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Saturday 26 July 2014

सार्थक संवाद

सार्थक संवाद 
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कैसा हो वार्तालाप जो कुछ सार्थक बयान करे
शब्दों में ही न उलझकर कुछ गंभीर हेतु यत्न करें। 

कवि-हृदय भी एक बालक ही, मात्र हतप्रदता दर्शाता 
कभी तो वह व्याकुल होता, कभी ख़ुशी में मग्नाता। 
वह बेचारा तो कभी अपने से ऊपर हो ही न सका 
बस निज-अंतर के संग कुछ मंथन ही करता रहता। 

पर यह उसको कदाचित बाह्य से पृथक कर देती 
उसे संसार-विवादों के लिए समय ही मिलता नहीं। 
अपनी लघु सामग्री संग इस काल-क्षण में है व्यस्त 
उसी से कोशिश करता क्या महान हो सकता संभव। 

मूर्तिकार पाषाण-खण्ड देखता, अंदर लघु शिल्प तराशता 
महद से सूक्ष्म पर आना, शक्तियों को समाहित है करना। 
गूढ़-उद्देश्य निकट, कलाकृति में समस्त न्यौछावर करना 
उसे अपना जीवन समझता है तभी तो प्राण-प्रतिष्ठा करता। 

कवि भी नन्ही कलम से कागज़-पटल पर कुछ प्रयोग करता 
कदाचित मूर्तिकार से अल्प, क्योंकि बहुत स्पष्ट नहीं होता। 
पर शायद मूर्तिकार भी असमंजस-स्थिति से गुजरता होगा 
प्रक्रिया में ही उद्देश्य प्रखरता, बुद्धि-बल कार्यानुरूप देगा।  
  
पूर्ण-स्पष्ट तो कदापि न होता तो भी प्रयास किया जाता  
सब कुछ ठीक हो जाता, यदि सतत-प्रयत्न हृदय से होता। 
यहाँ कुछ भी नहीं व्यर्थ, है तो मन की निष्क्रियता मात्र  
खड़े होकर चलो, देखो, पाओगे कितने भरे पड़े आनंद। 

मस्तिष्क-शून्यता से ही, एक अद्भुत संसार निकलता 
सामने कोई ग्रंथ न होता, जिसे नक़ल किया जा सकता । 
यह स्वयं रचनाकार है, कलाकर्मी, चित्रकार, मूर्तिकार भी 
यहाँ उसका सीधा संबंध उसी परम से शाश्वत, अबाधित। 

यद्यपि वाणी मौन है, मन-मस्तिष्क खलबलाता है प्रचुर  
वह प्रेरित करता कलम को, कुछ हो जाए नवीन-मधुर। 
क्या वाणी का मौन अन्य क्रियाओं को भी बंद कर देगा 
अरे नहीं, वह तो पथ दर्शाता, कुछ अनुपम हेतु कलम द्वारा। 

शक्तियाँ यदि हैं सीमित, परस्पर आदान-प्रदान है संभव 
तो सत्य ही परस्पर हेतु स्व का त्याग एक सुभीता यत्न। 
यह है प्रज्ञा का मार्ग जो चहुँमुखी के लिए है समर्पित 
और नूतन विकास हेतु यथा-संभव शक्ति-पुँज प्रयोग। 

बहुत अधूरा, इतना बौना और विकास इतना कमतर 
संभावनाओं का अल्प प्रयोग, कार्य-परिणति की इच्छा न्यून। 
इस जीवन का इतना निम्न-निर्माण, अपना ही अल्प-उपयोग 
मानव को पूर्णता से भरने हेतु किंचित करने महान प्रयास। 

दम्भित या कहूँ स्वयं में डूबा, सोचता कि ज्ञान-साधना रत 
जबकि वस्तुतः सत्य, निमील-नेत्र भी पूर्ण  पाया खोल। 
अभी मात्र विकास के प्रथम चरण का है हुआ शुभारंभ  
और कदाचित वह तमाम नई संभावनाओं से देगा भर। 

वस्तु-सामग्री, स्थान, क्रिया-कारक की आवश्यकता यहीं 
मैं तो यहाँ बस प्रयोग के लिए निमित्त वस्तु स्थापित ही।   
जानता हूँ कि सब कुछ कि क्या, क्यों, कैसे सब हो रहा 
किञ्चित अतः शिशु भाँति स्वयं को अभिभावक को दिया। 

पता है कि ऊपर उछालेगा तो सहारे से लेगा भी पकड़
क्रिया चाहे अभी असह्य, पर आवश्यक पूर्ण-विकासार्थ। 
शारीरिक या मानसिक व्यायाम, करते समय दुखाता भी 
पर अंततः उत्तरोत्तर धारक को अधिक सक्षम बनाती ही। 

अतः पथ-बाधाओं से तो घबराने का कोई नहीं है प्रश्न 
पर परम के लिए दुर्गम-अलंघ्य मार्ग-गमन आवश्यक। 
उस उत्तरोत्तर आत्म-विकास की संभव सीमाऐं क्या 
इस अन्वेषण में स्वयं को समर्पण, कटिबद्ध है करना। 

मुझे स्व-विकास हेतु क्या -2 नवीन प्रयास करने हैं 
कोई सूची बनाओ और उद्देश्य गिनवाओं अपने। 
फिर क्या कार्य करना है, क्यों, कब, कहाँ  कैसे
किसकी सहायता वाँछित, कर्म-सम्पन्नता के लिए। 

उद्वेलित होना प्रथम अध्याय, स्थिति को सुधारने हेतु  
इस चरण बिना तो विकास-मंथन तो कतई न संभव।
पर स्थिति को आगामी प्रयास-कर्म हेतु प्रेरण-आवश्यक 
तब अनुभव होगा निरंतरता का प्रति-क्षण व प्रत्येक-श्वास। 

यह चिंतन बढ़ता जाता जितना मैं करता अग्र-प्रयास 
क्यों प्रश्न के उत्तर हेतु क्यों उद्योग रत नहीं यह मन?     
 क्या यह भी कदम है सार्थकता में करने हेतु प्रवेश 
यूँही न समय गँवाते, अपितु नचिकेता सम कुछ सक्षम। 

अथाह ज्ञान-पूर्ण पुस्तक सामने निष्ठ, और मैं नितांत अपढ़ 
कोई बताए कैसे पहुँचेगा उस अमूल्य का लाभ मुझ तक? 
माना कि प्रयास रत हूँ उसे देखने, समझने के लिए 
पर मात्र उठा-पटक या बिन समझे कुछ पृष्ठ लेता हूँ देख। 

मेरी चेष्टाओं के कोई मायने नहीं है यदि मैं शिक्षित नहीं 
स्वयं से तो पढ़ नहीं सकता क्योंकि अक्षर-ज्ञान है नहीं। 
अतः कोई गुरु, शिक्षक चाहिए जो करा दे सम्पर्क
स्वर-माला व वाक्यों का, बुद्धि से समझने में सक्षम। 

ऊसर विस्तृत भूमि पड़ी, चाहिए कोई कर्मठ कृषक 
बन सकती यह ऊर्वर, चाहिए उसमें श्रम, खाद व जल।  
असम धरातल को प्रथम ठीक करना, कंकड़-पत्थर बाहर 
कुछ नम मृदा लाओ और अपने क्षेत्र को करो दुरस्त। 

प्रस्तर यह निष्प्राण पड़ा, कोई शिल्पकार फिर इसे उठाए 
कुछ सोचकर भला इसे तराशें, मूर्ति इससे अद्भुत बनाऐं।   
  मेरी सोच की क्या सोच है इस तन-मन का निरूपण हेतु 
पर सर्वाधिक आवश्यक है पड़ना किन्हीं योग्य हाथों में। 

कलम पड़ी, कागज़ उपलब्ध, आकर कोई इसपर कुरेद जाए 
कुछ कालजयी लिख दे जिसमें माँ सरस्वती कुछ मुस्कुराऐं। 
वह चाहती ही कुछ सक्षम बनें उसके शिष्य, और महारथी 
वह तो प्रशिक्षण देना भी चाहती, पर स्वयं बनना होगा सारथी। 

यह रखा दिया और तेल उपलब्ध, बाती भी पड़ी है समीप 
चारों ओर गहन अँधियारा, मैं उसमें असमंजस हूँ तिष्ठ। 
माचिस भी हाथ में है किंचित, फिर चलाने की न समझ  
फिर किसी से पूछ ले भाई, कैसे प्रकाश आना है सम्भव।   

 करो कुछ प्रयास अनवरत, कुछ तो सहारा मिलेगा ही 
लोग देख रहे हैं तुम्हें सतत, अचम्भित आँखों से अपनी। 
 फिर संभव कि यह नया स्वरूप बहुतों की समझ न आए 
लेकिन सब तरह के प्राणी यहाँ, अपना काम करना है। 

कैनवस उपलब्ध, रंग-कूची संग में, व बाहर खुला गगन 
मन तो पास तुम्हारे ही और दृश्य देखने को मिलें नयन। 
फिर चित्रण कर सकते मन में, यह तो बहुत ही संभव 
उठाओ पेंसिल, उकेरों शक्लें कुछ, भर दो रंगों से प्राण। 

अनेक सम्भावनाऐं जीवन की, कुछ औरों भी बनाओ सक्षम 
कुछ सीखो यहीं से अविरल, अन्यों को भी दिखा दो राह। 
चलो दुर्बलता-निवारण को, उसका एक अर्थ जग-सहाय 
यही परस्पर अवलम्बन, आदान-प्रदान व मानवता कृतार्थ। 

पवन कुमार,
26 जुलाई, 2014 समय 21:48 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 17 अप्रैल, 2014 समय 9:23 प्रातः से)  

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