरी, 2001 समय 01:05 बजे म० रा० से)
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