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Sunday 21 June 2015

साहित्य-मिलन

साहित्य-मिलन
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साहित्य-सर्जन  अनुपम विधा, उच्च मस्तिष्कों से सम्पर्क 
अपना स्तर  ऊर्ध्व होता, जागना पड़ता पाने को झलक। 

मन मतंग सा फिरता स्वछन्द, वन में करता है चिंघाड़ 
मद-चूर, बल महद, ऊँचा कद, वृहद काया व उद्दण्ड। 
गर्व में वन-द्रुमों को तोड़ता, माना यही है बल-प्रदर्शन      
न कभी चिन्तन, न निज-पराया सोचा, क्या संभव हित ?

माना शीर्ष विशाल मिला, मस्तिष्क आकार भी समृद्ध
विपुल है काया संहति अनुक्रम में, केवल प्रश्न है प्रयोग।
जन्म-उद्देश्य कुछ तो अभिभावक-वंशाणुओं से मिला   
कुछ चेतना जन्म से, बाह्य परिवेश से बहुत कुछ मिला।

स्व-प्रबोध किंचित कठिन, अनेत्र न जाने क्या सकता दिख
बहुत चेतना-क्षेत्र तम में डूबा, कुछ भाग ही हम सकते देख।
प्रबन्धन में 'जोहारी-विंडो' पढ़ाई जाती, दर्शित स्व-ज्ञान कोष्टक
मात्र मैं, मात्र अन्य, मैं व अन्य तथा मैं व अन्य भी न, हैं चेतना कोष्ट।

मेरा ज्ञान अधिकार कुछ सीमा तक, चेष्टा ही कुछ बढ़ाए अग्र
अन्य कर सकते मार्ग-दर्शन, विषय अनेक बुद्धि से बाहर।
जगत में अंधकार अनन्त, बावजूद इसके मैं करूँ यत्न
क्या हल है पार जाने का, तम तो फिर है मृत्यु सम।

'असतो मा सद गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर मा अमृतम् गमय'
सारी चेष्टा स्व को असत्य-कालिमा व क्षणभंगुरता से अग्र-गमन।
इस क्षुद्र तन में कौन सहायक हो सकते, नन्हें मन की प्रगति 
अनेक मम सम व निम्नतर, पर कुछ की तो विकसित सन्मति।

'जिन ढूँढा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठी, मैं बौरी ढूँढन गई रही किनारे बैठी'
मन की तहों को पलटने की प्रक्रिया से कुछ आशा है दिखती।
बहुत विषयों में हम गम्भीर न होते, क्षीण ही होगा तो परिणाम
दबाव से ही कायान्तरण, अभ्यास से हो जाता जड़मति सुजान।

कौन वाहक मनन-चिंतन में, किन सम्पर्कों से आत्मानुभूति
कौन मुझे दर्पण दिखाऐ, संभावना परिचय आहूति।
 कौन हैं वे मन-प्रणेता, तपस्वी, करें मन संग घोर यत्न
देख अंदर बाहर प्रयास से, करें मन परिपक्व, निर्मल।

यौवन बचा, कसरत कर, बलशाली बन, युद्ध हेतु तैयार रह
अपने को सबल रखना, क्षीणताओं को ही तो करना है कम।
मन की ताकत शरीर से अधिक, और बढाए महद संकल्प
दोनों स्वस्थ-द्रुत रखने से ही, मानव विकास किंचित सम्भव।

नरों ने प्रयास से कुछ रचना की, मिलकर पुस्तकालयों में सजी
साहित्य-चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में, पोथियाँ भिन्न विषयों पर लिखी।
रचयिता लगा दते समस्त शक्ति, लेखन-समय उसका निचौड़
माना गोएथे कथन कुछ भी न नूतन, तथापि सबका स्व-प्रयोग।

मैं जो अभी सोच रहा, क्या और भी सोचते या मेरा ही है क्षेत्र
माना विचार भी एक जैसे पनपते, तभी तो बनती सोच एक।
मैंने ऐसा सोचा, उसने भी, देखो मस्तिष्क एक ढर्रे में सोचते
फिर भी बहुत समय अलग होता, हमको निज पहचान देते।

यह दर्शाता अल्पता विचार-क्षेत्र में, मन-कर्मों के अनेक रंग
कितने जन वर्तमान में जीवित, कितने आकर चले गए पूर्व।
कितनी संभावना भविष्य में, उतरेंगी पीढ़ियाँ प्रक्रिया विचार
चेतन-सीमा न मानव तक, अतः लो अन्यों का भी समाचार।

जब अन्यों को सुनते-पढ़ते, असहमति हुए भी बृहद से सम्पर्क
जीवंतता वर्धन, ज्ञानी-मिलन से तो हो उठता आत्म-विभोर मन। 
चर्चा संभव उन विषयों पर कुछ, जिनसे है कभी हुआ परिचय
पर अज्ञात अध्यायों पर मूक हो जाते, जानते नितांत हैं नवीन।

साहित्य हमारे समाज का दर्पण, माने न माने मन की रेखा
होवों आत्मसात जितना हो सके, प्रगति-द्वार तब ही खुलेगा।


पवन कुमार,
21 जून, 2015 समय 18:10 सायं
(मेरी डायरी दि० 7 मई, 2015 समय 9:15 से )  

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