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Thursday 14 January 2016

दीप-प्रकाश

दीप-प्रकाश 
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किस भंवर में फँसा हूँ, निकलूँ कैसे जँजाल से इस  
चक्रव्यूह तो पूर्व-रचित, अर्जुन की शक्ति वाँछित।   

अभिमन्यु अपने अल्प ज्ञान कारण तोड़ उसे न पाता  
खेल-दाँव सीखने जरूरी, वरन अति सफल न होता। 
मन की शिक्षा, तन की वीरता नर को बढ़ाए आगे ही 
बाधा आती हटने हेतु, हतोत्साहन कोई विषय नहीं। 

मैं सार्वभौमिक मन-प्रकृति स्वामी, सर्वत्र उचित घड़ा
सीखें अनेक आयाम मैंने, अनुभव जय-पराजय का। 
आत्म-गुरु तो अकथन समर्थ , ज्ञान अन्य ही  सिखाते 
विश्व एक विशाल चक्र सम, सब परस्पर हैं टकराते। 

मौलिक हाड़-माँस का पुतला, लिए हूँ कुछ ऊर्जा-चेष्टा 
हर जीवन-कला का पारखी, मन -धारण कुछ विद्वता। 
नहीं बिताया अपना समय यूँ, बस सोकर व खाकर ही 
अपितु स्वयं संग नित श्रम किया, वृद्धि अपने स्तर की।  

स्वयं-सिध्दि मनुष्य का लक्ष्य, जीवन वृद्धि हेतु प्रेरक  
मिला समय जितना भी यहाँ, सदोपयोग है अपेक्षित। 
किसी ऋतु के अंदर जाकर, महीनता करें अनुभव  
तभी तो अन्य से भिन्नता, मन-मस्तिष्क करे समृद्ध। 

लुप्त इस स्व-चिंतन में, अपने  भँवर में गया फँस सा 
अपने गिर्द आवरण-लेश लपेट, जँजाल सा बन गया। 
  ज्ञान सर्व-विधि होने पर भी, काटन इसका है दुष्कर    
तथापि साहस न त्याग, कारवाँ चलाने को प्रतिबद्ध। 

मैं जैसे औघड़ सा हूँ, कुछ होश नहीं कृत्य-अकृत्य  
स्व-निर्मित लघु विश्व में  विलुप्त, कुछ सम ही मृत्य। 
भूल जाते बिछुड़ने  वालों को, सब स्व में ही व्यस्त  
अपना मन-साम्राज्य, मस्त यावत अन्य न करें तंग। 

कुरेदना, प्रश्न, बात कहना, आंदोलन, दहाड़ना, चीखना 
आरोप, डाँट, परिवेश-प्रबंधन, स्व एवं अन्यों को प्रेरणा। 
सब कूप-मण्डूकता निकास यंत्र, यदि कर सके ग्रहण  
झझकोरें दुर्बल-पक्ष निरोध मारक-व्याधि, कुछ राहत। 

कैसा है यह शोक-गीत, अपनी  ही टीसों से सुबकाता 
कैसी यह बाँसुरी-धुन, अचेतना राग सुनाए निर्गम का। 
तथापि नेत्र अर्ध-बंद किए, न जाने कहाँ हुआ विलुप्त   
ओझा-सयाना सा देवी-ध्यान में, निज न कोई अवगत। 

कैसी मेरी है मन-चेष्टा यह और क्या कर्त्तव्य वाँछित 
क्यों मुझे स्व-ज्ञान की सूई, न आ रही घूमती  नज़र। 
सब नरों में मस्तिष्क, अनंत संभावनाऐं हैं अंतर्निहित 
ज्ञानमूल सर्व सुख-दायक, प्रयत्न  सदा कृत  सुफल। 

जीवन का क्या मूल, या मात्र प्रमत्त बहकी बातें  करना 
या पूर्ण चेतना-रत, कर्म-योग सिद्धांत संचालित करना। 
ज्ञान-रश्मि कैसे इस अकिंचन तक, कौन सा स्रोत वह  
निज-कोटर से बाहर निकल, प्रकाश से करना मिलन। 

इस अध्याय के कुछ वाक्य पढ़ा दे, मुझे स्व से मिला दे 
कुछ महामानवों से संपर्क करा, तौर-तरीके समझा दे। 
खोया हूँ सुध-बुध पूर्णतया, कोई आकर गुरु से मिला दे 
देवी-प्रकाष्ठा दीवाली पर्व में, अंतर्कक्ष -प्रकाश करा दे। 


पवन कुमार
14 जनवरी, 2015 (मकर-सक्रांति) समय 21:34 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 21.10.2014 समय 9:15 प्रातः से)   
    

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