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Saturday 23 May 2015

निरोध-कर्म

निरोध-कर्म 
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कैसे समझे कार्यशैली, जग अपनी प्रकृति से चलता 
पात्र यूँ बस बदलते रहते, नवीन पुरातन हो जाता। 

आशा थी नव-शिशु लाएगा, कुछ संभावनाओं नई 
वह तनु, निर्मल, पावन, जिज्ञासु, ग्रहण करेगा शुभ ही। 
नवजीवन, उच्च-शुभ परिवर्तन, प्रत्येक जीवन में चाहता  
जीव-विकासवाद, नव-पीढ़ियों में नूतन-गुण भरता। 

दुर्लभ प्राण हर पीढ़ी का, आया बनकर सफल प्रतियोगी 
कितने ही नष्ट हो जाते, माता के गर्भ-धारण समय ही। 
सक्षम को मिलता सौभाग्य, रहेगा माँ संग गर्भ-काल तक 
सुरक्षा-कवच में विकास, निर्धारित रूप में निर्गमित।   

प्रतिबिम्ब अभिभावकों का, होता शुक्राणु-अण्ड संयोग
माता-पिता के ही वंशाणु, प्रतिस्थापित हो करें उद्योग। 
कहीं तात कहीं मात, गुण-मिलन पर आधे-आधे होता
अभिभावक रचना करते स्वरूप, भ्रूण विकसित होता। 

बनते माता-पिता के भोजन-पानी से, उनके गुण ग्रहण 
 माता-गर्भ उचित-परिवेश, शिल्प शाला, जहाँ सब निर्मित। 
निर्माण प्रक्रिया पर पूर्ण नज़र, और मूर्त विकसित होती 
बाहर भेजता जग में श्वास लेने, जीवन सुफल भुक्ति।

 माना कि माता-गर्भ में किंचित विसंगतियाँ यदा-कदा 
कुछ व्याधियाँ या कभी भ्रूण असमय मृत्यु प्राप्त होता। 
समाज की कुछ रूढ़ियाँ, भ्रूण-हत्या बढ़ावा देती अनुचित 
हितैषी विज्ञान नव-तकनीकों से, लुब्ध स्वार्थी करते अहित। 

कुछ शिशु गर्भ वध हो जाते, अवाँछनीय गिरा दिए जाते  
नित्य गर्भ-निरोधक उपाय, बहुत संभावित जीवन हटाए जाते। 
कदाचित किंचित उचित भी हैं धरा पर संख्या नियंत्रण हेतु  
कुछ युवा-सुख उपायों से, अनावश्यक भ्रूण-भार से मुक्ति। 

पर शायद मानव ने ही प्रजनन को, युवा-सुख से किया अलग 
प्रकृति में अन्य जीव तो नव-जीवन हेतु ही इसे करते प्रयोग। 
नहीं करते वे विनष्ट ऊर्जा, नित्य-वासनाओं में 
अपनी संख्या निर्धारित करते आदतों से।

मनुज को मिली सदा युवा-सुख स्वतंत्रता 
किंचित क्षण हेतु वह अपने को खपाता। 
किन्तु क्षण सदा नव-जीवन संभावनाओं से भरे होते 
लेकिन हम अपने तरीके से जन्म नियंत्रित करते। 

हम नव-जीवन रोधक, कितनी सम्भावना रोक देते 
शायद भरते उनमें अनुपम गुण, होंगे हमारे ही जैसे। 
भाग्यशाली लेते जन्म यहाँ, किञ्चित यह उत्सव होता 
कुछ को अनमने स्वीकारते, जीवन-वृद्धि यत्न होता। 

वह नवजीवन आया, क्या अभिभावक आशा करते 
शक्तिमान, बुद्धिमान, सर्व कर्म-सार्थक कोशिश करते। 
माता-पिता जैसे भी हों, अपनी संतान हेतु सुयत्न करते 
शिक्षित, सबल, धनी, विवेकशील-सुयश कामना करते। 

सबका प्रयास आदर्श समाज, यद्यपि वयस्क स्व-कर्म हीन 
पर संतति हेतु उत्तम ही विचार, करेगा कुछ अच्छा महीन। 
पर यह तो चाह ही है, बाह्य वातावरण भी अति-विस्तृत 
घर-बाहर के अनुभव, नव शिशु पर गहरी छाप छोड़त। 

कैसे हो विकास, जब बाहर हैं अभिभावक व वातावरण 
वयस्कों की शिशु मंगल-कामना, पर न सुधार स्व-आचरण।   
व्यवहार शनै-2 शिशु प्रवेश होता, गहन प्रभाव जमाता 
उसकी प्रकृति बनती पूर्वों जैसी, जिनसे अधिक नहीं आशा।

फिर क्यों शिशु दोषी, जब नहीं वयस्क-जग नियमन सुधार 
बड़ा हो बने पातकी, व्याभिचारी, अमर्यादित हो करे बलात्कार। 
क्या नहीं सबका कर्त्तव्य, बनाना वातावरण को सुगुणालय 
फिर उनसे भी उत्तम निकलेंगे, अंकुश अवाँछितों पर। 

जैसे हम शिशु बनाते, क्यूँ न उचित आदर्श-परिवेश हो 
जिसमें वयस्क प्रतिबद्ध हो, निर्मल सोच-वृद्धि हो। 
क्यों अवसर मिले, उस बालक को बनने को अपराधी ?
बहुत कुछ वयस्क समाज देन है, वह बस है सहभागी। 

मैं कुछ अन्वेषण चाहता, क्यों अपराध-प्रवृत्ति चारों ओर 
क्यूँ कुचेष्टा मनन करता, एक बालक बनते-2 किशोर ? 
दिन-प्रतिदिन देखते-सुनते, बलात्कार - हत्या मामले 
बहुदा घृणा होती मानव की अधम-गति और सोच से। 

क्या है क्षीण पर पूर्ण अधिकार जमाने की प्रवृति 
जबकि पता है, वे भी हाड़-माँस के हैं पुर्जे, कृति। 
क्यों समझते जो हम चाहे वही हो, और सब मानी  
अपने से बलवान समक्ष तो सबकी मर जाती नानी।   

असभ्य-पाश्विक व्यवहार, क्या यही मानव है अनुपम-कृति ?
कहाँ गई सोच उनकी, स्वयं को उच्च समझना प्रवृत्ति। 
कैसा यह बड़प्पन - कुत्सित सोच, अन्य तुमसे हैं निम्न 
पूर्ण-अधिकार उनकी बुद्धि-तन, धन-सोच, साधन-श्रम पर। 

बड़ा वो जो बड़े कर्म करे, जन्म से कोई न होता महद 
महाभारत के यक्ष-प्रश्न हल विस्मृत, जग-निर्वाह में असल।   
भ्रांत, अंध, मूर्ख-दृष्टि, अज्ञान-वाहक स्व को कहते सबल 
नहीं ज्ञान विज्ञान-दर्शन का, न ही विवेक-सुव्यवहार। 

क्यों नहीं समाज धिक्कारता, क्यूँ समूह पक्ष में आते 
क्यूँकि अपना, सब अनुचित भूल, लठ ले खड़े हो जाते। 
कितनी पीड़ा होती मन में, सोचा है पीड़ित-समूह में भी 
क्या वे भी खड़े हो स्वाभिमान से, एक दिन मरने-मारने सीधी ? 

बहुत सहन करते हैं वे, परन्तु मूर्ख है नहीं 
बेहतर नागरिक भाँति रहना चाहते, अत्याचार न नियति। 
अन्यों की सोच-उन्नत आवश्यक है हेतु देश-विकास 
वरन असभ्य-जाहिल, अंध-वादी, अधोगत्वा, संस्कृति-नाश।  

पवन कुमार,
23 मई, 2015 समय 15:00 अपराह्न 
( मेरी डायरी 13 जून, 2014 समय 9:59 प्रातः से ) 

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