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Saturday 6 June 2015

तन-दुखन

तन-दुखन 
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मन-क्षुधा तृप्ति इस अकिंचन की आवश्यकता 
कई दिन बीत गए, कुछ बतियाना ना हुआ।

शरीर-पीड़ा का भी एक अलग है गणित 
आती यकायक, संगिनी बनी रहती दीर्घ काल तक। 
इस दर्द के रिश्ते का अनुभव है विचित्र  
जब तक स्वयं पर न आता, पर-पीड़ा होती तुच्छ प्रतीत।   

यह तन-दुखन तो अपने तक ही, रहता सीमित न 
बाधित करता समस्त प्रक्रियाओं का प्रवाह सामान्य।  
फिर मन तो इसका अग्रज ही है, सहायता में आवत  
वह तर्पण में लग जाता, समस्त कर्म  छोड़त। 

मन क्या है, तन-अहसासों को महसूस करना  
समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ उसके पास जाकर ही लेती निर्णय। 
वह हालाँकि विवेक से संयत होने में सक्षम होता 
लेकिन है तो बालक ही, अनुज-क्रन्दन से घबरा जाता। 

कैसे रह सकता एक स्वस्थ, जब जुड़वाँ है अस्वस्थ    
दोनों एक काया के वासी, एक-दूसरे में गुँथ-मुथ। 
हाँ ढाढ़स अवश्य बढ़ाया जाता, हेतु निर्गम विकट स्थिति 
आरोग्य लाभ एक प्रक्रिया है, समय आवश्यकता उसकी। 

जब तक परस्पर ही समर्पित, गूढ़ हेतु समय न होता 
प्रथम गृह अग्नि-उपशमन, यही है प्राथमिकता।  
जब होगा निर्मल, स्वस्थ मन-तन, सुनहले अग्रिम कृत्य 
क्योंकि रिक्तता से ही अन्यों हेतु है मार्ग मिलन। 

मैं भी गुजर रहा उस दौर से, तन-अस्वस्थता ने मन बंद किया  
कई दिन बीत गए, मनोरचना का न कोई चित्रण हुआ।   
मन के उन क्षणों के भाव भी दमित होकर गए रह 
चाहकर भी शब्द रेखांकित न कर पाया, एक हानि है यह।  

तन का स्वास्थ्य लाभ, मन को भी देता आराम 
दोनों शनै-2 सामान्य स्वरूप में आने का करते यत्न।  
पर तब तक तो मस्तिष्क-कोष्ठों में पीड़ा का होता अहसास  
दोनों मिलकर स्थिति को और बना देते विकट।  

मेरा प्रश्न इस मन-मंदिर के आराध्य से, अनुनय-विनय 
कैसे वह दर्शन कराएगा रूप कृष्ण का समग्र ? 
कौन खींच सकेगा उस परमानुभूति का चित्रण 
मानव-मन के कितने आयाम हो सकते, चित्रण से इस। 

क्यों अर्ध-खिले रहते, नहीं मुस्कुराते मन-सुन्दरता से 
क्यूँ मन में रोध रखते, उसे निर्मल न कर पाते। 
वितृष्णा-प्रलोभन किञ्चित पूर्ण वर्णन से रोक लेता 
सदा छुपे रहते, डरते, अपने से ही रहता घबरा। 

क्या दर्शन हो सकता परम, मनुज स्वयं कर सके अनुभूत 
कैसे हो सर्व-व्यापकता दर्शन, कुछ भी न हो अस्पृश्य। 
समस्त आयाम जग के, पाऐं विस्तृतता में अपना भाग 
सह-संपादन से मानव, स्व गुरु-स्वरूप करें दर्शन। 

कैसे कलाकार ने सृष्टि रचना की, चेतन-कृष्ण के संग 
हर जीव-अवतार हमसे है जुड़ा, गुजरे हैं सब अनुभव। 
हम उनमें और वे हममें, आवश्यकता बस समझने की 
उससे भी अधिक व्यापकता, मनन-शब्द चित्रण करने की। 

कौन वे महामानव समग्र, मिलते व लाभान्वित करते 
हमें झकझोरने, दुर्बलता हटाने का यत्न करते। 
उत्तमात्मा सजग कर्त्तव्यों से, सदा परम आव्ह्वान करती  
निर्मल स्पंदन से विश्व-सोच को ऊर्ध्व करती। 

माना अभी भी तन-दुखन, नश्तर बीच-2 में चुभोए 
तथापि मन से विनती करके, बात कुछ आगे बढ़ाए। 
पुनः करूँ प्रारम्भ कुछ उम्दा-लेखन, सहेज कर रश्मि-ज्ञान 
जगा दूँ अपने कबीर को, कुछ राह देख लूँ खोल आँख। 

पवन कुमार,
6 जून, 2014 समय 16:38 अपराह्न 
( मेरी डायरी 20 अगस्त, 2014 समय 8:50 प्रातः से )

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