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Sunday 13 January 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -५ (भाग -२)

परिच्छेद -५ (भाग -२)
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"कुछ दिवस पश्चात एक सुमंगल दिवस, एक सहस्र-मुखियों से घिरे महाराज ने शुकनास की सहायता से अभिषेक-कलश को ऊपर उठाया, और स्वयं अपने पुत्र को अभिषिक्त किया, जबकि अन्य संस्कार कुल-गुरु (पुरोहित) द्वारा नियोजित किए गए। अभिषेक-जल प्रत्येक पावन सर, सरिता समुद्र से लाया गया था, प्रत्येक पादप, फल, मृदा, और रत्न से वृत्त, प्रसन्नता-अश्रुओं से मिश्रित एवं मंत्रों द्वारा पावनित। उसी क्षण ही, जब कुमार अभिषेक-जल से आर्द्र था, राजन्य-महिमा बिना तारापीड़ को त्यागे उस पर चली गई जैसे अपने वृक्ष से अभी तक चिपकी एक लता अन्य पर चली जाती है। सीधे वह अन्य समस्त अंतःपुर रानियों द्वारा उपस्थित विलासवती द्वारा शीर्ष से चरण तक अभिषेक किया गया, और मृदु-वात्सल्य से भरपूर, चंद्र-किरणों सम श्वेत मधुर चंदन से। उसे नव श्वेत-पुष्पों की माला पहनाई गई, गोरचना-रेखाओं से अलंकृत किया गया, दुर्व-पर्ण के कर्ण-फूल से सजाया, शशि सम शुभ्र दीर्घ-आँचलों वाले दो नव-कौशेय (रेशमी) दुकूलों में पहनाया; कुल-पुरोहित द्वारा उसके कर-वृत्त में एक कवच बाँधा गया; और उसका वक्ष एक मुक्ता-कंठहार से वृत्त, जैसे उषाकाल में सप्तर्षि-वृत्त उसके राज्यभिषेक को देखने नीचे उतरा है, नव-राजन्य के पार्थिव (राजसी) भाग्य के उत्पल-सरोवर से तन्तुओं पर बँधे।

"उसकी वपु को परस्पर-गुँथे श्वेत-कुसुमों की मालाओं द्वारा सम्पूर्ण छिपा देने से और शशि-मरीचियों सम मृदु उसके जानुओं तक लटकने से, और अपने हिमानी दुकूल पहनने से वह अपने स्थूल केसर हिलाता हुआ नरसिंह सम था, अथवा अपने बहते प्रपातों (नालों) संग कैलाश, अथवा स्वर्गिक-गंगा के उलझे उत्पल-तंतुओं से कर्कश ऐरावत, अथवा शुभ्र-फेन के फलकों संग सर्वत्र आच्छादित क्षीर-सागर।

"तब उसके तात ने उस समय हेतु स्वयं अन्तःपुरम-रक्षक का राज-दंड उसको मार्ग दिखाने हेतु लिया, और वह सभागार में गया और राज-सिंहासन पर विराजमान हुआ, जैसे मेरु-शिखर पर मयूर। तब, जब वह नृपों से उपयुक्त सम्मान पा चुका, एक अल्प-विराम पश्चात विशाल भेरी (नगाड़े) ने सुवर्ण-छड़ियों के प्रहार से उसकी विजय-यात्रा का अत्युच्च-गूँज से नंदी-घोष किया। इसकी ध्वनि प्रलय-दिवस पर एकत्रित मेघ-गर्जन सम था। अथवा मंदर द्वारा सागर पर प्रहार; या भूकंपों द्वारा पृथ्वी-नेमि (आधार) जिससे युगांत हो गया; अथवा एक विप्लवी-घन (मेघ) अपनी तड़ित-चमकों द्वारा; अथवा महावराह के थूथन-प्रहारों द्वारा पाताल-शून्य। तथा इसके स्वर से विश्व के आकाश (शून्य) फूल गए, खुल गए, पृथक हो गए, बिखर गए, पूरित हो गए, प्रभाकर-मुखी हो गए, और गहन हो गए, और गगन को संभाल (पकड़े) रखने वाले बंधन शिथिल हो गए। इसकी प्रतिध्वनि ने त्रिपुर-भ्रमण किया; क्योंकि यह पाताल में अपने सहस्र फण उठे भय में सीधे खड़े हुए शेष द्वारा आलिंगन (अंक)  में थी; यह गगन में विरोध में अपने दंतों द्वारा ऊपर उठते दिग्गजों द्वारा चुनौती दी गई थी; यह डर कि अपनी हिनाहिनाहट में अपनी मूर्धाओं (शीर्ष) को उछालते हुए सूर्य के अश्वों द्वारा नभ में भास्कर की दिशा में घूमने से सम्मानित था; कैलाश पर्वत पर आश्चर्यजनक रूप से शिव-वृषभ द्वारा इसका उत्तर दिया गया था, प्रसन्नता से रँभाने संग इस विश्वास में कि यह उसके स्वामी का उच्च-स्वर अट्टास है; इसका मेरु में ऐरावत द्वारा गहन चिंघाड़ से संपर्क हुआ; देव-सभागार में इसका यम-महिष (भैंसा) द्वारा आज्ञा-पालन हुआ, इस विस्मयी ध्वनि से क्रोध में अपने मुड़े हुए शृंगों  (सींगों) को इधर-उधर घुमाने सहित; और यह विश्व के रक्षक-देवों द्वारा एक भय में सुना गया।

"तब, नगाड़े की भेरी पर सभी दिशाओं से "जय हो" के एक नाद द्वारा अनुसरण होता, चंद्रापीड़ सिंहासन से नीचे आया, और उसके संग उसके शत्रुओं की महिमा भी चली गई। एक सहस्र भूपों द्वारा पीछे चलते हुए उसने सभामंडप को त्याग दिया, जो उसके चारों ओर शीघ्रता से उठे, सर्व-दिशा विशाल मणि बिखेरते हुए जो उनकी माल्या-सूत्रों से गिरे थे जैसे कि वे परस्पर टकरा रहे थे, जैसे विश्व-विजय हेतु उनके प्रस्थान हेतु एक मंगल-सूचक रूप भाँति बिखेरे गए सुललित लाज (खील, चावल) वह कल्प-तरुओं के श्वेत- मुकुलों मध्य मंदार (मूँगा) वृक्ष सम प्रतीत होता था; अथवा अपने शुंडों से जल द्वारा भिगोते दिग्गजों मध्य ऐरावत; अथवा नक्षत्र बिखेरते नभ-मंडल संग स्वर्ग; अथवा सदा भारी जल-बिंदु पतित करती पावस सम।

"तब सभी मंगल-सूचकों से विभूषित एक यात्रा हेतु महावत द्वारा एक कुंजर (हस्ती) शीघ्रता से लाया गया, और अंततः आसन पर पत्रलेखा को बैठाया गया। उसके बाद कुमार को आरूढ़ किया गया, और मुक्ता-जड़ित एक शत-सूत्रों के छत्र की छाया नीचे, रावण-बाहुओं पर निष्ठ कैलाश सम चारु, और उछलते पर्वत नीचे क्षीरसागर-जलार्वत (भँवर) सम शुभ्र, उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की। और जैसे ही वह अपने प्रस्थान में रुका, उसने तेज सूर्य-कांति से कपिल दस-दिशाओं का अवलोकन किया। नृपों के चमकते मुकुट-रत्नों के पिघले हुए लाक्ष को पिछाड़ते हुए, जो उसे परकोटे के पीछे छिपे हुए मुखों द्वारा देख रहे थे, जैसे कि प्रकाश उसकी अपनी महिमा-अग्नि था जो उसके राज्याभिषेक पश्चात चमक रहा था। उसने पृथ्वी को उज्ज्वल देखा जैसे कि उसके उत्तराधिकारी अभिषेक से वह उसकी महिमा हो, और नभ-ज्वाला सहित रक्तिम था जो उसके शत्रुओं के त्वरित विनाश को उद्घोषित करता था, दिवस-प्रकाश उसके स्वागत को आई पृथ्वी की लक्ष्मी-चरणों के लाक्ष-रास संग गुलाबी था।

"मार्ग में अपने सहस्र हस्तियों द्वारा भ्रम में नृप-वृत हिला, उनके छत्र भीड़ के दबाव में टूटे, उनके मुकुट-रत्न नीचे गिरते जैसे कि नमन में झुकते उनके सिरताज। जैसे ही एक विश्वासपात्र सेनापति ने उनके नाम पुकारे, अपने कर्ण-भूषण नीचे लटकाते और कपोलों पर गिरते हुए आभूषणों संग इन्होने उसके समस्त निम्न नमन किया।

"गंधमादन हस्ती ने युवराज का अनुसरण किया जिसके घन-सिंदूरी गुलाबी मुक्ता कर्ण-वन्तस (आभूषण) भूमि तक लटक रहे थे, उसका मस्तक श्वेत-पुष्पों की अनेक मल्याओं द्वारा अलंकृत था, जैसे संध्या के सूर्यप्रकाश संग मेरु इस पर विश्राम कर रहा है, गंगा के श्वेत निर्झर इसके सर्वत्र गिर रहे हैं, और इसके शिखर पर एक नक्षत्र-मंडल की रुक्षता दीप्त है। चंद्रापीड़ से पहले अपने अश्वपाल के नेतृत्व में इंद्रायुध गया, जो केसर-सुवासित था, और अपने अंगो पर सुवर्ण साजो-सामान की चमक से अनेक-वर्णी था। और अतएव अभियान शनै पूर्व दिशा ओर प्रारंभ हुआ।

"तब समस्त सेना ने हस्ती-कदमों द्वारा कंपित छत्रों के अपने वन सहित आश्चर्यजनक उत्पात संग प्रस्थान किया, जैसे एक प्रलय-सागर एक सहस्र चंद्रमाओं की अपनी प्रवर्धित तरंगों पर प्रतिबिंबित हुआ भूमि पर प्रलय कर रहा है।

"जब युवराज ने प्रासाद छोड़ा, वैशम्पायन ने प्रत्येक मांगलिक संस्कार परिणत किया, और तब, श्वेत वस्त्रों में श्वेत कुसुमों के आवरण में लिपटा, शक्तिशाली नृपों की एक महान सेना द्वारा संग किया गया। एक द्रुत गज पर आरोह कर, और जैसे चंद्र सूर्य की ओर खिंचता है, एक श्वेत आतपत्र (छत्र) द्वारा आच्छादित युवराज के निकट अनुसरण होते, उसके निकट आकर्षित हुआ। सहसा पृथ्वी पर सब ओर से कोलाहल सुनाई दिया : 'युवराज ने प्रस्थान कर लिया है।' और आगे बढ़ती सेना के भार से धरा हिल उठी।

"एक ही क्षण में, पृथ्वी ऐसे प्रतीत हुई जैसे कि यह अश्व-निर्मित हो; क्षितिज, हाथियों की; वायुमंडल, छत्रों का; व्योम, पताका-वन का; समीर, मद-सुवास का; मानव-जाति, नृपों की; नयन, रत्न-मरीचियों की; दिवस, मुकुटों का; ब्रह्मांड, 'जय हो' के नाद का।

"सेना के आगे बढ़ने पर दिवस मृणाल-उत्पाटन (उखाड़ते) करते गज-यूथ सम धूलमय था, अथवा त्रिलोक-लक्ष्मी को आवरण करता एक मुखपर (चिलमन) दिवस पार्थिव हो गया था; दिशाऐं मृदा-प्रतिमान हो गई थी; ऐसा लगता था कि नभ रज-व्यवस्थित हो गया था, और संपूर्ण ब्रह्मांड का मात्र एक तत्व-निर्मित प्रतीत होता था।

"जब क्षितिज पुनः स्पष्ट हो गया, समुद्र से उदित प्रतीत होती शक्तिशाली सेना को देखकर वैशम्पायन विस्मय-पूरित हो गया, और प्रत्येक दिशा में अपनी दृष्टि घुमाते हुए चंद्रापीड़ को कहा : 'कुमार, बलशाली महाराज तारापीड़ द्वारा क्या अविजित करना शेष रह गया है जिसको तुम द्वारा जीतना है ? कौन से क्षेत्र अमर्दित हैं, जो तुमने दमित करने हैं। कौन से दुर्ग अभी अप्राप्य हैं, जो तुम द्वारा लिए जाने हैं ? कौन से महाद्वीप अस्वीकृत हैं, जो तुम द्वारा स्वीकार होने हैं ? कौन से वैभव अप्राप्त हैं जो तुम द्वारा प्राप्त होने हैं ? कौन नृप पराभूत नहीं किए गए हैं ? किसके द्वारा अभिवादन हेतु उठाए गए नव-मृणालों सम पेलव (कोमल) कर शीर्ष पर नहीं रखे गए हैं ? सुवर्ण-पत्रों द्वारा वृत्त किसकी भुजाओं ने उसके सभागार-कुट्टिमों (फर्श) को नहीं परिमार्जित (चमकाया) है ? किसके मुकुट-रत्नों ने उसकी पादपीठक को नहीं रगड़ा है ? किसने उसके कार्यालय के अनुचरों को स्वीकार नहीं किया है ? किसने उसके चँवर नहीं डुलाऐ हैं ? किसने 'जय हो' का नाद नहीं उठाया है ? किसने अपने मुकुटों के मगर सहित, पावन निर्झर सम उसकी चरण-कांति का पान नहीं किया है ? इन सभी राजकुमारों हेतु, यद्यपि ये सेना-गर्व सहित रंजित हैं, चार-समुद्रों में छलॉंग लगाने हेतु अपनी धृष्टता में तत्पर हैं; यद्यपि वे महान सम्राट दशरथ, भागीरथ, भरत, दिलीप, अलर्क और मानधात्री सम हैं; यद्यपि वे सोमरस पान करने वाले अभिषिक्त राजकुमार हैं, जन्म-गर्व में धृष्ट, तब भी वे मांगलिक-चिन्ह के तुम्हारे चरण-रज की जल-अभिषेक की बौछारों संग पवित्र मुकुट-लड़ियों को धारण करते हैं, एक भस्म-कवच सम। नूतन उत्तम पर्वतों भाँति उन द्वारा वसुंधरा धारण की जाती है। उनकी ये सेनाऐं जो दस क्षेत्रों के हृदय में प्रवेश कर चुकी हैं, मात्र तुमको अनुसरण करती हैं। (२३६) क्योंकि देखो ! जहाँ भी तुम्हारी दृष्टि पड़ती है, पाताल सेनाओं को सामने वमन सा करता प्रतीत हो रहा है, वसुधा उनको धारण करती है, दिशाऐं उनको उन्मुक्त सी करती, नभ उनपर वर्षा करता, दिवस उनको निर्माण करता। और मैं सोचता हूँ कि पृथ्वी जो अनंत मेजबानों के भार से अवदलित है, आज महाभारत के युद्धों के भ्रम को आज स्मरण करती है।

"यहाँ भास्कर अपने वृत द्वारा उनके शिखरों पर लड़खड़ाती पताका-कुञ्जों में भ्रमण करता है जैसे कि वह जिज्ञासा से ध्वज-गणना हेतु प्रयास कर रहा हो। भूमि निर्बाधित सुगंधित इलायची सम मधुर मद के नीचे डूबी है, और पृथ्वी रज-अलका (धूल की गंगा) की एक माँग सम उड़े जा रही है, और उसपर हाथियों से जो इसे सब ओर से कुचलते हैं, पर बैठी मधु-मक्खियों के गुंजन से यह यमुना-ऊर्मियों से पूरित हुई सी प्रतीत होती है। चंद्रमा की श्वेत ध्वज-रेखाऐं क्षितिज को छिपाती हैं, जैसे आकाश में उड़े स्थूल अतिथिपति द्वारा कलुष किए जाने के भय से नदियाँ। यह एक विस्मय है कि पृथ्वी सेना के भाग द्वारा एक सहस्र अंशों में आज फटी नहीं है, और इसकी संधियों (जोड़) के बंधन श्रेष्ठ पर्वत विखंडित नहीं हुए हैं; और कि भुजंगनाथ शेष-फण सेना-भार से दबी पृथ्वी-वहन से उद्विग्न हुए ढह क्यों जाते हैं।

"जब वह इस प्रकार बोल रहा था युवराज अपने महल में पहुँच गया। यह हरित (पर्ण) दुर्गों में एक सहस्र मंडपों द्वारा चिन्हित, अनेक महान-विजयी धनुषों द्वारा विभूषित था और उज्ज्वल धवल पट (कपड़ा) के अनेक शिविरों द्वारा चमकता था। यहाँ उसने अवरोहण किया, और सभी राजन्य-संस्कार निवृत्त किए; और यद्यपि नृप एवं अमात्य, जो विभिन्न कथाओं सहित उससे विदा लेने हेतु एकत्रित हुए थे, शेष दिवस संताप में ही व्यतीत किया, क्योंकि उसका उर अपने तात से उसके नवीन विरह हेतु कटु-दारुण सहित पीड़ित था। जब दिवस समाप्त हुआ तो उसने वैशम्पायन के साथ रात्रि भी प्रायः अनिद्रा में ही बिताई, जो उसके निकट एक शय्या पर सो रहा था और पत्रलेखा भूमि पर बिछे एक कंबल पर कठिनता से सो रही थी। उसकी वार्ता अब उसके तात की थी, अब उसकी माता की, अब शुकनास की, और उसने मात्र अल्प ही विश्राम किया। प्रातः वह उठा, और एक सेना के साथ जो प्रत्येक कदम पर बढ़ती जा रही थी जैसे कि अपरिवर्तित आदेश में आगे बढ़ी, उसने पृथ्वी को सम कर दिया, पर्वतों को हिला दिया, नदियों को सुखा दिया, सरोवरों को खाली कर दिया, वनों को चूर्ण में मसल दिया, वक्र (असमतल) स्थलों को सम कर दिया, दुर्गों को विदीर्ण कर दिया, विवरों को भर दिया, और सख्त भूमि को विवर बना दिया।

"स्तर के आधार पर, जैसे वह इच्छा से विचरता था, उसने धृष्ट को झुकाया, विनीत को उन्नत किया, भयभीत को प्रेरित किया, विनयी का रक्षण, भ्रष्ट को निर्मूल, और रिपु को बाहर खदेड़ा। उसने राजकुमारों को विभिन्न स्थानों में अभिषेक किया, वैभव एकत्र किया, उपहार स्वीकार किए, कर प्राप्त किया, स्थानीय नियम शिक्षित किए, अपनी यात्रा के आस्मारक स्थापित किए, पूजा-मंत्र निर्माण किए, और आज्ञापत्र उत्कीर्ण कराऐं। उसने ब्राह्मणों का सम्मान किया, तपोवनों की रक्षा की, और पराक्रम प्रस्तुत किया जिसने अपनी प्रजा-स्नेह जीत लिया। उसने अपनी तेजस्विता प्रवर्धित की, निज-महिमा संचय की, अपने गुणों को बहुत दूर तक दर्शित किया, और अपने उत्तम कृत्यों हेतु प्रसिद्धि प्राप्त की। अतएव तट-अरण्यों का रोदन करते हुए, और अपनी चमु (सेना) की रज द्वारा धूसरित समुद्र के समस्त विस्तार को मोड़ते हुए उसने पृथ्वी पर विचरण किया।

"पूर्व उसकी प्रथम विजय थी, तब त्रिशंकु द्वारा चिन्हित दक्षिण-दिशा, तब पश्चिम-दिशा जिसका संकेत वरुण है, और उसके तुरंत पश्चात सप्तर्षियों द्वारा सम्मानित उत्तर दिशा की ओर बढ़ा। तीन वर्षों में विश्व-भ्रमण करते हुए उसने चार-समुद्रों की परीखा (खंदक) द्वारा मात्र घिरी हुई संपूर्ण पृथ्वी को इसके महाद्वीपों सहित विजित कर लिया।

"तब उसने दक्षिणावर्त भ्रमण करते हुए, पूर्वी-समुद्र के समीप सुवर्णपुर को विजित कर लिया और अधिकार में ले लिया, उन किरीटों का आवास जो कैलाश निकट बसते हैं, और हेम-जाकूत कहे जाते हैं, और जैसे उसकी सेना समस्त विश्व में भ्रमण से क्लांत होती थी, वह वहाँ कुछ अह्न (दिन) विश्राम हेतु शिविर डाल लेता था।

"एक दिवस वहाँ अपने परिवास-मध्य, वह इंद्रायुद्ध पर आरोह हुआ, और जैसे ही उसने पर्वतों से स्वेच्छा से नीचे आए एक किन्नर-युग्ल को देखा। विचित्र दृष्टि पर भ्रमण करते और उनको प्राप्त करने को उत्सुक वह सादर अपने अश्व को उनके निकट लाया और उनकी तरफ प्रस्थान हुआ। परंतु वे एक मनुष्य-दृष्टि से अज्ञात डरते हुए उससे दूर भागते हुए चलने की शीघ्रता में थे, और जबकि वह इंद्रायुध की ग्रीवा पर बार- चपत लगाते हुए उसकी गति दुगुनी हुए उनका अनुसरण कर रहा था, और अपनी सेना को पीछे छोड़कर अकेला चलते गया। इस विचार के साथ कि वह उन्हें अभी पकड़ लेगा, इंद्रायुद्ध की गति द्वारा अपनी दिशा से उसने एक ही क्षण में पंद्रह क्रोश जैसे कि यह एक छलाँग है, पार कर लिए, और बिना किसी संगी के हो गया। किन्नर-युग्ल, जिसका वह पीछा कर रहा था, उसके समक्ष एक तीव्र ढ़लान पर चढ़ रहे थे। उसने विस्तार से अपनी दृष्टि घुमाई, जो उनकी प्रगति का अनुसरण कर रही थी, और सीधी चढ़ाई द्वारा बाधित हुए उसने इंद्रायुद्ध की वल्गा (लगाम) खींची। तब, देखते हुए कि वह और उसका अश्व थके हुए और अपने श्रम से उष्मित हैं, उसने एक क्षण हेतु विचार किया, और यह सोचते हुए अपने ऊपर हँसा : "मैंने क्यों स्वयं को एक बालक की भाँति तुच्छ हेतु थका लिया है ? इससे क्या अंतर होता है चाहे मैं किन्नर-युग्ल को पकड़ लूँ या नहीं ? यदि पकड़ा, तो उत्तम क्या है ? यदि छूट गए तो क्या हानि है ? यह कैसी मेरी मूर्खता है ! किसी नगण्य  में स्वयं को व्यस्त करने का प्रेम क्या ! एक अलक्षित श्रम हेतु एक अनुराग क्या ! एक शैशव-प्रमोद से क्या चिपकना ? उत्तम कृत्य जो मैं कर रहा था, व्यर्थों में आरंभ हो गया है। एक आवश्यक-संस्कार जो मैंने प्रारंभ किया था, निष्फल हो गया है। महान-कृत्य, जिसमें मैंने प्रवेश किया था, पूर्ण नहीं हुआ है। एक उत्तम-अभिलाषा में मेरा उत्कट श्रम शून्य पर गया है। मैं क्यूँ इतना मूढ़ हो गया कि अपने अनुयायियों को पीछे छोड़कर इतनी दूर गया हूँ। और क्यों मैंने स्वयं हेतु एक उपहास अर्जित किया है जबकि मुझे अन्य पर ध्यान देना चाहिए, जब मैं विचार करता हूँ कि कैसे अलक्षित मैंने उनके अश्वों की ग्रीवा सहित इन असुरों का अनुसरण किया है ? मुझे नहीं विदित कि मेरा अनुसरण करती सेना कितना पीछे है। इंद्रायुद्ध की तीव्र गति के कारण एक ही क्षण में विस्तृत अंचल तय कर लिया है, और उसकी गति ने, जब मैं रहा था मेरी दृष्टि को रोक दिया था, और किस पथ से मुझे वापस जाना चाहिए क्योंकि मेरी दृष्टि किन्नरों पर स्थित थी; और अब मैं एक गहन वन में हूँ, जो कदमों के नीचे तक शुष्क-पल्लवों से विस्तृत है, लताओं की झाड़-झंझाड़ और शाखाओं वाले वृक्षों की घन वृद्धि के साथ। मैं जैसे यहाँ भ्रमण करता हूँ, मैं किसी नश्वर को नहीं देखता हूँ जो मुझे सुवर्णपुर का पथ दिखा दे। मैंने प्रायः सुना है कि सुवर्णपुर पृथ्वी के उत्तर में सुदूर स्थित है, और उसके पार एक अलौकिक (दिव्य) लोक है, और उसके पार पुनः कैलाश है। तब यह कैलाश है, अतः मुझे अब पीछे मुड़ना चाहिए, और बिना किसी की सहायता के दक्षिण की ओर बढ़ने का निश्चय करना चाहिए। क्योंकि नर को उसकी अपनी त्रुटियों का फल भोगना चाहिए।

इस उद्देश्य के साथ उसने अपने वाम हस्त में वल्गाऐं हिलाई और अश्व का सिर घुमाया। तब उसने पुनः विचार किया : चमकती मयूखों से सुभग मरीचिमाली अब दक्षिण को विभूषित करता है जैसे कि वह अह्न (दिन)-शोभा का मध्य-रत्न है। इंद्रायुद्ध थका हुआ है; मैं उसे अभी कुछ मुखभर घास खाने देता हूँ, और तब किसी पर्वत निर्झर या नदी में स्नान एवं पानी पीने दूँगा; और जब वह सरसत्व (तरोताजा) होगा, मैं स्वयं भी कुछ जल ग्रहण करूँगा और एक वृक्ष-छाया नीचे कुछ काल विश्राम करने के पश्चात अपनी यात्रा पुनः प्रारंभ करूँगा।

"ऐसा सोचकर, जल हेतु निरंतर अपने नयन प्रत्येक दिशा में घुमाते हुए उसने विस्मय किया जब तक उसने पर्वत-हस्तियों के एक विशाल दल के पादों द्वारा उठाई गई पंक-राशि से आर्द्र एक पथ को देखा, जो हाल ही में एक कमल-सरोवर में स्नान से आए थे। उससे तात्पर्य निकालकर कि निकट ही जल है, वह सीधा कैलाश के ढलवाँ तीरके साथ गया, जिसके वृक्ष अति-निकटता से गहन थे, अपने शाखा-रहित होने से, बहुत दूर होने से वे ऐसे प्रतीत होते थे कि वे मुख्यतया चीड़, साल गूग्गल के वृक्ष थे, और विशाल थे, और एक छत्र-वृत्त सम, प्रोन्नत (उठाए हुए) शीर्ष से ही देखे जा सकते थे। वहाँ मोटा पीत रेत था, और चट्टानी-मृदा होने के कारण तृण झाड़ी अति अल्प मात्रा में थी।

"बहुत समय पश्चात उसने कैलाश के उत्तर-पूर्व पर एक अति विशाल तरु-कुंज देखा, जो मेघ-संहति भाँति ऊपर उठा था, वर्षा के अपने भार से भारी था, और इतना घना लगता था कि कृष्ण-पक्ष में एक रात्रि-तम सहित हो।

"जल के ऊपर से बहती चंदन सम मृदु, तुषारमय, आर्द्र-ऊर्मियों से उठी मलय जो कुसुमों से सुवासित थी, उससे मिली, और उसको लुभाती सी प्रतीत हुई, और मृणाल-सुधा पिए हुए कलहंस-क्रंदन उसे प्रवेश हेतु आदेश दे रहे थे। अतः वह उस कुंज में प्रवेश कर गया और इसके मध्य में अच्छोदा सरोवर देखा, जैसे कि यह त्रिपुर-लक्ष्मी के मुकुर (दर्पण) का प्रतिबिंबित हो, पृथ्वी-देवी का एक स्फटिक कक्ष हो, जिसके द्वारा महासागरों के जल-पथ निकलते हैं; दिशाओं का रिसाव होता है, नभ-अंश का अवतार है, कैलाश में बहना सिखाया है, साहस ने द्रवित किया है, शशि-चंद्रिका पिघलती है; शिव-स्मित उदक (जल) में बदलती है, त्रिभुवन-गुण एक सरोवर-रूप में गए हैं, पर्वतिका-शृंखलाऐं जल-परिवर्तित हो गई, अथवा शिशिर-मेघों का समूह एक स्थल में बरस गया है। अपनी निर्मलता से यह वरुण का दर्पण हो सकता था; यह तपस्वी-चित्तों से उत्तम-पुरुषों के गुणों से, मृगों के चमकते नयनों से, या रत्नों की किरण से निर्मित प्रतीत होता था।

"एक महापुरुष भाँति, यह स्पष्टतया मीन, मगर, कूर्म और चक्रवाक के चिन्ह दिखाता था; कार्तिकेय-कथा सम क्रोंच-पत्नियों के विलाप इसमें गूँजते थे; महाभारत सम पांडवों धृतराष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा द्वारा यह धृतराष्ट्र-शाखाओं द्वारा आड़ोलित था; और शिव द्वारा हलाहल पान करना मयूरों द्वारा इसका जल पीने से द्योतित हो रहा था, जैसे कि यह समुद्र-मंथन का समय हो। यह एक देव की एक दृष्टि भाँति शुभ्र था, जो कदापि नहीं मचलती है। एक व्यर्थ तर्क की भाँति इसका कोई अंत प्रतीत नहीं होता था; और नयन पुलकित करता एक अत्युत्तम शुभ्र सरोवर था।

"इसका मात्र दर्शन ही चंद्रापीड़ की श्रांत हटाता प्रतीत होता था, और जैसे ही उसने देखा उसने सोचा :

"यद्यपि मेरा अश्व-मुखी युग्ल का अनुगमन निष्फल था, तथापि अब जैसे कि मैं इस सर को देखता हूँ तो इसने अपना पारितोषिक प्राप्त कर लिया है। मेरा नेत्र-पुरस्कार अब विजित हो गया है उस सबको देखे जाने में, सभी शुभ-वस्तुओं को दूरतम बिंदु देख लिया है, वह समस्त जो हमें प्रसन्न करता है, की पराकाष्टा देख ली गई है, समस्त वे जो हमें प्रमुदित करती हैं, की सीमाऐं समझ ली गई हैं, सर्वोत्कृष्टता जो हर्ष उत्पन्न करती, अभिभूत हो गई है, और दृष्टि-योग्य सब विनिष्ट-बिंदु विचार कर लिए हैं। सुधा सम मधुर इस सरोवर-जल की सृष्टि करते समय विधाता ने अपनी सृष्टि-श्रम को व्यर्थ कर दिया है क्योंकि यह भी अमृत सम सभी इंद्रियों को प्रसन्न करता है, अपनी शुचिता द्वारा नयनों में अभिराम जनित करता है, इसकी शीतलता द्वारा स्पर्श आनंद अर्पित करता है, अपनी मृणाल-सुवास द्वारा घ्राण-इंद्रि को प्रसन्न करता है, अपने हंसों की सतत मर्मर-ध्वनि संग कर्णों को सुहाता है, और अपनी मधुरता द्वारा स्वाद को हर्षित करता है। सत्य ही यह इस विचार की उत्सुकता से है कि शिव कैलाश पर आवास हेतु अपनी आसक्ति नहीं त्यागता है। निश्चित ही कृष्ण क्षीर-शय्या की अपनी प्राकृतिक अभिलाषा का अनुपालन नहीं करता है, क्योंकि वह क्षीर द्वारा कटु इसके जल संग समुद्र पर शयन करता है, और अमृत सम मधुर इस जल को त्यागता है। यथार्थ में यह आदि-कालीन सरोवर है; क्योंकि वसुंधरा ने, जब प्रलय-वराह के दन्त-आक्रमण से भयभीत समुद्र में प्रवेश किया था, सभी जल जैसे अगस्त्य हेतु एक ही घूँट हेतु अभिकल्पित किए गए हों; अतएव जैसे कि यदि वह इस विशाल सर में छलाँग मार गई होगी, जो अनेक गहरे पातालों सम गहरी है, इसको पहुँचना संभव नहीं होगा। मैं मात्र एक के बारे में नहीं कह रहा हूँ अपितु एक सहस्र वराहों द्वारा भी नहीं। सत्य ही इस सरोवर से महाप्रलय-ऋतु पर विनाश-मेघ अपना जल थोड़ा-थोड़ा करके खींचते हैं जब वे ब्रहमांड-अंतरालों को विव्हलित करते हैं, और अपने विनिष्टकारी झंझावतों द्वारा सभी दिशाओं को कृष्ण करते हैं। और मैं सोचता हूँ कि लोक, ब्रह्मांड जो सृष्टि-प्रारंभ में जल-निर्मित था, और एक सरोवर-आवरण में एकत्रित होकर यहाँ स्थापित कर दिया।' ऐसा विचार करते हुए वह दक्षिण तीर पर जा पहुँचा, अवरोहण किया और इंद्रायुध की साज हटा दी; और वह भूमि पर लोट करने लगा, उठा, कुछ मुखभर तृण के खाऐ, और तब कुमार उसे सरोवर पर ले गया, और उसे जल पिलाया और इच्छा से स्नान करने दिया। तत्पश्चात, कुमार ने उसकी रशना (लगाम) हटा दी, उसके दो पादों को एक सुवर्ण-शृंखला से एक वृक्ष के नीची शाखा से दृढ़-बद्ध कर दिया, अपनी खड़ग से सरोवर-तीर से कुछ दूब घास काटते हुए, इसे अश्व के समक्ष फेंक दिया, और स्वयं वापस जल के पास चला गया। उसने अपने हस्तों को धोया और वैसे भोजन किया जैसे चातक जल पर करता है; चक्रवाक सम उसने कमल-पत्रों के अंशो का आस्वादन किया; अपनी चंद्रिकाओं संग शशि सम चंद्र-कमलों को उसने अपनी अंगुलाग्रों से स्पर्श किया;  भुजंग (वायुभक्षी) की भाँति उसने ऊर्मि-वात का स्वागत किया; काम-शरों से पीड़ित सम उसने अपने वक्ष पर मृणाल-पत्र आवरण रख लिया; एक गिरि-हस्ती सम जब उसका शुण्ड फुहारों से आर्द्र है, उसने जल-बिंदुओं से धुले अरविंदो से अपने कर-आभूषित किए। तब अभी नवीन-भग्न तन्तु संग तुषारमय मृणाल-पत्रों से उसने लताओं से आच्छादित एक शैल पर शयन बनाया, और अपने अंशुकों को एक उपधान (तकिया) हेतु गोल करके शयन हेतु नीचे लेट गया। एक अल्प-विराम के पश्चात, उसको सरोवर के उत्तरी तट पर कर्णों पर पड़ती अलौकिक संगीत और वीणा-तंत्री (तार) से मिश्रित एक मधुर तान सुनाई दी। इंद्रायुध ने प्रथम इसे सुना, और खाई जा रही घास को गिराकर, कर्णों को स्थिर कर और ग्रीवा मोड़कर, ध्वनि ओर उन्मुख हुआ। युवराज ने जैसे ही इसे सुना, उत्सुकता में देखने हेतु अपनी कमल-शय्या से उठा कि कैसे यह गीत मानव-रहित इस स्थल में उदित हो सकता है और उस क्षेत्र की ओर अपनी दृष्टि डाली, लेकिन अति दूर से, यद्यपि अपने चक्षुओं को पूर्ण-पीड़ित किया, वह कुछ भी निर्णय कर पाने में असमर्थ था यद्यपि वह गायन को निरन्तर सुन रहा था। इसका स्रोत ज्ञात करने की उत्सुकता में कामना करते उसने प्रस्थान का निश्चय किया, और इंद्रायुध पर आरोह हो गीत को अपना लक्ष्य बना पश्चिम अरण्य-पथ के साथ चल दिया; तथापि बिना पूछे, मृग उसके मार्ग-दर्शक थे जैसे वे संगीत में प्रमुदित होकर सामने शीघ्रता कर रहे थे।


......क्रमशः   


हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(१३ जनवरी, २०१९ समय २२:२८ रात्रि)

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