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Saturday 15 December 2018

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -४ (भाग -२)

परिच्छेद – ४ (भाग -२)
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और जैसे कि चंद्रापीड़ कालांतर में सभी संस्कार-वृतों से गुजरा, उसकी शिखा बाँधने के लेकर, उसका बाल्यकाल बीत गया; और अपकर्षण (अनन्यमनस्क) रोध हेतु, तारापीड़ ने नगर के बाहर एक ज्ञान-प्रासाद निर्माण कराया, शिप्रा नदी के साथ अर्ध-क्रोश में फैला, एक हिमाद्र शिखर-वृत्त इष्टकों (ईंटों) की एक भित्ति (दीवार) से परिगत (घिरी हुआ), अति-सुदृढ़ द्वारों द्वारा सुरक्षित, प्रवेशार्थ एक द्वार खुला, निकट अश्वों शिविकाओं (पालकी) हेतु शालाऐं, और नीचे एक व्यायामशाला - अनश्वरों हेतु एक उपयुक्त स्थल। उसने प्रत्येक विद्या के शिक्षक वहाँ एकत्रण में अपरिमित श्रम (प्रयास) किया, और बालक को वहाँ रखकर, जैसे कि सिंह-शावक को एक पञ्जर (पिंजरे) में, सभी अपसारों (निर्गम) को रोधकर विशेषतया अपने गुरु-पुत्रों संगति से घिरा, बचपन-क्रीड़ा के प्रत्येक आकर्षण को हटाकर, और उसके मस्तिष्क को अन्यमनस्क (अपकर्षण) से मुक्त, एक मंगल-दिवस (१५६) उसने वैशम्पायन के साथ उसको गुरुओं के सुपुर्द किया, जिससे वे सभी ज्ञान प्राप्त कर सकें। प्रतिदिन जब वह उठता था तो महाराज विलासवती और एक अल्प परिचारक-गण संग उसको देखने जाता था, और चंद्रापीड़ ने मस्तिष्क में अविचलित और महाराज द्वारा प्रदत्त अपने कार्य पर ध्यान देते हुए, अध्यापकों द्वारा उसे सिखाई गई सभी विज्ञानों को शीघ्र ग्रहण कर लिया, जिसके प्रयास उसकी महद शक्तियों द्वारा त्वरित किए गए, जिससे कि वे अपनी नैसर्गिक-योग्यताओं को प्रकाशित कर सकें; सर्व-कलाऐं उसके मस्तिष्क में एक आभूषित मुकुर (दर्पण) सम एकत्रित होती थी। उसने शब्द, वाक्य, प्रमाण, विधि राजनीति में उच्चतम निपुणता प्राप्त कर ली; क्रीड़ाओं में, सभी प्रकार के अस्त्रों में यथा धनुष, चकती (चक्र), कवच, खड़ग (कृपाण), बरछा, गदा, लौहदंड मुद्गर; गज-साधना आरोहण; संगीत-वाद्यों जैसे वीणा, बाँसुरी (विवरनालिक), मृदंग, मजीरा (करताल) और बाजा (वेणु); भरत अन्य जैसों द्वारा नृत्य-शास्त्र, और संगीत-विद्या में नारद के जैसों सी; गज-प्रबंधन, अश्व का वय-ज्ञान, और पुरुष-चिन्ह; चित्रकला में, पल्लव-छेदन, पुस्तक-प्रयोग, और लेखन; द्युत (जुआ) की सभी विद्याऐं, पक्षी-ध्वनि ज्ञान, और खगोलीय विद्या; रत्नों की गुणवत्ता-जाँचन, त्वष्टि (बढई-गिरी), हस्ती-दंत कार्य-विद्या; वास्तु-कला, भौतिकी, यांत्रिकी, विष-नाशक औषधि-विद्या, खनन, नदी पार करना, अभिनय, उपन्यास, काव्य; महाभारत, पुराण, इतिहास, और रामायण में; सभी प्रकार के लेखन, सभी विदेशी-भाषाऐं, शब्दावलियाँ, सभी यांत्रिक-कलाऐं; परिमाप (पैमाइश) और प्रत्येक अन्य कला में। और यद्यपि वह निरंतर अध्ययन करता था, बाल्यावस्था में ही भीम सम जन्मज ओजस (जोश) उसमें दमकता था और लोक को विस्मय-विव्हलित करता था। क्योंकि जब वह गज-शावकों संग क्रीड़ा में, जो उसपर आक्रमण करते थे, जैसे कि वह एक सिंह-शिशु हो, वह उनके कर्णों पर अपनी पकड़ से, उनके अंगों को झुका देता था, और वे चल नहीं सकते थे; अपने एक खड़ग-वार से ही वह ताड़-वृक्षों को इस प्रकार काट देता था जैसे कि वे मृणाल-शाखा हों; परशुराम सम जब उसके शर पृथ्वी के राजसी वन-क्षति हेतु बरसते थे तो वे मात्र उच्चतम शिखरों को ही छेदते थे; वह स्वयं एक लौह-दंड से व्यायाम करता था जिसे उठाने हेतु दस पुरुषों की आवश्यकता थी; और शारीरिक-बल के अतिरिक्त, अपनी सभी उपलब्धियों में वह वैशम्पायन द्वारा निकट-अनुसरण किया गया था, जिसके गहन अध्ययन से चंद्रापीड़ उसके लिए सम्मान अनुभव करता था, और शुकनास प्रति अपने आदर कारण भी और क्योंकि वे साथ-साथ धूल में खेलें पलें थे, वह राजकुमार का प्रमुख मित्र था, और जैसे कि उसका द्वितीय-हृदय था, और उसके सर्व-विश्वास गृह था। वह वैशम्पायन बिना एक पल भी नहीं रह पाता था, और वैशम्पायन भी कदापि एक क्षण मात्र उसका अनुसरण नहीं छोड़ता था, दिवस द्वारा अर्क (भास्कर, सूर्य) का अनुसरण छोड़ने से भी कहीं अधिक।

"और जब चंद्रापीड़ अतएव सभी विद्याओं संग अपना परिचय लक्षित कर रहा था, त्रिलोकों का प्रियतम यौवन-वसंत समुद्र के अमृत-पान सम पुरुषों के उर प्रमुदित करता जैसे चंद्रोदय-कांति को प्रसन्न करता; इंद्रधनुषी-दीप्ति के परिवर्तन में अनित्य जैसे पावस ऋतु में इंद्र-धनुष की पूर्ण-प्रत्यंचा चढ़ी हो; काम-शास्त्र जैसे कि कल्प-तरु पुष्पों का प्रस्फुटन; कमल-कुंज में सूर्योदय सम नव-दर्शित प्रकाश में सदैव रमणीय; मयूर-पंखों सम भव्य-गति की सभी क्रीड़ाओं हेतु तत्पर; काल-स्वामी काम सदा निकट खड़ा था जैसे कि इसको विदाई देनी हो; उसका वक्ष अपनी सुंदरता संग फैलता था; उसके अंग पूर्णता जीत गए थे जैसे कि उसके मित्रों की कामना; उसके अरियों की कामना सम उसकी कटि तनु (पतली) हो गई थी; उसका रूप उसकी दानशीलता सम विस्तृत हो गया था, उसकी भुजाऐं अधिकतम नीचे लटकती थी जैसे कि उसके शत्रु-भार्याओं की अलकें; उसके नेत्र चमकीले हो गए थे जैसे कि उसका चरित्र; उसके स्कन्ध चौड़े जैसे कि उसका ज्ञान; और उसकी वाणी सम उसका गव्हर (गहरा) हृदय।

"और अतः कालांतर में यह जानकर कि चंद्रापीड़ युवा हो गया है, और सभी कलाओं का अपना ज्ञान पूर्ण कर लिया है, सर्व-विज्ञान अध्ययन कर लिए हैं; और अपने गुरुओं से महद शलाघा विजित कर ली है, महाराज ने एक महायोद्धा बलाहक को बुलाया और अश्वारोही पैदल-सेना की एक विशाल भेरी संग उसको एक अति-शुभ दिवस युवराज को लाने भेजा। और बलाहक ने ज्ञान-प्रासाद में पहुँचकर, प्रवेश करके, हरकारों द्वारा उद्घोषणा कराकर, और अपना मस्तक नमन करके जब तक कि उसके मुकुट-रत्न भूमि पर विश्राम कर लें; पार्थिव (राजपुत्र) की आज्ञा से अपनी पद-अनुरूप एक आसन पर बैठ गया, उतने ही सम्मान के साथ जैसे कि यह महाराज की उपस्थिति में हो; कुछ अल्प-काल विश्राम पश्चात् वह चंद्रापीड़ के पास गया और महाराज का संदेश दिया : "कुमार, मैं महाराज अतएव कथन करता हूँ : "हमारी कामनाऐं पूर्ण हो गई हैं, शास्त्र-अध्ययन हो गया है; सर्व-कलाऐं सीख ली गई हैं; तुमने सभी सामरिक (रण-कौशल) विज्ञानों में उच्चतम निपुणता अर्जित कर ली है। तुम्हारे सभी शिक्षकों ने ज्ञान-गृह छोड़ने की अनुमति दे दी है। अब प्रजा को देखने दो कि तुमने प्रशिक्षण से क्या ग्रहण किया है, जैसे कि एक युवा राजन्य-हस्ती वाटक (बाड़े) से बाहर आता है, कलाओं के समस्त मंडल को अपने मन में रखते हुए जैसे कि पूर्णचंद्र नवोदित होता है। तुम्हें देखने हेतु बहुत काल से उत्सुक प्रजा के नयनों को उनका सत्य-कर्म करने दो, क्योंकि समस्त अंतःपुर तुम्हारी दृष्टि हेतु लालायित है। विद्यालय में तुम्हारे आवास का अब दशम वर्ष है, और तुमने अपने छठवें वर्ष के अनुभव के पश्चात इसमें प्रवेश किया था। तब यह वर्ष, ऐसा विचार करने पर, तुम्हारे जीवन का सोलहवाँ वर्ष है। अतः अब जब तुम बाहर आओगे और दर्शन-उत्सुक सभी माताओं को स्वयं को दिखा दो, और आदरणीयों को प्रणाम कर अपने को प्रारंभिक अनुशासन में रखना, और तुम्हारी इच्छा पर प्रस्तुत सभा के प्रमोद और नवयौवन-आह्लादों को अनुभव करना। मुखियों को अपना आदर देना, ब्राह्मणों का सम्मान करना, प्रजा की रक्षा करना, अपने कुलजनों को प्रसन्न करना। वहाँ द्वार पर महाराज द्वारा भेजा गया यह इंद्रायुद्ध नामक अश्व खड़ा है जो गरुड़ अथवा मरुत सम द्रुत त्रिलोकों का प्रमुख-रत्न है; सत्य में इरान-सम्राट ने, जो उसे ब्रह्माण्ड-विस्मय के रूप में प्रिय था, उसे इस संदेश के साथ प्रेषित किया है : 'महासागर-जल से सीधा स्फुरित हुआ यह कुलीन अश्व, मेरे द्वारा अन्वेषित है और महाराजाधिराज, आपके आरोहण हेतु उपयुक्त है; और जब यह अश्व-चिन्हों में निपुणों को दिखाया गया, उन्होंने कहा : 'इसमें वे सब चिन्ह हैं जो हमें पुरुष उच्चैश्रवा-संबंध के बारे में बताते हैं। अतः अपने आरोहण द्वारा उसे सम्मानित होने दो। ये सहस्र राजपुत्र, सभी अभिषिक्त (अनुलिप्त) नृपों के सुपुत्र उच्च-प्रशिक्षित, शूरवीर, बुद्धिमान विद्या-संपन्न और प्राचीन वंशज, तुम्हारे अनुरक्षण हेतु तुम्हें प्रणाम करने को उत्सुक अश्वपृष्ठों पर प्रतीक्षा कर रहे हैं।" ऐसा कहकर, बलाहक ने विश्राम लिया, और चंद्रापीड़ ने अपने तात का आदेश शिरोधार्य कर, एक नव मेघ सम गहरी ध्वनि में आदेश दिया, 'इंद्रायुध को लाया जाय', क्योंकि वह उस पर सवार होना चाहता था।

तुरंत उसके आदेश पर इंद्रायुध को लाया गया और उसने उसको एक विस्मयी वाजि (अश्व) पाया जो दोनों ओर वल्गा (लगाम) वृत्त पकड़े दो पुरुषों के पीछे रहा था, और उसको नियंत्रण करने हेतु उनको अपना समस्त बल प्रयोग करना पड़ रहा था। वह बहुत विशाल था, उसकी पृष्ठ एक पुरुष के उठाऐ गए हस्त की मात्र पहुँच में थी, वह गगन-पान करता प्रतीत हो रहा था, जो उसके मुख के साथ एक तल पर था, एक हिनहिनाहट ने उसके उदर की गुहा-विवर को हिला दिया था, और त्रिलोक की शून्यता को भर दिया था, वह जैसे अपने मिथ्या-विश्वास के कारण गरुड़ के काल्पनिक वेग की भर्त्सना कर रहा हो; अपने पथ में किसी बाधा पर क्रोध में एक नासिका-फूत्कार (फुफकार) से वह अपने गर्व में त्रिलोक-परीक्षा कर लेता था, कि वह उनको लाँघ सकता था; उसकी देह इंद्रधनुष भाँति कृष्ण, पीत, हरित और पाटल (गुलाबी) वर्ण-लेखाओं (धारियों) से विविध-वर्णी (बहुरंगी) थी; वह उसके ऊपर फैलाए अनेक वर्णी चित्रकटों (कालीन) से एक गज-शावक सम था; कैलाश-शिखरों पर टकराने से धात्विक-रज से पीत वह शिव के वृषभ सम था; पार्वती-सुत सम उसके केसर दैत्यों की जमी हुई (तेदनी) रक्त-रेखाओं संग लोहित थे; और समस्त ऊर्जाओं के अवतरण भाँति ही, अपने सदा- कम्पित प्रोथों (नथूनों) से एक फूत्कार संग वह अपने द्रुत वेग में श्वास ली जाती वात को उत्सर्ग करता सा प्रतीत होता था; वह यमसान (मुखरज्जु अर्थात लगाम) के चर्वण (चबाने) से, जैसे ही वह उसे मुख में घूमाता था, बजती थी, अपने होंठो से गिरते फेन-कणों को बिखेरता था, जैसे कि वे उसके सागर-निकेतन में सुधा-पान का कवल (मुखपूरण) हो। और इस अश्व को निहार कर जिसके तुल्य पूर्व में कदापि नहीं देखा गया था, जो समस्त ब्रह्मांड-साम्राज्य हेतु प्रतियोगिता के लिए अपने रूप में देवों हेतु उपयुक्त था, सभी अनुकुल संकेतों का धारक, एक तुरंग (अश्व) की आकृति का गुण-संपदा से चंद्रापीड़ का उर जो यद्यपि प्रकृति से सरल-चलायमान नहीं था, एक विस्मय के साथ स्पर्श किया गया, और उसके मन में विचार उदित हुआ : "क्या रत्न है यदि यह आश्चर्यजनक वाजि सुर एवं असुरों द्वारा नहीं लाया गया हो जब उन्होंने समुद्र-अम्बु का मंथन किया हो और मंदर-पर्वत के गिर्द वासुकी भुजंग के सतत आवर्तन (घूर्णन) सहित आवृत्त (घूमे) हुए हों ? और त्रिलोक के अपने स्वामित्व से इंद्र ने क्या प्राप्त किया है यदि वह इसकी पृष्ठारूढ़ नहीं हुआ है जो मेरु पर्वत सम चौड़ा पृथु (विस्तीर्ण) है ? निश्चिततया इंद्र सागर द्वारा अभिवंचित (धोखा) दिया गया है जब वह उस उच्चैश्रवा द्वारा प्रमुदित हुआ था। और मैं सोचता हूँ कि उसके ऊपर पावन नारायण की दृष्टि-पात नहीं हुई है, जो अभी भी गरुणारोहण हेतु अपनी सम्मूढता (मोह) का त्याग नहीं करता। मेरे तात की राजसी महिमा इस जैसे वैभव के होने से स्वर्ग-साम्राज्य के वैभव को भी मात देती है जो किंचित ही समस्त ब्रह्मांड में प्राप्त हो सकती है, और यहाँ सेवा में आया है। अपने तेज एवं ऊर्जा से उसकी यह छवि एक देव-मन्दिर सी प्रतीत होती है, और इसका सत्य उसको आरोहण करने में मुझे भयभीत करता है क्योंकि इस जैसे रुप देवोपयुक्त हैं और विश्व-विस्मय एक साधारण अश्व से संबंधित नहीं होते। मुनि-श्राप से यहाँ तक कि सुर भी अपनी वपु-त्याग करना जाने जाते हैं और शाप-शर्तों के अनुसार अन्य लाई गई वपु को धारण करते हैं। क्योंकि एक प्राचीन कथा है कि कैसे एक महान आत्मसंयमी ऋषि स्थूलशीर्ष ने त्रिलोक-रत्न रंभा नामक एक को श्राप दिया था और वह देवलोक छोड़कर एक अश्व-उर में प्रवेश कर गई, और अतएव जैसे कि कथा बढ़ती है, पृथ्वी पर एक दीर्घ-काल तक नृप शतवर्धन की सेवा में मृत्तिकावति में एक घोटिका (घोड़ी) के रूप में रही, और अनेक महात्मा, मुनि-शापों द्वारा महिमा-खण्डित होने से में विश्व में विभिन्न स्वरूपों में विचरे हैं। निश्चित ही यह कोई शापित उज्ज्वल आत्मा है ! मेरा हृदय उसकी दिव्यता उद्घोषित करता है।' ऐसा विचार कर वह आरोहण संग इच्छा उठा, और अश्व के निकट जाते हुए मन में अतएव प्रार्थना की : 'नेक युद्धाश्व, तुम वही हो ! तुमको नमस्कार ! तथापि अपने पर मेरी आरोहण-धृष्टता को क्षमा करो ! क्योंकि यहाँ तक कि देव भी, जिनकी उपस्थिति तिरस्कार-आस्वादन से अज्ञात है, अपने लिए सबसे मिलते नहीं हैं।'

"जैसे कि उसके विचार से ज्ञात इंद्रायुद्ध ने कनखियों से उसे देखा, पुतली घूमी और अपने केसर फटकने के दण्ड से अर्ध-बंद, और अपने दक्षिण पुट (खुर) से भूमि को बार-बार ताड़ित किया, जब तक कि उसके वक्ष-रोम उड़ती रज से धूसरित नहीं हो गए जैसे कि कुमार-आरोहण की उद्घोषणा करते हुए, एक सुखद लंबी निकली हिनहिनाहट के साथ जो मृदु कोमल ध्वनि उसकी कंपित नासिकाओं की फुत्कार में थी। तब चंद्रापीड़ इंद्रायुद्ध पर चढ़ा जैसे कि उसकी रमणीय हिनहिनाहट द्वारा अतिरिक्त निमंत्रण दिया गया हो; और आरोह कर विचारते हुए वह निकल पड़ा कि समस्त ब्रह्मांड एक सुदूर पथ है, और एक अश्वारोही दल को निहारा जिसकी सुदूरतम सीमा देखी नहीं जा सकती थी; इसने मेघों से गिरती प्रस्तर-वर्षा सम उग्र पृथ्वी पर शफों (खुर) से चोट पैदा करते हुए तुमुल संग त्रिलोक-शून्यों को बधिरित कर दिया, और धूल भरे नथुनों की एक हिनहिनाहट-ध्वनि से और भी प्रचंड; इसने नभ को एक धमकाने वाले ऋषि-वन से विभूषित कर दिया, जिसकी शाखाऐं उज्जवल चमकती थी जब सूर्य द्वारा स्पर्श की जाती थी, इसके डंठलों पर उगे नीलकमल-मुकुलों के कुञ्ज में आधा छिपे एक सरोवर समान; इसके तम से अष्ट-दिशाऐं अपने सहस्र छत्र उठाए हुए यह इंद्रधनुष की पूर्ण-चाप के उनपर पड़ने से हुए रंग-बिरंगे मेघ-समूह सम था; बाहर गिरते फेन-फलकों से श्वेत हुए अश्व-मुखों से, और उनके सतत लंघन की तरंगमय लेखा से, यह महाप्रलय-प्लुत (बाढ़) में महासमुद्र की महातरंग-संहति सम दृष्टि में उठती थी; सभी अश्व चंद्रापीड़ की निकटता पर गतिमान थे, जैसे चंद्रोदय पर समुद्र-ऊर्मियाँ (लहरें); और अपना सम्मान-प्रदर्शन की उत्सुकता में प्रथम होने हेतु राजकुमार, अपने छत्रों को शीघ्रता से हटाने द्वारा अरक्षित अपने शीर्ष लिए, और अपने अश्वों के नियंत्रण-प्रयास से क्लांत जो युवराज के चारों ओर आकर्षित एक दूसरे के पादाहतों द्वारा उन्मादित हो गए थे। जैसे बलाहक ने प्रत्येक को नाम से पुकारा, अपनी मूर्धाओं (शीर्ष) को नीचे नमन कराते हुए वे झुकें, जो उनके तरंगमयी मुकुट-माणिक्यों से उदित किरणों के छद्म-रूप के नीचे राज-भक्ति की महिमा-ज्योति दिखाती थी, और जो सम्मान में पकड़े हुए पुष्प राज्याभिषेक कलश-जल पर विश्राम करते से प्रतीत हो रहे थे। उनको नमस्कार करके, वैशम्पायन को संग लिए हुए चंद्रापीड़ भी आरोह हो सीधा नगर हेतु प्रस्थान हो गया। वह उसके ऊपर उठाई हुई सुवर्ण-दण्ड वाले एक अति-विशाल छत्र से छाया किया गया था, जो एक कमल सा निरूपण था जिसपर राजन्य-कीर्ति निवास कर सकती थी जैसे कि राजसी-कुलों के चन्द्रकमल-कुञ्जों में शशि-वृत्त, जैसे कि अश्वारोहियों की गति से निर्मित एक द्वीप, वर्ण में क्षीर-सागर द्वारा श्वेतित वासुकि के फण-वृत्त सम अनेक मुक्ता-मालाऐं पहने, जो ऊपर परिकल्पित एक सिंह-यंत्र धारण करता है। उसके कर्णों में पुष्प-कंदर्प (कौड़ी) वात द्वारा दोनों ओर नृत्य करते थे, और उसकी कीर्ति अनेक सहस्र उससे आगे दौड़ रहे युवा वीर अनुचरों द्वारा गाई जा रही थी, और चारणों द्वारा जो उच्च-स्वर में मांगलिक-छंदों में एक मृदु-क्रंदन 'चिरंजीव अजेय रहो' निरंतर गाया जा रहा था।

"और जैसे ही वह अनंग महादेव के रूप में सम, नगर की ओर अपने पथ पर गुजरा, समस्त प्रजा ने शशांक-उदय द्वारा जागृत एक राजीव-कुञ्ज सम, अपना कार्य छोड़ दिया और उसे निहारने को एकत्रित हुई।

"कार्तिकेय कुमार नाम से घृणा करता है, क्योंकि उसका अपना रूप कमल-मुखों द्वारा उपहास से देखा जाता है जब यह कुमार गुजरता है। निश्चय ही जब हम अपने अंदर से उमड़ते प्रेम-उत्प्लाव से विस्फरित जिज्ञासा-उत्सुकता में ऊपर उठी चक्षुओं संग उस देव-तुल्य रूप को निहारते हैं तो एक महागुण का पारितोषिक ग्रहण करते हैं। इस लोक में हमारे जन्म ने अब अपना फल प्रकट किया है तथापि पावन कृष्ण को नमस्कार जिसने चंद्रापीड़ का नव-स्वरूप धारण किया है।' ऐसे शब्दों से नगर-वासियों ने आदर में अपने हाथ जोड़ें और उसके समक्ष झुकें। और सहस्र गवाक्षों से जो चंद्रापीड़ की झलक पाने की जिज्ञासा से खुली थी, नगर स्वयं में खुले चक्षुओं की एक संहति बन गया था; क्योंकि सीधा यह सुनकर कि सर्व-ज्ञानों से परिपूर्ण ज्ञान-निकेतन से उसने अवकाश लिया है, उसकी दर्शन-उत्सुकता में नगर में चारों ओर रमणियाँ झटपट छतों पर चढ़ गई, अपने अर्ध-कृत कृत्यों को छोड़कर; कुछ अपने वाम-हस्त में मुकुर (दर्पण) उठाऐं पूर्णिमा-रात्रियों सम थी जब चंद्र का पूर्ण-वृत्त दीप्त हो रहा है, कुछ नूतन लाख द्वारा गुलाबी चरणों संग उत्पल-मुकुलों सम थी जिनके पुष्पों ने प्रातः अरुण-दीप्ति का पान किया था; कुछों के अपने मृदु पदों के घेरे में बँधें नूपुर (लघु-घंटिका) शीघ्रता के कारण भूमि पर गिर गए थे जो उनकी श्रृंखलाओं द्वारा नियंत्रित अति-मद्धम चलते हाथियों के समान थे; कुछ इंद्र-धनुष वर्णी परिधान में पावस ऋतु में एक दिवस-रमणी सी दिख रही थी; कुछों ने अपने नखों की श्वेत-रश्मियों में चमकते चरण उठा रखे थे, जो नूपुर-ध्वनि द्वारा आकृष्ट पालतु कृष्ण कल-हंसों सम थे; कुछों ने अपने हाथों में विशाल मुक्ता-मालाऐं पकड़ रखी थी, जैसे कि मदन-मृत्यु हेतु दारुण में अपनी स्फटिक-माला पकड़ी रति का अनुसरण करती हो; कुछ अपने वक्ष-मध्य पड़ती मोती-यष्टिओं (मालाओं) संग संध्या-महिमा संग थे जब चक्रवाक-युग्ल संकरी-धारा द्वारा विगलित कर दिए गए हों; कुछ अपनी मंजीरों (पायजेब) के रत्नों से उठती इंद्रधनुषी-मयूखों सम पालतु कपालियों (मयूर) द्वारा प्रेम संग चमकती हैं; कुछ अपने अर्ध-पिबित रत्न-जड़ित प्यालों संग आसव कर रही थी जैसे कि वे उनके गुलाबी कुसुम सम ओष्टों से एक मधुर-अमृत हो। अन्य भी, हरिताश्म (पन्ना) की जालियों के झरोखों पर अपने गोल-मुखों संग प्रकट हुई, नेत्रों को आकाश-गमन करती अपनी खुली कलियों के मृणाल-पुंज के निर्णय की तुल्यता देती है, जब उन्होंने कुमार को देखा। उनकी शीघ्र-गति द्वारा अकस्मात आभूषण-झंकार उठी, उनके तारों पर मधुर झंकृत वीणा के अनेक सुर, मेखला-परिवर्तन से निमंत्रित सारसों के क्रंदन से मिश्रित, अंतः-पुर में बंद मयूरों की पीहू- द्वारा सहगत (साथ), और स्खलित (लड़खड़ाते) चरणों द्वारा टकराने से सोपानों द्वारा उत्पन्न गर्जन से ध्वनित, (१७२) नव मेघ टकराने के भय में वातचद (फड़फड़ाने) की मर्मर-ध्वनि से मृदु, कामदेव की विजयी उच्च-घोष की अनुकृति (नकल) करते, परस्पर स्पर्श करने से प्रभास्वर (कर्णभेदता) से खनखनाते रत्नों की अपनी रज्जुओं (डोरियों) संग प्रिय रमणी-कर्णों को पाशित किए, और आवासों के सब कोनों से गूँजती। एक क्षण में कुमारी-जमघट से हर्म्य वनिताओं द्वारा भित्ति-निर्माण सा प्रतीत होने लगा; उनके लाक्ष-रञ्जित कमल-चरण पात से भूतल महकता सा प्रतीत हुआ; नगर चारु-रूपों के प्रवाह द्वारा महिमामयी जकड़ा प्रतीत हो रहा था; आकाश-वृत्त उष्मा को हटाने हेतु उठे सभी हस्तों द्वारा एक उत्पल-कुञ्ज सम भासित था; सूर्य-कांति रत्नों की किरण-पुंज द्वारा इंद्रधनुषी परिधान में आभासित थी, और विचक्षण (दीप्त) दृष्टिपात की लंबी लेखा द्वारा नील-कमल पटलों से दिवस निर्माण हुआ प्रतीत हो रहा था। जैसे ही कामिनियों ने स्तम्भित (स्थिर) एवं विकर्षित (चौड़ी-खुली) नयनों से उसको निहारा, चंद्रापीड़ का रूप उनके हृदय में प्रवेश कर गया यथा वे मुकुर अथवा वारि (जल) स्फटिक हो; और क्योंकि काम-ज्योति वहीं पर प्रकटित हो रही थी, उनका वाग्विलास (मृदु- चारु वाणी) सीधे प्रमुदित गोपनीय, भ्रमित, ईर्ष्यालु, घृणित, उपहास, विलासिनी, प्रिय या स्पृहा (अभिलाषा) से पूर्ण बन गई। क्योंकि उदाहरणतया : त्वरिता, मेरी प्रतीक्षा कर ! लोचन से पान करो, अपना प्रावरण (चुनरी) पकड़ ! मुग्धधी (महामूढ़), अपने मुख पर लटकती लम्बी अलकों को उठा ले ! अपने शशिलेखा आभूषणों को हटा ले ! कामान्धी, तेरे चरण तेरे अर्चना-पुष्पों में फँसे हैं और तुम गिर जाओगी। प्रेमोद्विग्न, अपने केश बाँध ले ! चंद्रापीड़ की दृष्टि-अभिलाषिणी, अपनी मेखला उठा ले ! निर्दयी, अपनी कर्णिका (बाली) पकड़ो ! यौवनोत्स्का, तू देखी जा रही है ! अपना उर-स्थल ढाँप ले ! निर्लज्ज, अपना शिथिलित परिधान ठीक कर ! कलात्मक कला-विहीन, शीघ्रतर चल ! कौतुहली बाला, महाराज पर एक और दृष्टि डाल ! अतृप्त, तुम कितना दीर्घ और देखोगी ? चपल- हृदयी, तुम अपने लोगों के विषय में विचारो ! नटखट छोकरी, तुम्हारा आवरण गिर गया है और तुम्हारा उपहास उड़ाया जा रहा है ! प्रेम-पूरित नयनों वाली तू, क्या तुम अपनी सखियों को नहीं देखती ? मायावी कुमारी, अकारण यातना में अपने हृदय संग तुम कष्ट में जिओगी ! लज्जा-स्वाँगी, तेरे वञ्चक-लोचनों का क्या अर्थ है ? साहस से देखो ! तारुण्य से कांतिमय, क्यों अपना भार हम पर डालती हो ? क्रुद्ध, सामने जाओ ! वक्र-दृष्टि कामिनी, गवाक्ष (खिड़की) को क्यों बंद करती हो ? प्रणय-दासी, तूने मेरी ऊपरी पोशाक बिल्कुल ध्वंश (नष्ट) कर दी है ! प्रेम-प्राण से प्रमत्त, अपने पर नियंत्रण कर ! आत्म-संयम च्युत, अपने अग्रजों के समक्ष क्यों दौड़ती हो ? बल में शुभ्र, तुम इतनी भ्रमित क्यों हो ? मंद-चेतस (मूढ़), प्रेम-ज्वर के रोमहर्ष को छिपा ! अशिष्ट लड़की, क्यों अपने को अतएव क्लांत करती हो ? प्रकृति-तरल (अस्थिर), तेरी मेखला तुझे दबा रही है, और तुम व्यर्थ सहन कर रही हो ! अन्यमनस्का, तुम अपने पर ध्यान नहीं दे रही हो, जबकि अपने निकेतन के बाहर हो ! जिज्ञासा (कुतूहल)-परिलुप्त, तुम श्वास लेना भूल गई हो ! तू अपने प्रेमी से युग्म (मिलन) की प्रसन्न-कल्पना में निमीलित, चक्षु खोलो ! वह जा रहा है ! काम-शर के आघात से संज्ञा-शून्य, सूर्य-किरणों को हटाने हेतु अपना कौशेय (रेशमी) वसन शीश पर रख लो ! तूने जो सती-व्रत लिया है, तुम अपनी दृष्टि को विलोल होने देती हो, जो देखना ही नहीं - देख रही हो ! दुष्ट, तुम अन्य पुरुषों को देखने के अपने व्रत से अधोकृत (नीचे गिरती) हो ! प्रिया सखी, कृपा-पूर्वक उठो, और सुभग मत्स्य-ध्वजाधारी (काम) को देखो, बिना ध्वज के रति से रहित, दृष्टि के समक्ष है।

उसके छत्र के नीचे मालती-कुसुमों का उसका मुकुट भ्रमर-दल द्वारा कृष्ण नीचे गिरती और रात्रि का आभास दिलाती, शशिकर (किरण) राशि सम प्रतीत होता है। उसका कपोल उसके मरकत (नीलम) कर्ण-वंतस की आभा द्वारा हरित हुआ खुले (स्फुट) शिरीष-कुसुमों की माला सम शुभ्र है। प्रेम की हमारी तरुण कांति, मुक्ता-कंठाहारों मध्य माणिक्य-रेणुओं के वेश के नीचे, उसके हृदय-प्रवेश को उत्सुक चमकता है। कर्पदों (कौड़ियों) में भी अतएव देखता है। इसके अतिरिक्त जब वह वैशम्पायन से वार्तालाप कर रहा है तो किस पर हँस रहा है जिससे उसके शुभ्र-दंतों से आकाश-वृत्त श्वेत हो गया है ? एक शुक-पक्षों सम हरित अपने कौशेय परिधान के किनारे से बलाहक अपने केशों के सिरों से अश्वों के शफों (खुर) द्वारा उठाई गई रज को हटा रहा था। लक्ष्मी के कमल-पाणि सम मृदु उसके शाखा-सम पद उठे हैं और अपने अश्व-स्कंध के पार विनोद में रखे हुए हैं। शंखनुमा ऊँगलियों सहित और पीत उत्पल-मुकलों सम उज्ज्वल उसका कर तांबूल माँगने के लिए पूरा खिंचा हुआ है, जैसे अम्बुताल को मुख में भरने हेतु उत्सुकता में एक गज-सूंड सम। वसुंधरा संग एक सौत सम वह प्रमुदित है जो लक्ष्मी भाँति उस कर को विजित करेगी ? एक महाराज्ञी विलासवती भी प्रसन्न है, जिसके द्वारा वह जन्म से पोषित संपूर्ण वसुधा को धारण करने में समर्थ हुआ, जैसे आकाश दिग्गजों द्वारा।

"और जैसे कि वे या अन्य इसी प्रकार के कथन कह रहे थे, उनके नेत्रों द्वारा पिबित चंद्रापीड़ ने, उनके आभूषणों की खनखनाहट के निमंत्रण से, उनके उरों द्वारा अनुसरित, उनके रत्न-रश्मियों की डोरियों से बद्ध, उनके नवयौवन-अर्पण से सम्मानित, एक विवाह-अग्नि सम अभिनंदन में कुसुम लाजा (खील) बिखेरे जा रहा, उनके शिथिल भुजाओं से सरकते श्वेत भुज-बंदों (कंकणों) के समुच्चयों पर एक-एक कदम बढ़ाता हुआ प्रासाद तक पहुँचा।'

[ उतरकर और वैशम्पायन पर झुकते हुए, बलाहक द्वारा अग्र-गमित हुआ, उसने सभागार में प्रवेश किया, और उपस्थित नृप-सम्बाध (भीड़) के मध्य से गुजरता हुए उसने एक श्वेत आसन पर बैठे और अपने रक्षकों द्वारा अनुशीलित अपने तात को निहारा। ]

"और प्रतिहार के कथन पर 'उसको निहारो !' कुमार, अपना शीर्ष नीचे किए और उसका मुकुट कम्पित, जबकि अभी तक दूर से ही अपना प्रणाम किया, और उसके तात ने दूर से ही क्रंदन करते हुए, 'आओ, यहाँ आओ।' अपनी दोनों भुजाऐं फैला दी, स्वयं को अपने आसन से किंचित ऊपर उठाया, जबकि उसके नयन आनंद से अश्रु-पूरित थे और उसकी वपु पुलकित हो गई, और अभिवादन हेतु नमित अपने पुत्र को कण्ठ से लगाया जैसे कि वह उसे अपने से दृढ़-सीवन (सी) कर देगा, और उसका अंतः-पान कर लेगा। और आलिंगन पश्चात, चंद्रापीड़ अपने संवर्तित (इकट्ठे हो गए) परिधान को विवृत कर (दूर हटाकर) पिता के पादासन निकट स्थण्डिल (नग्न-भूमि) पर बैठ गया, और शीघ्रता से वाग्गुलिका {मूगफल (सुपारी) लाने वाली} की सहायता से आसन में बैठा, और मृदुता से उसे दूर ले जाने को कहा, और तब वैशंपायन, महाराज द्वारा अपने पुत्र सम आलिंगन किए जाने से, उसके हेतु रखे एक आसन पर बैठ गया। जब वह वहाँ एक अल्प-काल के लिए था उस पर जैसे निस्पंद खड़ी कामिनियों के लोचनपात द्वारा आक्रमण किया जा रहा था, अपनी कर्दप (कौड़ियों) हिलाने को भूलकर, प्रेम-दृष्टि, पवन द्वारा कम्पित उत्पल-सूत्रों से लंबी, विलोलित एवं वक्र (तिरछी) चारु नयनों से वह इन शब्दों संग विदा किया जा रहा था, 'मेरे पुत्र जाओ, अपनी माता को प्रणाम करो जो तुम्हारी दर्शनाभिलाषी है, और तदुपरांत उन सबको प्रसन्न करो जिन्होंने अपनी दृष्टि-माध्यम से तुम्हारा पोषण किया है।' आदर-पूर्वक उठकर और अनुसरण करते परिजनों को विराम दे, वह वैशंपायन संग राजसी भृत्य-दल द्वारा वहाँ प्रवेश हेतु मार्ग देखता अंतःपुर में गया, और अपनी माता समीप पहुँचकर उसको अभिवादन किया।" [जैसे वह अपने दासियों और प्रौढ़-साध्वियों द्वारा घिरी बैठी थी, जो उसके हेतु शास्त्र-पाठ और गायन करती थी।]

"उसने उसको उठाया, जबकि उसकी परिचारिकाऐं जो उसके आदेश-पालन में निपुण थी उसके चारों ओर खड़ी हो गई, और एक वात्सल्यमयी दुलार से उसको एक दीर्घ आलिंगन में ले लिया जैसे कि अंतः में एक शत-मांगलिक शब्द विचार कर रही हो, और सीधे, जब लाड़-प्यार के अधिकार संतुष्ट हो गए, वह नीचे बैठी और बलात और उसकी भुजाओं में विश्राम करने को अनिच्छुक चन्द्रापीड़ को खींच लिया जो सम्मान-पूर्वक भूमि पर बैठा था; और जब सेविकाओं द्वारा शीघ्रता से लाए गए एक पीठक पर चंद्रापीड़ बैठ गया तो उसने चंद्रापीड़ को पुनः पुनः भ्रू, वक्ष स्कंधों पर प्रेम-स्पर्श किया और अनेक वात्सल्य-स्पर्श संग कहा : 'मेरे पुत्र, तुम्हारा तात वज्र-हृदयी था जिसके द्वारा समस्त ब्रह्मांड द्वारा अभिलाषित इतने ललित रूप को इतने दीर्घ काल हेतु महान श्रम वहन करना पड़ा ! तुमने कैसे अपने गुरुओं के दीर्घसूत्री संयम सहन किए ? निश्चय ही जैसे युवा हो, एक वीर पुरुष का धैर्य रखते हो ! बाल्यकाल में तुम्हारे उर ने बाल-प्रमोद क्रीड़ा हेतु निरर्थक मोह त्याग दिया है। चलो उत्तम प्राकृतिक आध्यात्मिक अभिभावकों प्रति श्रद्धा किंचित दूर है, और मैं तुम्हें तुम्हारे तात-अनुग्रह से सभी ज्ञानों संग प्रतिष्ठित देखती हूँ, अतः मैं शीघ्र ही तुम्हें सांसारिक-भार्याओं से संपन्न देखूँगी।' तथा ऐसा कहकर जैसे उसने अपना शीश निम्न किया और लज्जा में अर्ध-स्मित हुआ, उसने उसके कपोल चुंबन किए, जो उसका अपना ही पूर्ण-प्रतिबिंब था और स्फुटित उत्पलों का कंठहार पहनाया; तथा जब वह एक अल्प-काल हेतु रहा, समस्त अंतःपुर को क्रम से अपनी उपस्थिति द्वारा हर्षित किया। तब पार्थिव-द्वार द्वारा विदा लेकर, वह इंद्रायुद्ध पर आरोहित हुआ जो बाहर खड़ा था और राजकुमारों द्वारा अनुसरित होता शुकनास से मिलने गया।" [ और अनेक संप्रदायों के ऋत्विकों (पुरोहितों) से भरे एक खुले प्रांगण के द्वार पर वह अवरुढ़ हुआ।] "और शुकनास के हर्म्य में प्रवेश किया, जो एक द्वितीय राजन्य सभा सी ही प्रतीतित थी। वहाँ प्रवेश करके उसने शुकनास को एक द्वितीय तात भाँति ही अभिवादन किया जब वह सहस्र नृपों के मध्य खड़ा था, अपना मुकुट दूर से निम्न झुकाते हुए उसने अपने सब आदर उसे दिखाऐं। शुकनास ने शीघ्रता से उठते हुए, जबकि नृप भी एक के बाद एक उठे, और सीधे आदर-सहित उसकी तरफ बढ़ते हुए प्रसन्नता से चौड़ी हुई नयनों से गिरते प्रेमाश्रुओं सहित और हृदय से, और अतीव स्नेह से उसने वैशंपायन संग परस्पर आलिंगन किया। तब आदर-सहित लाए गए रत्न-विभूषित आसन को त्याग कुमार नग्न-भूमि पर ही बैठ गया, और उसके निकट ही वैशम्पायन बैठा; और जब वह पृथ्वी पर बैठा तो शुकनास के अतिरिक्त सभी नृपों का वृत भी अपने आसन छोड़कर भूमि पर ही बैठ गया। शुकनास एक क्षण हेतु निःशब्द खड़ा हो गया, अपने अंगों में हर्षातिरेग से अतीव प्रसन्नता व्यक्त करता हुआ, और तब उसने कुमार को कहा : 'सत्य ही मेरे पुत्र, अब कि महाराज तारापीड़ ने तुम्हें यौवन-प्राप्त एवं ज्ञान- धारक देख लिया है, उन्होंने अंततः ब्रह्मांड पर अपना शासन-फल प्राप्त कर लिया है। अब तुम्हारे अभिभावकों के सब आशीर्वाद सुफल हो गए हैं। अब अनेक अन्य जन्मों में अर्जित पुण्य ने फल दिया है। अब तुम्हारे कुल-देवता संतुष्ट हैं। क्योंकि जो तुम्हारी भाँति त्रिलोक को चकित करते हैं, अयोग्यों के पुत्र नहीं बनते। क्योंकि तुम्हारी वय कहाँ है ? और कहाँ तुम्हारी विभूति तथा अथाह ज्ञान तक पहुँचने की तुम्हारी क्षमता है ? हाँ, वह प्रजा धन्य है जिसने तुम्हें रक्षक-रूप में पाया है जैसे कि भरत भागीरथ। पुण्य का कौन सा उज्ज्वल कृत्य वसुधा ने किया है कि उसने तुम्हें स्वामी रूप में प्राप्त किया है ? निश्चित ही लक्ष्मी, विष्णु के उर-स्थल में निकेतन के विभ्रम में स्थिर-प्रतिज्ञ होने से उजड़ गई है कि नश्वर रुप में वह तुम्हारे पास नहीं आती ! परंतु तथापि, अपनी बाहु संग अपने कृत्य करो जैसे असंख्य युगों से अपने दंत-वृत्त से महावराह पृथ्वी-तुलन (भार) धारण किए, तुम्हारे तात की सहायता कर रहा है।' अतएव उवाचकर, और अलंकारों, वसन, कुसुम, और मरहम (लेप) सहित श्रद्धा अर्पित करते हुए, उसको विदा किया। उसके उपरांत कुमार ने उठकर और अंतःपुर में प्रवेश कर वैशंपायन की माता, जिसका नाम मनोरमा था, के पास गया और विदा लेकर अपने हर्म्य में गया। यह उसके तात द्वारा पूर्व से ही सुसज्जित करा रखा था, राजन्य-प्रासाद की ही आकृति में; इसके पुष्पहार हरित चंदन-शाखों की थी, सहस्र श्वेत-ध्वजाऐं लहर रही थी, और मरुत संगीत के मांगलिक वाद्य-स्वरों से पूरित थी, खुले अरविंद इसमें छितरित थे। अग्नि को एक आहूति अभी निष्पादित की गई थी, प्रत्येक अनुचर शुभ्र पोशाक में था, गृह-प्रवेश हेतु प्रत्येक मांगलिक संस्कार रचित किया गया था। आगमन पर वह सभागार में रखे एक आसन पर एक अल्प-काल हेतु बैठा, और तब अपने पार्थिव परिचारकों संग दिवस-कर्तव्य निर्वाह किए, स्नान से प्रारंभ कर और अंत में भोजन; और इसी मध्य उसने ही प्रबंध किया कि इंद्रायुद्ध उसके कक्ष में ही रहे।

"और उसके इन कृत्यों में दिवस अंत होने को आया; दिवस-शौर्य का सूर्य-वृत्त अपनी ऊर्ध्व मयूखों संग शोण (लाल) मणि नूपुर सम पतित हो गया - इसके विवर (अंतराल) अपने ही प्रकाश में लुप्त हो गए - जैसे वे आकाश से शीघ्रता करते हैं। और जब सायं प्रारंभ हुई, एक जगमग दीप-परिधि में चंद्रापीड़ पैदल ही महाराज के महल में गया, और अपने तात संग अल्प-समय बिताने, और विलासवती को देखने के पश्चात वह अपने आवास लौट आया और एक शय्या पर लेट गया, जो विभिन्न रत्नों की आभा से विविध-वर्णी थी, जैसे कि शेषफण पर कृष्ण।

"और जब रात्रि उषा में परिवर्तित हो गई, वह मृगया के नव-आनंद की प्रतीक्षा में अपने तात की अनुज्ञा से सूर्योदय पूर्व ही जग गया, और इंद्रायुद्ध पर आरोह हो धावकों, अश्वों हाथियों के विशाल पार्श्वचरों सहित अरण्य में गया। खरों सम विशाल श्वान-गणों को सुवर्ण-श्रृंखला में बांधे व्याधों द्वारा मार्ग दिखाने से उसकी उत्सुकता दुगनी हो गई। एक विकसित उत्पल-पल्लव सम शुभ्र शरों की मूँठ (तेजन) सहित और युवा वन्य-गजों के मस्तक-छेदन में सक्षम, उसने सहस्रों की संख्या में वन्य शूकर, सिंह, शरभ, याक और अनेक प्रकार के मृग मारे, जबकि उसकी धनुष-टंकार के भय से फड़फड़ाहट में अर्ध-बंद चक्षुओं सहित वन-देवियों ने उसको देखा। अपनी महान ऊर्जा द्वारा अन्य जंतुओं को जीवित ही पकड़ लिया। और जब भास्कर नभो-मध्य पहुँच गया, उसने वन से गृह हेतु आरोह किया मात्र कुछ राजकुमारों सहित जो उचित प्रकार से आरोहित थे, जो मृगया-घटनाओं को स्मरण करते कह रहे थे : 'अतः मैंने एक शेर को मारा, अतः एक भुल्लक, अतः एक महिषी, अतः एक कुरंग।'

"अवरोह पश्चात, उसके परिचारकों द्वारा शीघ्रता से लाए गए एक आसन पर वह बैठा, अपने कवच (कञ्चुक) को उतार दिया, और अपने अन्य शेष आरोहण-वसनों को त्याग दिया; तब उसने अल्प-काल विश्राम किया जब तक कि उसकी श्रांत (थकान, क्लान्ति) विलोलित (हिलाए जा रहे) चँवरों की वात द्वारा हट गई थी; विश्राम पश्चात्, वह स्नान-गृह में गया जिसमें एक शत स्वर्ण, रजत और रत्न-जड़ित कलश रखे थे और इसके मध्य एक सुवर्ण-आसन रखा था। और जब स्नान पूरा हो गया, और एक अन्य कक्ष में वस्त्रों द्वारा पौंछा गया, उसके शीर्ष को शुद्ध क्षौम (लिनेन) से ढ़का गया, उसके परिधान पहनाए गए, और उसने देवों की अपनी आराधना निष्पादित की; और जब उसने इत्र (धूप-सुवास) कक्ष में प्रवेश किया, वहां राजकीय सेविकाओं ने उसकी अगवानी की, प्रधान-कंचुकी (महा-अंतःपुर रक्षिका) द्वारा नियुक्त और महाराज द्वारा भेजी गई, कुलवर्धना सहित विलासवती की दासियाँ, और संपूर्ण अंतःपुर से भेजी गई कामिनियाँ पिटकों (पेटियों) में विभिन्न आभूषण, मालाऐं, अंजन-लेप और वस्त्र, जिनको उन्होंने उसको भेंट किया। दासियों से लेकर उनको उचित प्रकार से पहनकर उसने प्रथम वैशंपायन का अभिषेक किया। जब उसका अपना उपलेपन (अभिषेक) किया गया, और अपने निकटवर्तियों को, जो वहाँ उपस्थित थे, कुसुम, इत्र, वस्त्र और रत्न देकर वह शिशिर-नभ नक्षत्रों से दीप्ति जैसे एक सहस्र रत्न-जड़ित पात्रों में समृद्ध सभागार में गया। वह वहाँ एक दोहरे कालीन पर बैठ गया, और वैशम्पायन उसके आगे, उत्सुकता से नियुक्त, जैसा कि अपने गुण-श्लाघा में उपयुक्त था, और राजकुमारों का दल भूमि पर वरीयता-क्रम में बैठा, अति-कुतूहल देखने से वर्धित उनकी सेवाओं के हर्ष को अनुभूत करके युवराज ने कहा : ' यह उसे दिया जाए, और यह उसे।' और अतएव उसने प्रातः का कलेवा ग्रहण किया

"अपना मुख परिक्षालन (कुल्ला) और ताम्बूल (पान) लेने के उपरांत, वह वहाँ एक अल्प-समय ठहरा, और तब इंद्रायुद्ध के पास गया, और वहाँ बिना बैठे जब उसके सेवक मुख उठाए उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा और अधिकतर इंद्रायुद्ध के बिंदुओं का वार्तालाप करते खड़े थे, उसने स्वयं इंद्रायुद्ध के गुणों द्वारा उन्नत-उर सहित, उसके समक्ष यवस (चारा) बिखेरा, और विदा लेकर सभागार में गया; और उसी परिचारकों के क्रम में महाराज से मिला, और आवास लौटकर वहाँ रात्रि बिताई। अगले वार भोर में उसने कैलाश नामक एक कंचुकी को आते देखा, जो अंतःपुर का मुखिया और महाराज का अति-विश्वासी था, अपने संग कुलीन-रूप की एक कन्या को संग लिए जो अपने प्रथम-यौवन में, राजमंदिर के अपने जीवन से स्वयं-संपन्न, अभी तक कौमार्य-अच्युत, (२०३) कुमारी-भाव से बढ़ते, और हरिगोपक (कृमि) संग रक्तिक कौशेय (रेशम) के अपने आवरण में, शीघ्र भास्कर उदय में आच्छादित पूर्वी दिशा से मेल खाती थी। और कैलाश ने निकट आते और नमन करते हुए अपना दक्षिण पाणि (कर) भूमि पर रखकर निम्न प्रकार से उवाच किया :

"कुमार, महारानी विलासवती ने मुझे यह कहने का आदेश दिया है : "यह पत्रलेखा नाम की कन्या, कुलुता-नृप की पुत्री महाराज द्वारा कुलुता की राजधानी की अपनी विजय पर बंदियों सहित लाई गई थी जब वह तब तक एक नन्ही बालिका थी, और अंतः-पुर वनिताओं के मध्य रखी गई थी। और उसके प्रति मुझमें मृदुता जागृत हुई, और यह देखकर कि वह एक नृप-कन्या एवं अरक्षित है, और वह दीर्घकाल से मेरे द्वारा एक पुत्री भाँति ही चिंतित पोषित की गई थी। अतः, अब मैं इसे तुम्हारे पास भेजती हूँ यह विचारकर कि वह तुम्हारी वाग्गुलिका (पान लाने वाली) के रूप में उपयुक्त रहेगी; परन्तु वह तुम्हारी अन्य सेविकाओं भाँति किञ्चित भी देखी जानी चाहिए, अनेक दिवसों के महान युवराज, तुम्हारी अपनी प्रकृति सम वह भी है अविवेक से रक्षित की जानी चाहिए; वह एक शिष्या सम ही देखी जानी चाहिए। एक मित्र सम, उसे तुम्हारे सब गोपनीय बताए जाने चाहिए। एक दीर्घ समय से उत्पन्न स्नेह कारण, मेरा हृदय उसपर अपनी पुत्री सम विश्राम करता है; और वह एक महान कुल-उत्पन्न ऐसे कर्तव्यों हेतु उपयुक्त है; सत्य में, वह कुछ अह्नों (दिनों) में अपनी परिणत सौम्यता द्वारा, कुमार को सुरुचिकर लगेगी। उसके हेतु मेरा वात्सल्य दीर्घ वृद्धि का है, अतः बलवान है; किंतु जैसे कि कुमार अभी तक उसके चरित्र से अज्ञात है, उसे यह बताया गया है। प्रसन्न पार्थिव, तुमने अपने सभी प्रकार से प्रयास करना है कि वह तुम्हारी दीर्घकालिक उपयुक्त सखा रहे।" जब कैलाश यह बोल चुका और शांत हो गया, चन्द्रापीड़ ने दीर्घ अविचलित पत्रलेखा को देखा जैसे उसने एक शिष्ट प्रणाम किया और इन शब्दों के साथ, 'जैसे मेरी माता की इच्छा' कहकर कंचुकी को विदा किया। और पत्रलेखा अपनी उसके ऊपर प्रथम-दृष्टि से ही उसके हेतु श्रद्धा-पूरित हो गई, और कदापि चाहे रात्रि हो अथवा दिवस, युवराज का साथ नहीं छोड़ती थी, चाहे वह सो रहा हो अथवा बैठा अथवा खड़ा या चलता या सभागार में जाता, जैसे कि वह उसकी अपनी छाया हो; जबकि वह उस हेतु एक अति-वात्सल्य अनुभव करता था, जो उसपर अपनी दृष्टि-प्रारंभ से ही निरंतर वर्धित हो रहा था, वह प्रतिदिन उस हेतु अधिक कृपा दिखाता था, और उसे अपने सभी रहस्यों में सम्मिलित करता है जैसे कि वह उसका अपना उर हो।

......क्रमशः   

हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(१५ दिसंबर, २०१८ समय ११:२४ रात्रि)

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