यायावरी उत्कण्ठा
वह अद्भुत मन का स्वामी, खुली आँखों से विश्व - भ्रमण करता
एक ही जगह नयापन कम होता पर घुम्मकड़ी तो सदा ताज़ा रखती।
एक स्थान रहते-2 हम वातावरण से सामंजस्य बनाते
प्रकृति से एक-रूप होते और अपने लिए कुछ स्थान बनाते।
सबसे जुड़ा तो तब भी नहीं संभव फिर भी तो अपनापन लगता
और हम अपनी छोटी सी दुनिया को ही, समस्त जग समझ बैठते।
पर यायावरी घुम्मकड़ के लिए तो समस्त विश्व अपना क्षेत्र है
वे निकल पड़ते मन में साहस लिए नवीनता से संसर्ग करते।
उनका दृष्टिकोण सर्व-व्यापी है और मानवता-समर्पित होता
नए लोगों, वातावरण से सम्पर्क, वृहदता को बढ़ावा देता।
कितना अल्प है हमारा स्व, ज्ञात होता जब गोता महासमुद्र में लगाते
आँखें विस्मृत हो जाती और नव-अनुभव रोमांच बढ़ाते।
विचित्र नजारें मन-मस्तिष्क आन्दोलित करते और स्मृति प्रखर होती
सबसे जुड़ने की चाह तो और अधिक स्फूर्ति बढ़ाती।
देखने का सामर्थ्य समस्त ब्रह्माण्ड को और इसकी प्रक्रिया समझना
समस्तता में अपनी भी भागीदारी, उन्हें पूर्ण विश्व-नागरिक बनाती।
वे कण-कण में विद्यमान हैं अनन्तता के और उसे महसूस करते
जीवन सभी का उनका ही है, इसी से उन्हें सन्तुष्टि मिलती।
मेल-जोल अन्य सहचरों से यात्रा को सुगम बनाता
एक-दूसरे से सहयोग और प्रेम रिश्तों में मधुरता लाता।
वे बनते एक-दूजे के पूरक क्योंकि यात्रा अति-कठिन है
वे हिल-मिल जाते जल्द ही नव-प्रकृति में और सब एक सार लगता।
जीवन भी अद्भुत यात्रा है और कितने रहस्यों से अवगत कराता
आकाश-पाताल-धरा सब कुछ ही तो इस यात्रा का क्षेत्र होता।
ज्ञानेन्द्रियाँ इसमें सहायक होती और प्रबल निडरता आगे बढाती
विविधताएँ विस्तरित स्थान-स्थान पर, अपनी प्रगति में सहायता करती।
अल्प-जीवन पर जिजीवाषा अति-तीक्ष्ण, एक पल विश्राम न लेने देती
आंदोलित कराती मन-प्राण को और सम्पूर्णता निकट का प्रयत्न करती।
दिन-रैन नए विषयों का अध्ययन और मानव-विस्तार से रूबरू होने का
अपना क्षेत्र कैसे बढ़े बौद्धिकता में, इसी पर समस्त मन्त्रणा होती।
सभ्यता एक तुलनात्मक स्थिति है और निस्सन्देह मात्राऐं भिन्न हैं
पर मानव मन तो अमूमन, सर्वत्र एक जैसा ही विकसित हुआ है।
कुछ रखते खुले नेत्र प्रकृति का मनन, बखान करने को
माना सब सच नहीं भी होता तो भी मन से प्रयास करते हैं।
बहुत गहरा रिश्ता है हम सबका, आओ कुछ और मित्र बनाऐं
नए लोग, नया साहित्य, नए क्षेत्र और नई संस्कृतियों से सम्पर्क बनाऐं।
आओ बाँटें एक-दूजे के अनुभव और परस्पर जीवन महकाऐं
अपने समर्थों का करें सम्मान और क्षीणों की मदद को आऐं।
विशाल मन के बनों स्वामी और रखो सब कृपणता, अधमता दूरी पर
होवों निर्मल मनों के संगी और कुछ दुष्टता तो कम करों।
बहुत जवाबदेही है इस जग में, आए हो किसी परम-उद्देश्य हेतु
चल पड़ों अपनी मंज़िल की खोज़ में, ढूँढने उपकरण सुधार के।
राहुल सांकृत्यायन का 'घुम्मकड़ -शास्त्र ', गत दो-तीन दिनों से पढ़ रहा हूँ
बहुत मानव बनाने का प्रेरक यह महामानव, सदा आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करता।
मैं भी बनूँ कुछ योग्य, अन्य नहीं तो अपनी नज़र में ही
तोड़ दूँ सब बंधन वे जो कहीं भी जकड़े रखे हैं।
पवन कुमार,
18 अक्टूबर, 2014 समय 22:23
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी दि० 8 अक्टूबर, 2014 समय 9:35 प्रातः से )
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