विरह-स्मृति
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रात का सन्नाटा है, नींद भी नहीं आ रही है
सर्दी का फिर आलम है, ऐसे में तू कहाँ है ?
कितना अकेला हो जाता हूँ बिन तेरे
जैसे लगता है शरीर से आत्मा निकल गई।
साँसे तो फिर चलते ही रहती हैं
लेकिन जीने में जीवन का स्पन्दन कहाँ ?
महफ़िलें तो बहुत सजती हैं, पर अपने लिए यह सुख कहाँ
रूखा सा यह जीवन है, इसमें जीवन की हरियाली कहाँ ?
मैं तो शायद सूखे ठूँठ सा खड़ा हूँ
पवन की हिलौरों की गुदगुदाहट का अहसास कहाँ ?
जब तू पास होती है तो लगता है जीवन यहीं है
लेकिन अब तो यह अहसास भी नहीं है।
जब तू अपनी बात कहती है मीठे अन्दाज़ से
तो दिल को अंदर से चैन मिल जाता है।
मैं फिर कवि भी नहीं कि अपने हृदय को प्रस्तुत कर दूँ
लेकिन यह सत्य है कि बहुत उदास हो जाता है बिन तेरे।
साँसों का चलना, घड़ी का टिक-टिक करना सब एक जैसा है
जैसे समय बिताने के लिए ही कर्म किया जा रहा है।
तुम्हारी सुनहली यादों में शायद खोना चाहता हूँ
परन्तु वह डूब जाने की हिम्मत नहीं।
तुमसे बतियाने को बहुत दिल करता है
लेकिन वह हिम्मत और दिलेरी ही नहीं।
मैं फिर क्या हूँ जो तेरा नाम भी ठीक से नहीं ले पाता हूँ
अपने और तुम्हारे रिश्ते की दृढ़ता को देख नहीं पाता हूँ।
बस यूँ चले जा रहा हूँ मानो पैरों का कर्म करना है
और मन में काव्यात्मकता की अनुभूति नहीं है।
फिर क्या हूँ और क्या लिखे जा रहा हूँ
कुछ बात भी है या सफे काले किए जा रहा हूँ।
या फिर मन की बात को लिख नहीं पा रहा हूँ
या सोने को बेताब दिमाग का बोझ ढोए जा रहा हूँ।
मैं अभिन्नों को भी अपना कहने में हकला रहा हूँ
और फिर उन्हीं की रिक्ति में रुदन कर रहा हूँ।
कष्ट की पीड़ा-अहसास बहुत अंदर तक गया है
स्वयं में से अपने को ढूंढने का प्रयास कर रहा हूँ।
संसार में सब कुछ है पर मैं पूर्ण निश्चित नहीं हूँ
अपने बारे में भी भ्रमित हूँ फिर दुनिया तो बहुत बड़ी है।
उस पर तुमसे बिछुड़ने का गम है
लेकिन मिलने की घड़ी अब ज्यादा दूर नहीं है।
तेरे नाम से ही इस सफे को बंद करता हूँ
आशा करता हूँ कलम कुछ अच्छी रचना शुरू कर देगी।
पवन कुमार,
3 जुलाई, 2014 समय 23:18 रात्रि
( मेरी शिलोंग डायरी दि० 16 नवम्बर, 2000 समय 00:03 म० रा० से )
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