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Thursday 23 October 2014

उज्ज्वल-पक्ष

उज्ज्वल-पक्ष 
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कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते, जब वे भी हाड़-माँस के हैं 
कैसे स्थापित होते प्रयत्नों में, अत्यधिक दूरी तय कर जाते। 

मनस्वी मन-तहों तक जा, आचरण की क्षीण ईंट करते उचित 
बनते सतत प्रहरी स्वयं के और अपने बेहतर की आशा करत। 
जीवन उच्च-शिखर ओर इंगित हो, कुछ भी कसर न छोड़ते 
जगाकर अपने क्षीण पक्ष, अभ्यास सतत से सशक्त करते। 

नहीं है आसान इतना भी, जब दुर्बलता अविश्वास जगाए 
कौन छेड़े अनछुए पहलुओं को, क्यों मीठी नींद को खोए। 
मानव के अंदर छुपे हुए शत्रु और उसे वे घायल करते 
सतत युद्ध यूँ चलता रहता, कभी जीता कभी हर्षाए। 

स्व-पक्ष को मज़बूत करना, मन-मस्तिष्क को दुरस्त करना 
निकाल बाहर नकारात्मकता को, व्यव्हार निज सुदृढ़ करना।  
जीवन की एक शैली बना लो, जिसमें आत्म -विश्वास हो भरा
फिर तुम्हें अपनी ही नहीं, बल्कि संगियों को भी साथ लेना। 

यह जग स्वार्थों में मस्त, केवल वर्तमान की परवाह करता 
यदा-कदा भूत से प्रभावित, तथापि अबों की चिन्ता करता। 
बहुत बार परेशान सा, स्व-क्षीणताओं को महसूस करता 
मन तो न बदला, औरों की दुर्बलता भी निज मान लेता। 

क्यों है यह भ्रामक स्थिति, सु-गंतव्य पर नहीं नज़र 
मन-मीत को जगा, उसको बना स्नेहिल एवं मृदुल। 
आगे बढ़ने के कौन मार्ग, जिनका करना अनुसरण 
सर्व-ज्ञान निकट होते भी, अबोध पाता इस समय। 

दूर है एक तारा, मारूँ छलांग और तोड़ लाऊँ उसे 
दूरी बहुत, चाहिए प्रयास महद, अनवरत साहस कुँजी है। 
इस जग की प्राथमिकताऐं देखें, तो भरी बहुत अवाँछित   
निज-प्राथमिकता समझो, अर्जुन भाँति करो मीन-लक्षित। 

अनेक अविष्कार, वृहद गाथा व जग-समझ स्वस्थ-मन से 
न वे रहे पर-छिद्रान्वेषी पर स्वयं को बहुत ही सुधारते।  
कैसे बनें स्वयं और अन्य भी योग्य इसमें आहुति डालते 
जितना बन पाए उतना देते हैं नहीं अटकते, भ्रांत रहते। 

पर क्या उनका द्वंद्व न स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते 
अपने से उठकर वे संसार में कुछ सार्थक रचना करते। 
कैसे बनें आत्म-विजयी व कौन प्रेरणा कराती है अद्भुत 
न मुझ-मम में खोए रहते, अपितु कुछ ठोस जाते कर। 

मनन क्यों न आता स्व से ऊपर, बाह्य-सौंदर्य अहसास 
जीवन-अनुपम चिंतन कैसे हो बाहर, रूबरू हो जाए। 
पकड़ ले कूची, लेकर रंग-रोगन उकेरें कुछ सुन्दर  
अति मन-भावन रचना, स्व-संग अन्य भी रोमांचित। 

जीवन के कण-कण से, हर क्षण का बेहतर निर्माण  
चित्रित करते स्वयं का ही, बाहर तो बस दिखावा है। 
हममें से कुछ देख लेते, वरन अपने से ही किसे फुर्सत 
जब फिर उपभोग में व्यस्त, व सोचते उपयोगी हैं हम। 

इस कलम को कुछ अंदर से, बाहर भी चाहिए मोड़ना 
कब तक अपने में व्यथित, जब बाहर भी आवश्यकता। 
 निकलो, उठाओ उपकरण प्रगति के, सर्वस्व को झोंक दो 
फिर सम्भावना अन्य कुछ सक्षमों की श्रेणी में आने की। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
23 अक्टूबर, 2014 समय 17:02  
(मेरी डायरी दि० 4 अक्टूबर, 2014 ब्रह्म-महूर्त 4:48 से )

  

1 comment:

  1. Puran Mehra : Your poems are literary pieces. One has to read more than once to understand its meaning. These are mostly related to environment we live in.

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