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Saturday 2 January 2016

एकरूपता

एकरूपता 
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चंचल चितवन, मुख अरविंद, अंग अभिराम, व आभा-अखंड

समग्र, सक्षम, शाश्वत, निपुण, धृतिमान, सकल रूप-विसरण॥

 

कैसे प्रादुर्भाव हुआ जग में मेरा, किन प्रणालियाँ से हूँ गुजरा

क्या यह वर्तमान स्वरूप ही है, अथवा पुरातन की भी चेतना।

कितने रूपों से गुजर गया, जिनसे प्रतिभा का हुआ है प्रसार

अनेक अनुभवों से आत्मसात, सब मिलकर ही हुआ विकास॥

 

बहुत स्थानों से गुजरा, उनके ही अन्न-जल, प्राण-वायु से पला

असंख्य-सहयोग निर्माण में, अत्यधिक तो निशुल्क ही मिला।

कितनी जगह से वायु प्रवाह होकर, मेरे श्वास से चलाती प्राण

दूर महासागर- जल बरसें मेरे आँगन, नीरद हैं उसके वाहन॥

 

कहाँ का अन्न-जल मुझे है पोषता, खाता फल अनेक स्थल के

माना स्व-क्षेत्र वस्तु बहुल, तथापि अनेक आती इधर-उधर से।

कौन हाथों से अन्न उपजे, किन प्रक्रियाओं गुजर हम तक आता

हर दाने का इतिहास, पर किसे समय है इस भाँति मनन का॥

 

हर रोम में मुहर सर्व-व्यापक की, सकल चराचर में मेल अति

हम अवयव विस्तृत सृष्टि के, सब निर्मित सीमित तत्वों से ही।

अनेक अन्य जीवों का सहयोग जीवन में, नर तो है ही परजीवी

आइंस्टीन कहे `यदि मधु-मक्खी खत्म, ४ वर्ष में नर जीवन विनाश भी।`

 

कितना जुड़ाव भिन्न प्रकृति-रूपों का, बिलकुल ही तो गुँथे-पड़ें

एक-दूजे से भिन्न नहीं कुछ भी, मात्र परस्पर क्षति-पूर्ति करते।

मम जीवन नितांत अन्य-निर्भर है, तनहा क्षण भी न पाऊँगा रह

चेतन-अवचेतन का वृहद योगदान, सम्पूर्ण किए सब मिलकर॥

 

कैसा श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता भेद, जब ज्ञात चलता काम परस्पर से ही

प्रज्ञान मन जब विकसित न है, हम रहते व्यर्थ-गर्वानुभूति में ही।

चलायमान यह जीवन होता, अनेक विस्तृत तंतुओं के मिलन से

कभी समय निकाल ध्यानों अन्य-अनुकंपा, जो हमें जिलाए हुए॥

 

क्या निज सुरक्षा-इच्छा एक किले में, जिसे कहें हम सर्व-पूरक

पर क्या यह सर्व-जरूरत पूर्ण करेगा, निज कोटर में कब तक?

यह धरा यदि एक घर मान लें, सकल-ब्रह्मांड जरूरत तो भी है

सूर्य-चंद्र-तारें, पवन-जल, गर्म-सर्द, जलवायु परिवर्त बहु-कारणों से॥

 

क्या व्यक्तित्व-स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता या कहें भाव-श्रेष्ठता

सोचें यदि तो बस विशेष भाव, मन दंभ में ऐसी कल्पना करता।

नर श्रेष्ठ नस्ल- भाव मन में लाता, ऐसा नहीं कुछ जबकि है पता

अपनी-२ जगह हर कोई श्रेष्ठ, आदान-प्रदान से ही जग चलता॥

 

पूर्णाहूति प्राण-पण की, स्व को सम्पूर्णता में समर्पित है करना

सर्वस्व विकास जगत-जरूरत, और अधिक है अनुभव होना।

मैं था, मैं हूँ, मैं हूँगा सदा, स्वरूप में यहीं चराचर के किसी भी

प्रकृति-नियम किंचित न अनिष्ट, रुप परिवर्त स्वाभाविक ही॥

 

कहाँ का खाद-पानी-बीज, कौन सा खेत, कृषक- मजदूर कौन

कौन से फावड़े और टोकरी, बीज रोपते व सफाई करते मौन?

फसल काटते, दाने निकालते, दुकान लाते, आटा पीसते-ढ़ोते

कई स्थितियाँ, भिन्न चेहरे भागी, भक्षण पूर्व बड़ा श्रम वाँछित है॥

 

कहाँ के बर्तन, आटा-चक्की पत्थर, कौन दुकानदार-पीसनहार

कौन खनन-धातु, शैल-रसायन, कहाँ से सब्जी व मसाला-माल?

कहाँ की ईंधन-गैस बिजली, कौन वाहन व निर्माता, क्या मशीन

कौन फैक्ट्री-प्रक्रिया-तकनीक, सामान व निरीक्षक-इंजीनियर॥

 

कौन डायरी, किसने छापी, किस वन से लुगदी-कागज-वायुजल

कौन कलम, कौन निर्माता-आपणिक, कौन से यातायात वाहन?

कौन विचार, कहाँ लेखन - स्थल, क्या मनोस्थिति व उद्भव-परम

कैसा मेल है, कैसी समष्टि बुद्धि, किस हाथ से कैसा कब चित्रण॥

 

अनेक विविधताऐं हैं सर्वत्र व्यापक, पर सब मेरे ही अभिन्न अंग

किंतु सब-मिलन से ही कुछ समुचित, तैल माँगे है ज्ञान-दीपक॥


पवन कुमार, 
2 जनवरी, 2016 समय 20:52 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 1 मई, 2015 समय 10:08 से)     

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