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Thursday 10 July 2014

कुछ संस्मरण शिलोंग

कुछ संस्मरण शिलोंग  
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कई दिन की कशमकश के बाद फिर हिम्मत करके कलम उठाई है। वास्तव में यह डायरी कई दिनों से या कहिए कि उषा और सौम्या के दिल्ली जाने के दिन से ही पास रखी मेज़ पर रख दी  गई थी।  वह दिन शुकवार था और अगले दो दिन छुट्टी के थे अतः यह सोचा था की काफ़ी समय मिलेगा कुछ लिखने के लिए, कुछ बतियाने के लिए। परन्तु शायद मैं भी यह मानने लगा हूँ कि हर चीज़ के लिए एक उपयुक्त समय होता है और वह चीज़ उसी के अनुरूप होती है। वास्तव में डायरी लिखने के विषय में तो मैं यह निश्चय से कह सकता हूँ क्योंकि मैं इसमें अनियमित रहा हूँ। यह शायद नहीं होता जब तक एक प्रबल इच्छा न हो और मैं बतियाने के लिए कुछ होते हुए भी उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाता। 

फिर आज अब या फिर उन तमाम क्षणों में जब मैं अकेला होता हूँ, इस मेरे सिवाय इस दुनिया में कौन पास होता है? यह मैं ही तो हूँ जो इस शरीर के साथ जिए जा रहा हूँ और घड़ी की टिक-टिक के साथ इस ज़िन्दगी को उसके अंतिम मुकाम की ओर शनै-शनै आगे ले जा रहा हूँ। यह भी मैं ही हूँ जो कदाचित व्यर्थ के संवादों में उलझा रहता हूँ या फिर कई बार दूसरों के विषय में कुछ बुरा कहने में आनन्दित होता हूँ या फिर अपने मन के क्लेश या संशय को रोषपूर्ण शब्दों से या दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ या फिर मन ही मन में स्मरण करके स्वयं को व्यथित करता हूँ। या फिर तनिक अधिक चतुर बनकर केवल दूसरों के लिए नियमों का पालन कराने में अधिक आनन्दित होता हूँ। या फिर अपनी कमज़ोरी पहचान कर स्वयं को और फिर अन्यों को भी लाचार सा बर्दाश्त करता हूँ और चुपचाप चलता जाता हूँ। या फिर हिम्मत करके टोका-टोकी के द्वारा 'जब तक जीवन है -आशा है' के सिद्धान्त से चीज़ों को ठीक करने की कोशिश करता हूँ। यह कोशिश शायद ख़ुशी प्रदान करती है परन्तु इच्छा के अनुरूप फल न पाकर तनिक अवसाद भी अनुभूत होता है।

मैं अपने कार्यालय में मध्यम दर्ज़े का अफ़सर हूँ। कार्यालय में वाँछित स्टाफ़ से कहीं कम यहाँ आसीन हैं। इस अंचल में कार्य का भार अपने आकार से कहीं अधिक है और लगभग हर दिन एक या अधिक कार्य की अनुमति मिल ही जाती है।  क्षेत्र स्टाफ भी अपना पूरा ज़ोर लगाकर कार्यों को ठीक तथा समय से कराने में अधिकतर असमर्थ होता है परन्तु फिर भी उनके पास स्टाफ लगभग पूरा होता है क्योंकि लोग योजना शाखा में आसीन होने की अपेक्षा क्षेत्रो में आसीन होना ज्यादा पसंद करते हैं। चूँकि मेरे पास अधीक्षण इंजीनियर (योजना) के तीन में से दो इकाईयों का भार है, कार्य करवाना अत्यन्त कठिन हो जाता है और उस पर वरिष्ठ अधिकारियों का कार्यों के परिणाम शीघ्र-अति-शीघ्र प्रस्तुत करने का निर्देश, और मुश्किल बना देता है। इसके अलावा स्वयं भी जब बहुत अधिक कार्य अधूरे हों तो मन में क्षोभ सा होता है और स्वयं की कार्य-क्षमता पर यदा-कदा प्रश्न-चिन्ह सा लगा महसूस होता है।

उषा और मेरी प्यारी बेटी सौम्या 24 सितम्बर को नई दिल्ली से गुवाहटी आए थी और उनको लेकर मैं 30 तारीख को शिलोंग पहुँचा था। उसके बाद वे यहाँ पर लगभग एक महीना रहें और इसी 26 अक्तुबर को दीवाली के दिन में उनको 27 की सुबह राजधानी एक्सप्रेस में बैठाने गुवाहटी गया था। वह दिन दीवाली का था, गुवाहाटी में गेस्ट-हाउस (CPWD जू -नारंगी मार्ग) में रुके थे। वहीँ पर कॉलोनी में रह रहे श्री नीरज मिश्रा, अधीक्षक अभियंता (असम केंद्रीय परिमंडल-2), अनुराग गर्ग और निर्मल गोयल, जो वहां पर आए थे, के साथ दीवाली मनाई। मतलब कि सौम्या ने बच्चों के साथ पटाखे छुड़ाऐं और हमने खड़े होकर मज़ा लिया। इसके अलावा श्री अग्रवाल (सि० सि० विंग, आकाशवाणी) के सहायक अभियंता वहाँ पर आएं. वे मेरे साथ लोक नायक भवन में कनिष्ठ अभियंता थे और उन्होंने प्रोन्नति पा ली थी तब मुझे विभाग में नियुक्ति का लगभग 1 वर्ष हुआ था। मिश्रा जी का लड़का विजय जो पिछले दिनों किसी ज्वर से ग्रसित था, अब काफी स्वस्थ लग रहा था। अनुराग का लड़का केशो जो लगभग तीन वर्ष का है, काफी चपल और प्यारा लग रहा था। सौम्या भी दीवाली की ख़ुशी में काफी उत्साहित थी। वास्तव में उसकी ख़ुशी के लिए हमने 25 तारीख को ही यहाँ शिलोंग में दियें तथा मोमबत्तियों के अलावा थोड़ी मिठाई का प्रबंध किया था और आसपास के तथा कार्यालय के कुछ स्टाफ को घर बुलाया था। उस दिन यहाँ शिलोंग में मेघालय स्टूडेंट्स फेडरेशन ने बंद का आव्हान कर रखा था जिससे पूरी तरह से जनजीवन ठप्प था। केवल शाम को कुछ दुकानें खुली और पास नीचे से कुछ मिठाई और सौम्या के लिए कुछ पटाखे ख़रीदे क्योंकि वह दीवाली के दिन घर पर न रहने के कारण काफी दुखी थी अतः उसी क्षति-पूर्ति के लिए 25 को ही छोटा सा आयोजन कर लिए गया। उषा ने पकोड़े और चाय बनाई। पास की मिसेज बैद्य तथा काकोती ने इसमें मदद की। वास्तव में यहाँ पर पास में रहने वाले सचमुच बहुत अच्छे हैं।

जब उषा और सौम्या यहाँ थी तो पूरा दिन घर में लोगों की चहल-पहल रहती थी। उषा कुछ न कुछ सीखती है और दूसरों को भी सिखाती है। उदाहरण के लिए इस बार वह कई दिनों तक हमारे कार्यालय अधीक्षक श्री चन्द्र कुमार गुप्ता की बेटी से कढ़ाई तथा टेडी बीयर नुमा खिलोने बनाना सीखती रही।  पिछली बार गर्मियों में आई थी तो मि० तथा मिसेज बैद्य से नकली फूल तथा ग्लास पर पेंटिंग बनाना सीखती रही। वह गृह-कार्यों में दक्ष है और इस तरह के कार्यों में काफ़ी रूचि रखती है। अपने स्वभाव के कारण वह आसपास के लोगों में काफी प्रिय भी है। उसके विद्यालय की प्रिंसिपल उसे विशेष स्थान देती है।  

इस बार फिर कॉलोनी के निवासियों ने मुझे के० नि० लो० वि० दुर्गा पूजा कमेटी का सचिव मनोनीत किया था। पूजा की ठीक रूप से संपन्न कराने की जिम्मेवारी विशेष तौर से मेरी थी। अतः पूजा के लिए कई दिनों का समय मुझे लगाना पड़ा। उन दिनों मेरे परिवार के अलावा हमारे मु० अभियन्ता तथा अधीक्षण अभियंता का परिवार भी यहाँ आया हुआ था। कुल मिलाकर यह महीना पूजा, परिवार के साथ, छुट्टियाँ, कार्यालय के कार्य के साथ अच्छा व्यतीत हुआ। सौभाग्य से उषा का स्वास्थ्य ठीक रहा। इस बार उन्होंने अपने खान-पान का ध्यान रखा। उसका स्वास्थ्य मेरे लिए वरदान है। जब वह प्रसन्न होती है तो मैं कहीं ज्यादा प्रसन्न होता हूँ। सौम्या का समय भी खेलने, पढ़ने तथा इधर-उधर रातुल, शैली, नीलम तथा वैद्य, काकोती आंटियों के साथ समय बिताने में लगा। मुझे जब भी समय मिला, उसको पढ़ाया और कभी-2 उनके साथ बाजार वगैरा भी गया। इस बार कोई ज्यादा खरीददारी नहीं की गई लेकिन उषा ने सौम्या के लिए यहीं के सुनार से कानों की बालियाँ बनवाई।  उनको पहन कर वह बहुत सौम्या लग रही थी। 

अब पुनः लिखने की इच्छा लिए आज इस सफे को बंद  करता हूँ। 

अलविदा।  शुभ-रात्रि। 

पवन कुमार,
 10 जुलाई, 2014 समय 16 :11 सायं 
(मेरी शिलोंग डायरी 1 नवम्बर, 2000 समय 00:50 म० रा० से )     

    

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