तन-दुखन
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मन-क्षुधा तृप्ति इस अकिंचन की आवश्यकता
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मन-क्षुधा तृप्ति इस अकिंचन की आवश्यकता
कई दिन बीत गए, कुछ बतियाना ना हुआ।
शरीर-पीड़ा का भी एक अलग है गणित
आती यकायक, संगिनी बनी रहती दीर्घ काल तक।
इस दर्द के रिश्ते का अनुभव है विचित्र
जब तक स्वयं पर न आता, पर-पीड़ा होती तुच्छ प्रतीत।
यह तन-दुखन तो अपने तक ही, रहता सीमित न
बाधित करता समस्त प्रक्रियाओं का प्रवाह सामान्य।
फिर मन तो इसका अग्रज ही है, सहायता में आवत
वह तर्पण में लग जाता, समस्त कर्म छोड़त।
मन क्या है, तन-अहसासों को महसूस करना
समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ उसके पास जाकर ही लेती निर्णय।
वह हालाँकि विवेक से संयत होने में सक्षम होता
लेकिन है तो बालक ही, अनुज-क्रन्दन से घबरा जाता।
कैसे रह सकता एक स्वस्थ, जब जुड़वाँ है अस्वस्थ
दोनों एक काया के वासी, एक-दूसरे में गुँथ-मुथ।
हाँ ढाढ़स अवश्य बढ़ाया जाता, हेतु निर्गम विकट स्थिति
आरोग्य लाभ एक प्रक्रिया है, समय आवश्यकता उसकी।
जब तक परस्पर ही समर्पित, गूढ़ हेतु समय न होता
प्रथम गृह अग्नि-उपशमन, यही है प्राथमिकता।
जब होगा निर्मल, स्वस्थ मन-तन, सुनहले अग्रिम कृत्य
क्योंकि रिक्तता से ही अन्यों हेतु है मार्ग मिलन।
मैं भी गुजर रहा उस दौर से, तन-अस्वस्थता ने मन बंद किया
कई दिन बीत गए, मनोरचना का न कोई चित्रण हुआ।
मन के उन क्षणों के भाव भी दमित होकर गए रह
चाहकर भी शब्द रेखांकित न कर पाया, एक हानि है यह।
तन का स्वास्थ्य लाभ, मन को भी देता आराम
दोनों शनै-2 सामान्य स्वरूप में आने का करते यत्न।
पर तब तक तो मस्तिष्क-कोष्ठों में पीड़ा का होता अहसास
दोनों मिलकर स्थिति को और बना देते विकट।
मेरा प्रश्न इस मन-मंदिर के आराध्य से, अनुनय-विनय
कैसे वह दर्शन कराएगा रूप कृष्ण का समग्र ?
कौन खींच सकेगा उस परमानुभूति का चित्रण
मानव-मन के कितने आयाम हो सकते, चित्रण से इस।
क्यों अर्ध-खिले रहते, नहीं मुस्कुराते मन-सुन्दरता से
क्यूँ मन में रोध रखते, उसे निर्मल न कर पाते।
वितृष्णा-प्रलोभन किञ्चित पूर्ण वर्णन से रोक लेता
सदा छुपे रहते, डरते, अपने से ही रहता घबरा।
क्या दर्शन हो सकता परम, मनुज स्वयं कर सके अनुभूत
कैसे हो सर्व-व्यापकता दर्शन, कुछ भी न हो अस्पृश्य।
समस्त आयाम जग के, पाऐं विस्तृतता में अपना भाग
सह-संपादन से मानव, स्व गुरु-स्वरूप करें दर्शन।
कैसे कलाकार ने सृष्टि रचना की, चेतन-कृष्ण के संग
हर जीव-अवतार हमसे है जुड़ा, गुजरे हैं सब अनुभव।
हम उनमें और वे हममें, आवश्यकता बस समझने की
उससे भी अधिक व्यापकता, मनन-शब्द चित्रण करने की।
कौन वे महामानव समग्र, मिलते व लाभान्वित करते
हमें झकझोरने, दुर्बलता हटाने का यत्न करते।
उत्तमात्मा सजग कर्त्तव्यों से, सदा परम आव्ह्वान करती
निर्मल स्पंदन से विश्व-सोच को ऊर्ध्व करती।
माना अभी भी तन-दुखन, नश्तर बीच-2 में चुभोए
तथापि मन से विनती करके, बात कुछ आगे बढ़ाए।
पुनः करूँ प्रारम्भ कुछ उम्दा-लेखन, सहेज कर रश्मि-ज्ञान
जगा दूँ अपने कबीर को, कुछ राह देख लूँ खोल आँख।
पवन कुमार,
6 जून, 2014 समय 16:38 अपराह्न
6 जून, 2014 समय 16:38 अपराह्न
( मेरी डायरी 20 अगस्त, 2014 समय 8:50 प्रातः से )
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