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Sunday 14 September 2014

मन विचक्षण

मन विचक्षण 
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मनन निराला, कर्म अनोखे, सचमुच ढंग है विचित्र 
विरला उनका समस्त आचरण, दृष्टि चहुँ ओर इंगित। 

वे खोजते अपने निज को, तजकर सब बाह्य अवरोध 
कलम को बना निज-मित्र, चल पड़ते किंचित अन्वेषण। 
सोचते कि कुछ अलग करूँ, जो अब तक न आया मन 
इच्छा से वृहद-पहचान कर नूतनता में बढ़ाते कदम। 

यहाँ प्रतिक्षण नूतन ही, आवश्यकता बस पहचान की 
यूँ तो हमें एक जैसा ही लगता, यथार्थ में पर सही नहीं। 
हर श्वास यहाँ नया है, पुराने की निरन्तरता में आगमन 
सर्व-अवययों में प्राण-दान, कुछ तोड़कर नव-निर्माण।  

फिर क्यों न मचलूँ निज लघु-मन की चिंतन-विस्तृतता में 
आकाश में घटनाओं का चक्र अति-विशाल बुद्धि-पार है। 
जिन तारों को आज देखते, वे अति-पूर्व का प्रतिबिम्ब है 
प्रकाश गति माना सर्वाधिक, पर दूरी भी तो विशाल है। 

जिन विषयों को हम आज सोचते, उनका बीज़ है पुरातन 
धीरे-२ घटित होता जाता, समय आने पर होता मुखरित। 
अभ्यास हम मन में करते और बहुत कुछ रखते छुपाकर 
सोचते बहुत कुछ, कम बोलते और कर्म में अति-निम्नतर। 

हम सब एक संसार लिए हैं शायद बाह्य से अधिक ही 
माना कि न प्रकटीकरण, कारण शायद कि आता नहीं। 
जग-विचित्रता को हम ही बढ़ाते, स्वयं के साथ ही रहते 
जितना खोजा उससे अधिक पाया, मात्र गोता लगाने से। 

उस वृहदता के अंश हम भी, पर कितना महसूस करते 
कैसे प्रवेश करें व सीखे मार्ग, इस पर विचार तो करते। 
मैं पाता सब डूबे हुए, बाह्य-आँखें खुली पर अंतः झाँकती 
वे खोजती निज-बारीकियों को, व समस्त से बात करती। 

मन की आँखें खुली बहुत हैं फिर भी दृश्य तो अति-महान 
जितना देखो उतना कम है, और चर्चा तो नितांत-कठिन। 
हम फिर मनको दौड़ाते रहते, सीखने को नित नई विधा 
निरंतर करते स्वयं-सुधार, कथन को कुछ आत्म-कविता।   

बनूँ निपुण और स्वयं का साथी, ऐसी मन की है आशा 
विचरूँ बहुत और देखूँ-समझूँ, इस सबकी ही कामना।  
निज-संसार को संपूर्णता से जानूँ, अनेक विद्या अनुपम  
मूढ़-सम ना जीवन बीते, कुछ खोजो सीखने का मन्त्र। 

माना कि तुम बहुत विशाल हो, पर सब अन्धकार में है 
प्रकाश आया तो भी कुछ दृश्य बहुत ही विस्मयकर हैं। 
कुछ तो समझ न आता, बस यह कलम चला ही लिखती 
स्व-नादानियों से जूझती, अति-कठिन से सामना करती। 

जितना चला उतना कष्टकर ही पाया, कुछ मार्ग न सूझे 
लगा कि सर्व ही अज्ञान, और प्रक्रिया का पता नहीं है। 
विशेष ज्ञान-पुस्तकें छोड़कर, खुद से ही लड़ा करती 
फिर लघु-२ जानने से ही, दूरी पूर्णता से पटा करती। 

क्यों चला मन-राह, इस प्रश्न का उत्तर समझ आता नहीं 
यह कलम चल रही, क्या कह रही, सब बातें रहस्य की। 
मेरे मन की क्या है औषधि, कुछ ज्ञान यदि यह पा लें तो 
 नित्य नए मृदुल-सुर निकाले, तभी तो कुछ नूतनता है। 

मैं चला कहाँ से व पहुँचा कहाँ, क्या हूँ उचित मार्ग पर 
बात प्रारंभ चहुँ ओर की, पर खुद में ही हो गया लुप्त। 
मैं तो इससे निकलना चाहता, ज्ञान मार्ग में है बढ़ना पर 
वही राह दिखाता, वर्धन-शक्ति अतिरिक्त अंतः-गमन। 

मैं यह विश्वास करूँ कि मन-उदय व विकास तो संभव 
 प्रयास उसके लिए जितना चाहिए, उतना तो है वाँछन। 
न रुकना मनन-ज्ञान पथ पर, चाहे बाधा हो अति-महद 
उलझन से जूझना मानव-फ़ितरत, नव-प्रयोग वाँछित। 

पवन कुमार,
१४ सितम्बर, २०१४ समय १७:१३ 
( मेरी डायरी दि० १० मई, २०१४ सुबह ०९:५२ से )

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