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Saturday 19 October 2019

जननी-कार्य

जननी-कार्य
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 प्रकृति से एक मूर्त मिली, सब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि से युक्त 
खिलौना तो है सुनिर्मित, पर अज्ञात कैसे हो रहा है प्रयोगित। 

विधाता-बुद्धि है सशक्त, एक अच्छा कलाकार इतनी सामग्री 
अपनी ओर से न कसर, सब चर-चराचर उसी की कलाकृति। 
माना पूर्ण-निर्माण हर विधा में, यहाँ-कहाँ विसंगतियाँ भी कुछ 
कमोबेश सब हैं पूर्ण स्वतंत्र, चाहे तो आराम से जीवन व्यापन। 

विज्ञान भाषा में मानव व अन्य जीव-वनस्पति विकसित यहीं 
प्रक्रिया अति जटिल, विकास पर आज एक धारणा है बनी। 
विधाता या ईश्वर का न कोई स्थान, सर्व समय-परिवर्तन देन 
शनै-२ युगों बाद अद्यतन  स्वरूप, अग्र भी ढंग से ही निज।

कुछ कहो ईश या प्राकृतिक कारण, रचना हेतु जीव-मनुज
हम न मात्र उपकरण, सच वृहद चेतना का ही विपुल अंश।
स्वतंत्र मनन-विचरण हेतु, चाहे तो निज-स्थिति सकते बदल
जरूरी न बस एक जगह पड़े रहो, जग-भूमि तव  ही सब।

संघर्षशील बाह्य-वातावरण, वर्चस्व बचाने हेतु मारे फिरते
हमीं सर्व धन-संसाधन घेर लें, और कहाँ जाते न पता हमें।
व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत, पाटन-प्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष
मन में तो हूक चाहे न सक्षम, महत्त्वाकाँक्षा गुण नैसर्गिक।

कुछ जीव हैं तन-बली, दुर्बल-जीव भी युक्ति से हराते पर
खाली बैठा तो भूखा ही रहेगा, या अन्य द्वारा होगा भक्षित।
एक होड़ सी है श्रेष्ठता-सिद्धि की, येन-केन प्रकारेण सफल
सब तीस-मार ख़ाँ, पर बहुदा पराजय देख कम करते यत्न।

जग-चर्या की क्या कहूँ, प्रायः घुटती उदासीनता ही दर्शित
कुछ नर तो अति-त्वरित, पर अनेक तंद्रा से न बहिर्गमित।
देह-मन थकन एक शुल्क लेती, कथन से ही न सब संभव
नेत्र बंद तो कलम भी कंपित, कैसे भला ऐसे उम्दा उदित।

एक उत्तम उपकरण मुझे भी मिला, पर कैसे प्रयोग हो रहा
यह मैं हूँ या प्राकृतिक-चेतना, जो स्वयमेव रखे चलायमान।
क्या हूँ जो स्व ही चाहूँ, जब निर्माण-लक्ष्य बहुदा सार्वजनिक
यहाँ स्थिति भिन्न, बना तो लोकहित हेतु पर मैं मात्र स्वार्थरत।

किसका श्रमिक, किसको कार्यकलाप का लेखा-जोखा देना है
 मन चंगा पर कौन डंडा हाँकता, निज ढंग काम स्वछंद क्षण में।
निज-विश्व स्वयमेव निर्मित, समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले खड़े किए
अभी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा, सदा प्रेरित ही चेष्टा से।

किसके प्रभाव से अद्य-परिस्थिति में, उसमें मेरा कितना अंश
क्या यत्न, हाँ कोई न अपना कहेगा यदि समय कठिन घटित।
तथापि कुछ तो सराहनीय प्रयास, यदि सकारात्मक परिवर्तन
हर ईंट-जोड़ से ही गृह-निर्माण, निर्माता-निर्मित दोनों ही मैं।

विराट प्रश्न पूर्वैव-इंगित, क्या हूँ पूर्ण-स्वतंत्र, परतंत्र या मध्यम
दर्शनों के भिन्न निज-तर्क, पर सक्षम को कर्म के कई अवसर।
माना बहुत जग टाँग-खिंचाई, सत्य में लोगों पर होते भी जुल्म
तथापि नर में अदम्य-शक्ति, चाहे तो विश्व-भाग्य पलट सक्षम।

तो क्या स्वयमेव भाग्य-विधाता, अमूल्य उपकरण मुझे प्राप्त
कुछ मूरतें विश्व-हित चिन्हित, निज न कुछ बस वेला-व्यापन।
पर जितना है समय-ऊर्जा, सार्वजनिक हित में होउपयोग-पूर्ण
कई भाग्य बदले यहाँ तुम भी सकते, चेतन हो लो कर्मठ-पथ।

माता-पिता पाल-पोस पाँव पर खड़ाकर गमित परम-धाम
क्या लक्ष्य था निर्माण का, या सब जैसे बस संतान उत्पन्न।
एकदा हास में माँ से कहा, स्वाद में पैदा किए इतने बालक
युवा-सुख में गर्भधारण, पर प्रमुख उद्देश्य रूप निज सम।

यही निरंतरता की अदम्य-इच्छा, जग-रचित अनेक प्रपंच
विवाह, यौन-संबंध, संतति-पोषण उसी प्रक्रिया में चरण।
अभिभावकों का संतान-मोह, यत्न से पाल-पोस बनाते अर्हत
हम कुछ दिवस के प्रहरी, भविष्य इनका ही व भी दायित्व।

सबको समय क्रीड़ा-मस्ती का, लड़ना-भिड़ना, लेने को पंगा
तुम्हें भी मिला ढंग से जीतो, न शिकायत सब प्रकृति समक्ष।
पर इसी स्वतंत्रता में है तव दायित्व भी, अपने हेतु ही न मात्र
जीव-निर्माण एक महद उद्देश्य हेतु, पर अपना मूल्य तो जान।

जिन वस्तुओं में तव है जीवंतता, शायद वही जीवन-मापदंड
सीमा महद करो अद्य लघु-कोटर से आगे, जग ही कार्य-क्षेत्र।
जहाँ जाओ अमिट छाप छोड़ दो, निज दृष्टि में ही कमसकम
जितना मुझसे संभव उतना तो किया, चेष्टा करूँ और उत्तम।

परियोजना की भी योजना, सर्व भाँति का वाँछित ऊर्जा-साहस
यदि वर्तमान से अग्र दर्शन-शक्ति, निश्चिततया परम-यश लब्ध।
लोगों को मिलाना प्रयासों में, उनका बल-संबल अति महत्त्वपूर्ण
पर पूर्ण-जागृति आत्म-जाग से ही, अन्यों का तो मात्र सहयोग।

पर नर-योग्यता में तुम श्रद्धा करना सीखो, वे कर देंगे अचंभित
मुस्करा कर श्लाघा-प्रेरणा-प्रोत्साहन से, काम निकलवा सीख।
वे तुमको सुपर्द काम लेना तेरा हुनर, माना सबमें कुछ तो कमी
बस ठीक कर पथ बनाते चलो, मंजिल निकट शीघ्र ही मिलेगी।

यह जीवन मेरा ही, स्वयं हेतु निर्मित, मैं संचालक, प्रकृति-दूत
बड़ी अपेक्षा, जननी-कार्यों में प्रयास-सहयोग हो, करो सार्थक।
देश-समाज-विभाग कर्मियों से विदित, दो एक उत्तम वातावरण
जब अन्यों को आदर  देना शुरू कर दोगे, बनोगे कुछ सार्थक।

एक उत्तम-स्थल रखा प्रकृति ने किंचित, पर अपेक्षित अति-महद
हर दिन महत्त्वपूर्ण त्वरित प्रक्रिया हेतु, कसौटी समय-सदुपयोग।
जिससे बात करनी हो करो, संसाधन-विकास, पूर्ण-उत्पादक स्थल
कर्मयोगी बन सब संगी-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम करो उन्नत।


पवन कुमार,
१९ अक्टूबर, २०१९ समय ५:५१ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० ३०.०३.२०१७ समय ९:०७ सुबह से) 

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