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Saturday 22 March 2014

दर्शन

दर्शन 
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मेरी आँखों से तू पर्दा हटा दे
और मुझको मेरा तू स्वरुप दिखा दे।

इस सुख-दुःख के दौर में जीवन यूँ कटता
कभी ना अपने को मैं समझ ही पाया।
यदा-कदा यत्न भी किया अंतर्मुखी होने का
परन्तु केवल ऊपरी धरातल पर ही भ्रमण करते पाया।

नहीं जानता कितनी है मेरी गहराई
बस इतना कहूँ कि ऊपर बस जल समतल पाता।
 अपनी विशालता या कहूँ लघुता, इनका नहीं ज्ञान है मुझको
फिर जीवन कैसे चलता है, यह बहुत ही आश्चर्य है।

 मेरी बहुत कम ही होती उत्सुकता स्वयं में, 
बाहरी अध्यायों में यूँ समय है बीतता।
अपनी सीमाओं का न ध्यान किया
न मैंने कभी लक्ष्मण-रेखा बनाई।

क्या है मेरी थाह और क्या है थाती
या फिर बुलबुलों सम यूँ ही  इतराता।
नहीं जानता कि कितना हूँ क्षण-भंगुर मैं
और इस काल का ग्रास हूँ बनता।

मैं इस समस्त प्रक्रिया में कितना प्रगाढ़ हुआ हूँ
कितना मैंने स्वयं को शक्ति संपन्न किया है।
मेरी शक्तियां या कहो क्षीणता, इनका नहीं है ज्ञान मुझको
फिर शायद पड़ा हूँ पत्थर सा धरातल पर बोझ बने हुए।

एक अन्जान पीड़ा का कभी- कभी अहसास है होता 
और मैं नहीं समझ पाता कि क्या है इसका स्वरुप। 
एक बहुत निकृष्ट सी अनुभूति होती
कि क्यूँ नहीं मुझमें कोई स्पंदन  होता। 

अमिताभ स्वरुप तेरी रोशनी में 
मुझ अनेत्र को राह न मिलती। 
देखने को तो शायद  दिए सब उपकरण तूने
लेकिन मुझे तो उनका प्रयोग है नहीं  करना आता। 

जीवन की उत्कृष्टता क्या हैं और कैसे है मिलती 
क्या कोई है ऐसी विधि जो काज है बनाती। 
शायद बहुत सारे ऐसे तरीके हैं 
तभी तो कुछ ने असीम प्रतिभा अपने अंदर विकसित है कर ली। 

तेरी शीतल तरु-छाँव का हूँ ग्राहक  मैं 
पथिक जो अपने पथ से बहुत भटक सा गया है। 
मुझे कुछ राहत पहुँचा कर फिर चलने की प्रेरणा तू दे दे 
और समस्त जग-प्रक्रिया में कुछ अदाकारी तू दे दे। 

जीवन में जीवंतता का अहसास तू भर दे 
अपनी असीमताओं का कुछ अंश दिखा दे। 
मेरी अपनी यदि आँखें हैं तो उनको खोल जरा 
अगर नहीं तो किसी भांति भी मुझसे मेरा मिलन करा दे। 

इस बीज को तू पादप बना दे 
अपने जल, ऊष्मा और ध्यान से मुझे भी सूक्ष्म बना दे। 
फिर मैं शायद लघु तुम्हारा स्वरुप बन जाऊँ 
और तेरी राहों में नितत चलता चला जाऊँ। 

पवन कुमार ,
21  मार्च 2014 समय 11:50 बजे म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 19 जनवरी, 2002 से )
  

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