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Saturday 19 July 2014

जीवन चिन्तन

जीवन चिन्तन 
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आज फिर सिहराती है वही छपछपाहट-कुलबुलाहट 
और मैं स्व को पूर्ण अज्ञानी, असहज-बोझिल हूँ पाता। 

सहमा हूँ और जीवन का स्पंदन नहीं है 
बाहर और भीतर नीरवता का आलम है। 
मुझे सुनाई दे रही है चिड़ियों की चीं-चीं 
और बाहर मार्ग पर चल रहे वाहनों का शोर। 

चिड़ियों का चहकना यही शायद प्राणदायक 
अन्यथा मुझे बहुदा अजीवन सा लगता है। 
प्राणी जीते भी अप्राण सा ही निर्वाह करते 
और अपनी मुर्द शांति में ही सुबकते रहते। 

पर चिड़ियाँ हैं मन को पुलकित है करती 
गिलहरी गिट-गिट से ध्यान खींच ही लेती। 
झींगुर निज सतत साधना से प्रभावित करते 
नीरवता तोड़ते जीवन प्रतिभाषित हैं करते। 

पर क्या मैं बोझिलता से कभी बाहर न आ सकता 
हर क्षण मस्तिष्क में अपूर्णता ढोने का प्रहार। 
सोना तो अधिक नसीब में है नहीं शायद 
जागरण में भी है असहजता का ही साम्राज्य। 

देह-मन की इस रण-भूमि में, मौन युद्ध निज गतिमान 
यदा-कदा बाहर आ बोलता पर सुगबहाट से न अधिक। 
अंदर तो तड़पन है बहुत, जो घोर पीड़ा है देती 
और कैसे उलझनें सुलझें, इसी धुन में लगी रहती। 

जग के सब जन हैं जो स्वयं में ही व्यस्त 
अपने से ही न फुर्सत तो तेरा क्या सोचेंगे। 
वे भी लगे हैं अपने आंतरिक-बाह्य युद्धों में 
शायद तन्हा ही हैं इस विशाल मनुजागार में। 

जैसे सावन के अन्धे को सब हरा नज़र आता है 
मुझे भी शायद वैसे ही सब अपने जैसे हैं लगते। 
माना कुछों की स्थिति हो सकती कहीं सुखकारी 
पर अन्य व्यग्र इस समस्त बवंडर को समझने को। 

क्या है यह मस्तिष्क का भारीपन व देह-दुखन,   
चिकित्सीय आयाम या किसी गंभीर बदलाव का लक्षण। 
मैं तो नहीं रमन महर्षि या अरविन्द सा योगी 
फिर क्यों ये हिचकोले अंदर से हिलाए जाते हैं। 

जग जाता हूँ प्रायः निद्रा से, अपूर्णता के निदान हेतु
खोजने लगता हूँ कुछ पुस्तकों में उनका हल। 
हाँ उनमें अनेक हैं जो इस दौर से बखूबी गुजरें 
पर वे भी बेचारे ममसम पूर्णता न बखान सकें। 

वैद्य भी ऐसी औषधि या सूई इज़ाद न कर सकें 
हो जिससे एकाग्र-भाव व व्यर्ग मन का इलाज़।  
कुछ भोलों को नशा-सेवन सिखा देते हैं ठग 
पर सत्यता उन्हें पता कि चरम कहीं है ओर। 

मैं हूँ कि उस व्यसन को तो नहीं अपनाया 
पर सुनने में तो मात्र ठगने वाला ही पाया। 
अन्यों को अपंग, बोध-अक्षम बना, उल्लू कुछ साधते 
फिर चेतनता का ढोंग व निज वचनों से बरगलाते। 

मैं कहीं और चला गया गंतव्य से जो है मेरा स्व 
इस क्षय-विकास सिलसिले के अनवरत खेल। 
पर इस तरह के क्षणों में स्वयं को तन्हा हूँ पाता 
मस्तिष्क के कपाट खोलने में अक्षम हो जाता।  

काल-कवि व मानव धरा पर अल्पशः अवतरित हुऐं 
पर वे भी तो किसी प्रशिक्षण-अभ्यास से गुज़रे होंगें। 
क्या उनका चिंतन जिससे सीखे मंज़िल पहचानना 
रहे समरसता-धारक व अंतः से निज निखारते रहें। 

उन महामानवों के समक्ष कितना बौना हूँ मैं 
वे विशाल वृषभ व मैं वत्स अवयस्क-दुर्बल, परमुखापेक्षी।
कितना अंतर है दोनों की अंतः-बाह्य स्थितियों में 
बीज शायद एक लेकिन वर्तमान बहुत असम है। 

माना सम्भावना है इसके विशाल बनने की 
पर उसे कितने प्रयासों से गुजरना पड़ेगा। 
फिर फल देना या न है उस दात्री के हाथों 
सौभाग्यशाली हैं वे जिन पर कृपा हो जाए। 

माना विकास-नियम से सबका देह-वर्द्धन,  
पर क्या यह नियम क्या मन के लिए भी है ?
माना कुछ न कुछ तो होता रहता है अंदर 
पर नित-चेष्टा ही इसे परिष्कृत है करती। 
      
   जो बाहर वह अंदर नहीं और अंतः न इतना स्पष्ट
जब स्वयमेव अविदित, और कैसे ज्ञान-सक्षम? 
तो क्या है हर मनुज महासमुद्र स्वयं में 
  यह और बात कि वह कितना अनुभूत करता। 

इस महामानव-शहर में मुझे क्यों लाया गया 
ये मुझे झझकोरते, जगाते व दुत्कार लगाते। 
मुझे लेटे से बैठाते हैं, बैठे से खड़ा करते हैं
फिर चलने-दौड़ने को प्रेरित या कहूँ धका देते। 

शायद यह सामर्थ्य-दान, पर मुझमें है इच्छा अभाव  
  वरन क्यूँ न अध्यवसाय-रत, निज-कुंडलीय ज्ञान से। 
क्यों मूलाधार में ही बैठा हूँ इतने अनंत काल से 
और सहस्रधार परम चक्र स्थिति तो है अति-दूर। 

उन मध्य-क्रम वाले चक्रों से गुज़रना होगा 
निज चेष्टाओं से स्व प्रकाशित करना होगा। 
अपने को मनुज बनाना जो मनु नाम से है आया 
     जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' में है मधुर चित्रण।  

कहाँ फँस गया हूँ इस कुरुक्षेत्र के समर में 
मैं कोई न तो कोई योद्धा या सारथी ही हूँ। 
पद-दलित हो जाऊँगा किसी रथ-चक्र नीचे आकर 
और फिर रोऊँगा अपने दैव पर, क्यूँ आया यहाँ। 

माना मैं अबल प्राणी व दोयम प्राण-शक्ति 
फिर भी भेजा गया हूँ किसी उद्देश्य के लिए। 
शायद तुम्हें लक्ष्य न बताया उस नियंत्रक ने 
पर फिर वह निरुद्देश्य कुछ भी न करता। 

मत करो उसकी मंशा पर शक, ऐ बन्धु 
सोचो किस विधि, कर्म-सुघड़ बनना है। 
वह देगा तुम्हें समस्त उन्नति अवसर 
पर महारथी पद हेतु रथी से गुज़रना होगा। 

किस दृश्य-खोज में हो कि होगा चक्षु अभिराम 
  यह तो है सब ओर, बस खोलने होंगे नयन-द्वार। 
माना द्वार भारी व अनुपलब्ध वाँछित उपकरण 
     फिर बल भी नहीं व कोई सक्षम साथ भी नहीं।      

पर ऐसा न ये खुलेंगे ही नहीं, मन में दृढ़ विश्वास लो 
पार संभव है असहजता से, बस वाँछित तव सततता।  
बनो धीर मन-स्वामी व अनुभव करो स्व-विकास को 
जो तुम बनना चाहते, वह उसी से होकर निकलता है। 

विकास-यात्रा साथी ऐ मन, क्यूँ इतना चिन्तित 
जबकि तू जानता है यही सत्य जीवन। 
जीवन नाम नहीं है किसी मंज़िल का 
अपितु हर क्षण की गहन अनुभूति का। 

फिर यह कुरुक्षेत्र है विकास-स्थल 
तुम न हो रुग्ण और असहाय मानव। 
बस तुम्हारे खड़े होने की देर है मात्र 
समस्त जग तुम्हे मार्ग देगा अवश्य। 

यहाँ कोई  प्रतियोगी, सब स्व-व्यस्त 
सब निज धुन में, इस संगीत जगत में। 
न सुध उनको जब अपनी पथों की ही 
तुम हेतु क्यों स्वयं को कष्ट ही देंगे। 

बीज़-पादप व महावृक्ष में न कोई भेद 
     बीज़ में सम्भावना विस्तृत बनने की।     
पर कुछ सावधानियाँ हैं तुमसे वाँछित 
छितरना ना, खाए न जाओ व ऊर्वर भूमि न पाओ। 

मैं निज-धुन लुप्त, चित्रकार कलाकृति करता रहा 
विमान उड़ता-ध्वनित रहा, ट्रैक्टर रेंगता शोरगुल रहा। 
सूर्य निज पथ पर गतिमय, सब अपने धंधे में हैं व्यस्त 
रसोई के बर्तन टकरते रहें व चिड़िया गीत गाती रही। 

मेरा शरीर भी कई अवस्थाऐं बदलता रहा 
यह मन भी अपने मिजाज-बदलता रहा। 
मोबाईल में सतत प्रक्रिया मैसेज लेने की 
मेरे चाहे, अचाहे सब यूँ सतत चलते रहें। 

यदि निराशा तो असीम आशा-संभावना भी चहुँ ओर 
हाँ जन्म हो अतः-मंथन से, ये तभी चिर-स्थायी होंगी। 
बीच में यदा-कदा जैसा भी अल्प-महद हो स्पंदन 
   अमूल्य अनुभवों को अपने यूँ लिपिबद्ध करते जाना। 

सबल तुम्हारे साथ, अबल मुख ताक रहें 
संगी मुस्कुराते चेष्टाओं में, स्वजनों का सदा स्नेह।  

अतः बढे चलो। फिर मिलेंगे। 

पवन कुमार,
19 जुलाई, 2014 समय 20:49 सायं 
( मेरी डायरी 8 अप्रैल, 2014 समय 9:12 प्रातः से )

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