चलना ही जिंदगी
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आज फिर था देखा उसको
वही बोझिल आँखें, वही थकी बाहें।
सदा शायद सोचता ही रहता कि वह फालतू है ज़माने के लिए
पर अगर वह पहचान लें कि मैं नहीं हूँ वो जो जमाना सोचता है
तो वह बन जायेगा वो ताकत जिससे जमाना झुक जायेगा।
हम क्या हैं, क्या हम अपनी सोच नहीं है
या हैं फिर जो दूसरे हमें समझते हैं।
परिस्थिति भी महत्त्वपूर्ण है निश्चित करने में
लेकिन हमारा प्रभाव निश्चित ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।
फिर भी परिस्थितियाँ इतनी कमजोर नहीं हैं
मुझे तो हर एक पूर्ण ही नजर आता है।
पर वह दूसरे पूर्ण से मिलकर जुड़ना नहीं
स्वयं जीतने के लिए लड़ जाना चाहता है।
पर जीतना तो वही है जिसमें हो खुद पर भरोसा
फिर रुकना नहीं है जिंदगी में, बाधाऐं जितनी चाहे आएं।
जिंदगी यूँ ही नहीं रुक जाती किसी मोड़ पर
बगैर थके बस बढ़ता चला जाए।
चलते रहोगे तो जरुर कुछ नया दिखेगा
पर नहीं चलना कोल्हू के बैल की तरह।
विवेक, सच्चाई का दामन ना छोड़ना
फिर देखना कि जीत निकट ही तो है।
पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 10:08 प्रातः
( मेरी डायरी दि० 05.10.1998 से )
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