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Saturday 19 January 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -६ (भाग -१)


परिच्छेद - ६ (भाग -१)

कैलाश-समीर द्वारा अभिनंदित, वह उस स्थली की ओर गया जो चारों ओर द्रुमों द्वारा आच्छादित थी, और कैलाश-तीर के चरण पर चंद्रप्रभा नामक सरोवर के वाम तीर पर, जिसने समस्त क्षेत्र को चंद्रिका-दीप्ति से शुभ्र कर रखा था, उसको शिव का रिक्त देवालय दिखाई दिया।

"जैसे ही उसने मंदिर में प्रवेश किया, वह पवन द्वारा  उछाले गए अपने ऊपर पड़ने से केतकी-रज द्वारा श्वेत हो गया, जैसे शिव-दर्शन कामना से उसको बलात् भस्म-धारण का एक व्रत लेना था, अथवा जैसे मंदिर-प्रवेश करने की पुण्य-गुणों (आशीर्वाद) ने उसे वसन पहना दिए हों, और चार स्तंभों पर स्थापित एक स्फटिक-गृह में उसने उसके ध्वज, शुद्ध मोतियों से निर्मित लिंग सहित चतुरानन, जगतगुरु, देव शिव को देखा, जिसके चरण ब्रहमांड द्वारा पूजित हैं। स्वर्ग-गंगा के उज्ज्वल मृणालों द्वारा देव को श्रद्धा अर्पित की गई थी, जिसको भ्रान्ति में मुक्ता-मुकुट माना जा सकता था, नूतन तोड़े गए आर्द्र उनके पल्लवों के सिरों से जल-बिंदु गिरते, शशिकला के अंशों सम और सीधा रखा, अथवा शिव की निज स्मित-अंशों भाँति, अथवा शेष-फण के तुच्छ द्रव्य, अथवा कृष्ण के शंख के भ्राता, अथवा क्षीरसागर का हृदय सम।

"परंतु ध्यान-मुद्रा में देव के दक्षिण में बैठे, उसकी ओर मुख किए, चंद्रापीड़ ने शिव-सेवा में समर्पित एक देवी को देखा, जिसने उसके पर्वत एवं वन-क्षेत्र को अपनी चारुता की उज्ज्वलता द्वारा हस्ती-दंत सम प्रकाशित कर दिया था। क्योंकि शून्य पार करके विस्तृत इसकी शोभा दूर तक चमकती थी, जो प्रलय-दिवस पर सभी वस्तुओं को विव्हलित करती क्षीरसागर के ज्वार सम शुभ्र थी, अथवा दीर्घ वर्षों में संचित तप का एक पुंज और कैलाश को नूतन शुभ्रता देते गंगा भाँति तरुओं के मध्य से एकत्रित निर्झरों को बहने से। उसके रूप की अत्यधिक श्वेतिमा ने उसके अंगों को छिपा लिया था जैसे कि उसने एक स्फटिक-स्थल में प्रवेश कर लिया हो, अथवा दुग्ध-सागर में छलॉंग लगा दी हो, अथवा निर्मल कौशेय में छिपी हो, अथवा शिशिर-मेघों में आवरित हो। देह-निर्माण हेतु सहाय-दल बिना वह श्वेतिमा के सत्व से विरचित हो, जो पञ्च मुख्य तत्त्वों के पदार्थ से बनी थी।

"वह याज्ञिक-अनात्म भाँति थी जो अयोग्य द्वारा छीन लिए जाने के भय में शिव-पूजन करने आई थी, अथवा काम-वपु हेतु उसकी आराधना हेतु एक साधना-कृत्य करती रति; अथवा अपने प्राचीन काल के अंतरंग मित्र शिव-इंदु की एक कला हेतु कामना करती क्षीरसागर-देवी लक्ष्मी, जब वे गहन विव्हर में संग इकट्ठे रहते थे; अथवा राहू से शिव की शरण चाहता अवतीर्ण (प्रस्तुत किया गया) चंद्र; अथवा ऐरावत-चारुता का एक गजचर्म पहनने को शिव के पास कामना पूर्ण करने आई है; अथवा शिव के दक्षिण मुख की स्मित-उज्ज्वलता दृष्टिगोचर हो गई है और एक पृथक आवास ले लिया है; अथवा देह आकृति में श्वेत-भस्म जो शिव स्वयं बिखेरता है; अथवा शिव-कंठ की कृष्णता को हटाने हेतु इंदु-रश्मि दृष्टिगोचर; अथवा गौरी-मस्तिष्क की अवतीर्ण पुण्यता; अथवा कार्तिकेय का अव्यक्तिक इंद्रिय-निग्रह (संयम, शुचिता); अथवा अपनी काया से पृथक रहते शिव-वृषभ की शोभा; अथवा पृथ्वी पर नीचे आए ब्रह्म की तप-पूर्णता; अथवा सप्त-लोक भ्रमण से श्रांत के पश्चात विश्राम करती स्वर्ण-युग की प्रजापति-महिमा; अथवा कलयुग में उत्तमता (सम्यक) को हटाने पर दारुण में अरण्य-वास करते त्रिवेद; अथवा एक आगामी सुवर्ण-युग को अंकुर; अथवा मानव-आकृति में एक मुनि-मनन की पूर्णता; अथवा स्वर्ग-गंगा पहुँचने पर भ्रम में पड़ा दैवी-हस्तियों का एक दल; अथवा रावण द्वारा निर्मूल किए जाने की आशंका में पतित कैलाश-शोभा; अथवा एक अन्य महाद्वीप दर्शन को आई श्वेत-द्वीप की लक्ष्मी; अथवा शिशिर हेतु दृष्टिपात करते विकसित काश-पुष्प की भव्यता; अथवा पाताल त्याग पृथ्वी पर आए शिव देव की उज्ज्वलता; अथवा बलराम-महिमा, जो उसको उन्मत्तता-श्रांत में छोड़कर चली गई थी; अथवा एकत्रित उज्ज्वल शुक्ल-पक्षों की परंपरा।

"अपनी श्वेततिमा से वह समस्त हंसों से एक अंश लिए प्रतीत होती है; अथवा नैतिकता के हृदय से निकली; अथवा एक शंख से निर्मित; अथवा एक मुक्ता से निकली; अथवा मृणाल-तंतुओं से निर्माण से आकृति-बद्ध; अथवा गजदंत-फलकों से बनी; अथवा शशांक-रश्मियों की कुचा (झाड़ू) द्वारा पावनित; अथवा संगमर्मर-जड़ित; अथवा सुधा के फेन-गोलकों से श्वेतित; अथवा पारद-निर्झरों में नहला दी गई; अथवा चंद्र-वृत्त से खोज निकाली गई; अथवा पिघली रजत से मली गई; अथवा कुटज, चमेली और सिंधुवार कुसुमों के वर्ण से विभूषित। सत्य में, वह श्वेतिमा की अति दूरस्थ सीमा प्रतीत होती थी। उसके स्कन्धों पर लटकती अलकों से उसकी मूर्धा शोभित थी, जैसे कि यह पूर्वी पर्वत पर अरुण से ली गई प्रातः-काल की मरीचि-शोभा हो, जो चमकती दामिनी की स्पंदित शोभा सम कपिल (पीत) थी, और नव-स्नान (अभिषेक) से आर्द्र होने के कारण उसकी भक्ति में पकड़े गए शिव-चरणों की रज से चिन्हित थी; केश-जूड़े के साथ बद्ध अपने शीर्ष-रत्नों में उसने शिव-चरण उसके नाम सहित चिन्हित कराके धारण कर रखे थे; और उसकी भ्रू पर मरीचीमाली-अश्वों की ऐड़ियों द्वारा चूर्णित सितारों की रज सम एक पवित्र भस्म-तिलक लगा हुआ था। वह एक देवी थी, और लौकिक चिंतन द्वारा उसकी अवस्था ज्ञात नहीं हो सकती थी, परंतु वह १८ ग्रीष्मों की एक कन्या सम प्रतीत होती थी।

"उसको देखकर चंद्रापीड़ ने अवरोहण कर अपने अश्व को एक शाखा के साथ बाँधा, और तब आशीर्वादित शिव के समक्ष सादर झुकते हुए, पुनः उस दैविक कन्या को सतत अपलक दृष्टि से देखा। और जैसे ही उसकी चारुता, शोभा एवं शुचिता ने उसके विस्मय को आड़ोलित किया, उसमें विचार उठा : 'इस लोक में प्रत्येक वस्तु कैसे इसके बदले में बिना किसी मूल्य के हो गई। क्योंकि जब मैं किन्नर-युग्ल का निर्दयता-पूर्वक व्यर्थ में पीछा कर रहा था, मैंने यह सुंदरतम स्थल देखा; मनुष्यों के अलब्ध, और अनश्वरों द्वारा गमित। तब जल के अपने अन्वेषण में, मैंने इस सिद्धों द्वारा कामित रमणीय सर को देखा। जब मैं इसके तीर पर विश्राम कर रहा था, मैंने एक दैवी-गायन सुना; और जब मैंने ध्वनि-अनुसरण की, यह दैवी-कन्या नश्वर दृष्टि हेतु अतीव चारु जैसे ही मेरी अक्षियों से मिली। क्योंकि मैं उसकी दिव्यता पर शंका नहीं कर सकता हूँ, उसकी अति-सुंदरता उसके एक देवीपन को घोषित करती है। और नरों के लोक में दैवी-गायन कहाँ है ? अतएव यदि वह मेरी दृष्टि से विलुप्त नहीं होती है, ही कैलाश-शिखर पर चढ़ती है, ही नभ में उड़ जाती है, मैं निकट जाऊँगा और उससे पूछूँगा, "तुम कौन हो, और क्या तुम्हारा नाम है, और क्यों तुमने जीवन-उषा में यह व्रत लिया है?" यह समस्त विस्मयी है।' इस संकल्प के साथ वह स्फटिक-गृह के अन्य स्तंभ के पास गया, और गायन-समाप्ति की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ बैठा रहा।

"तब जब उसने अपनी वीणा को विराम दिया, जैसे जब एक चंद्र-कमल पंक्ति भाँति भ्रमरों का मधुर-गुंजन शांत हो जाता है। कन्या उठी, एक प्रदक्षिणा की और तब गोल घूमते हुए शिव को एक दंडवत प्रणाम किया और निर्मल-प्रकृति द्वारा एक दृष्टि से और विश्वस्त तपोबल से, जैसे कि फल-स्वरुप वह उसपर पुण्य-आच्छादित कर रही हो, उसको पावन-जल द्वारा नहलाते हुए, उसे तपोबल से पावनित करते हुए, उसको दोष-मुक्त करते हुए, उसको अपनी उर-कामना देते हुए, और उसको पवित्रता में अग्रेसित करते हुए उसने जैसे चंद्रापीड़ को धैर्य दिया

"मेरे अतिथि का स्वागत है।, उसने कहा।' मेरे स्वामी इस स्थल पर कैसे पहुँच गए।' उठो, निकट आओ, और एक अभ्यागत का यथोचित सम्मान ग्रहण करो।' अतएव उसने कहा, और वह अपने को उसके द्वारा कृपा दिखाने से और उसके संबोधन से स्व को सम्मानित मानते हुए, आदर से उठा और उसके समक्ष नमन किया। देवी, जैसा कि तुमने निवेदन किया है', उसने उत्तर दिया, और एक शिष्य भाँति उसके चरण-चिन्हों में चलने द्वारा अपनी विनम्रता दिखाई। और पथ पर उसने सोचा : 'देखो, जबकि उसने मुझे देख भी लिया है वह विलुप्त नहीं हुई है ! सत्य ही उससे प्रश्न पूछने की एक आशा ने मेरा उरबद्ध कर लिया है। और जब मैं एक करुणा से परिपूर्ण इस कन्या का विनीत आमंत्रण देखता हूँ यद्यपि वह तपस्वियों में ऐसी एक असाधारण सुंदरता से रमणीय है। मैं निश्चित ही विश्वास करता हूँ कि मेरी प्रार्थना पर वह मुझे अपनी कथा सुनाऐगी।'

लगभग एक कदम चलने पर, उसने गहन तमालों द्वारा ढ़के प्रवेश वाली एक गुफा देखी, जो दिवस में भी अपने कारण एक रात्रि दिखा रही थी; अपने खिलते कुसुमों संग लता-शाखाओं पर प्रसन्न, मधु-मक्खियों के गहन-गुंजन संग इसका प्रवेश गुंजायमान था, यह जल-बौछारों से आर्द्र थी, और उनके मात्र अवतरण से फेन में गिरने से, श्वेत-शैल से टकराने से, और नुकीली सीधी-चट्टान के कुठार सम पैने सिरों से विदीर्ण, एक कर्ण-भेदी टकराहट संग जैसे शीतल फुहारें उठती हैं और भग्न हो जाती हैं, यह एक द्वार से लटकती तरंगित कौड़ियों की राशि सम था, शिव की स्मित अथवा मौक्तिक-फेन सम श्वेत प्रत्येक दिशा नीचे बहते जल-प्रपात से। अंतः रत्न-विभूषित कलशों का वृत था, एक ओर पावन चिंतन में हो ओढ़ा गया एक अवगुंठन (पट) लटका हुआ था, एक खूँटी पर नारियल-जूट से निर्मित पादत्राण (जूता) का एक स्वच्छ युग्ल लटका था; एक कोने में एक वल्क-शय्या रखी थी जो बाला द्वारा धारित भस्म छिटकने से कपिश थी; स्थल एक तक्षणी (छैनी) से उत्कीर्ण (तराशी गई) एक परिपूरित आदरणीय था, चंद्र-वृत्त के सम; और उसके निकट विभूतियों (भस्म) का एक कमंडल रखा था।

"शैल-द्वार पर चंद्रापीड़ ने अपना आसन लिया, और जब बाला ने वल्क-शय्या के उपधान (तकिए) पर अपनी वीणा रखकर, अपने आगंतुक को अर्पण हेतु प्रपात से कुछ जल एक पल्लव-चषक में लिया, और जैसे ही उसका आगमन हुआ, उसने पूछा : 'तुम्हारे ये महद श्रम पर्याप्त हैं। शोभा की अति त्याग दो। देवी, प्रसन्न होवों। कृपया यह महद सम्मान त्याग दिया जाय। अघमर्षण (पाप-नाशक) मंत्र भाँति तुम्हारा मात्र दर्शन ही पवित्रीकरण हेतु पर्याप्त है और समस्त अशुभों को शांत कर लेता है। कृपया अपना आसन ग्रहण करने की कृपा करो। तथापि उसके द्वारा आग्रह पर उसने सादर अपना शीर्ष नत कर, जो उसने अपने अतिथि को दिया, सब सेवा स्वीकार कर ली। जब अपने आगंतुक हेतु उसकी सब सावधानियाँ पूर्ण हो चुकी, वह एक अन्य पाषाण पर नीचे बैठ गई, और एक अल्प-मौन पश्चात उसके अनुरोध पर चंद्रापीड़ ने विजय-अभियान से प्रारंभ कर किन्नर-युग्ल के अनुसरण करने में अपने आगमन की संपूर्ण कथा सुनाई। देवी तक उठी, और एक भिक्षा-पात्र लेकर देवालय के चारों ओर के द्रुमों में गमन किया; और अपने आप गिरने वाले फलों से शीघ्र ही उसका कुंड (कटोरा) भर गया। जैसे ही उनका आनंद लेने हेतु उसने चंद्रापीड़ को निमंत्रण दिया, उसके हृदय में विचार उदित हुआ : 'सत्यमेव तपोबल से बढ़कर कुछ भी नहीं है। क्योंकि यह एक महान आश्चर्य है कि कैसे वन-स्वामी, माना इंद्रि-शून्य, तथापि इन्द्रिय-जनित प्राणियों को पसंद करते हैं; इस देवी हेतु अपने फल न्यौछावर कर स्वयं आदर ग्रहण करते हैं। यह एक अद्भुत दृश्य है, और पूर्व में कभी देखा नहीं गया है।

"अतएव, अतिरिक्त विस्मय से, वह इंद्रायुध को उस स्थल पर ले आया, उसको पलायण (काठी) से मुक्त किया, और उसे दुरस्तता से बाँध दिया। तब उसने जल-बौछारों में स्नान किया, अमृत सम मधुर फलों का भक्षण किया, और जलप्रपात का शीतल जल पान किया, और अपना मुख-प्रलाक्षन (कुल्ला) करके उसने प्रतीक्षा की जब तक कि देवी ने अपना जल, मूल एवं फलों का भोजन कर लिया।

"जब उसका भोजन समाप्त हो चुका और वह अपनी सांय की सन्ध्या कह चुकी, और निर्भयता से पाषाण पर अपना आसन ग्रहण कर चुकी, युवराज ने शांतभाव से उसके पास जाकर कुछ क्षण मौन रख, सादर उवाच किया:

"देवी, त्रुटि जो मानव को व्याकुल करती है, मुझे भी यहाँ तक कि अपनी इच्छा के विपरीत तुमको प्रश्न करने हेतु बाध्य करती है, क्योंकि मैं एक उत्सुकता से विमूढ़ हुआ जाता हूँ जिसने तुम्हारी कृपा से साहस किया है। क्योंकि प्रभु की किंचित लघुत्तम कृपा भी एक कृश-प्रकृति को वीर बना देती है : यहाँ तक कि संग बिताया एक अल्प-काल भी अंतरंगता उत्पन्न कर देता है। आराधना की एक लघु-स्वीकृति भी प्रीति पैदा कर देती है। अतएव, यदि तुमको कष्ट हो तो मैं तुम्हारी कथा से निज को सम्मानित करने हेतु तुमसे प्रार्थना करता हूँ। क्योंकि तुमपर मेरी प्रथम दृष्टि से ही इस विषय में एक महद उत्सुकता ने मुझे बद्ध कर लिया है। देवी, क्या तुम्हारा जन्म-कुल मरुतों का है, अथवा ऋषियों का, अथवा गंधर्वों का, या गुहयाकों का, या अप्सराओं का ? और तुम्हारे इस नव-यौवन में, कुसुम भाँति तनु, यह व्रत किस कारण लिया गया है। क्योंकि पृथ्वी के सभी विचारों से तुम्हारे इस स्थान से कितनी दूर तुम्हारा यौवन, तुम्हारी चारुता, और अत्यधिक शोभा प्रतीत होगी! यह मेरे लोचनों में विस्मय है! और किस कारण से तुमने दैवी-तपोवनों हेतु सभी आवश्यक सुविधाऐं (वस्तुऐं) इस निर्जन-वन में एकांत-वास करने हेतु त्याग दी हैं जिसको देव विजित कर सकते हैं, और जो महानतम तपस्वी धारण करते हैं ? और यद्यपि तुम्हारी यह वपु पंच मूल-तत्वों से निर्मित है, किसके द्वारा यह शुद्ध-श्वेतिमा धारण कर रखी है ? मैंने कदापि ऐसा सुना है और ही देखा है। मैं तुमसे अपना कुतूहल-हरण करने हेतु विनती करता हूँ, और मुझे सब बताओ जो मैंने पूछा है।

"एक अल्पकाल हेतु मौन में उसने उसकी प्रार्थना पर विचार किया और तब बिना कोलाहल के उसने रुदन प्रारंभ कर दिया, और अपने साथ उर-पवित्रता को लाते हुए, अपनी इंद्रियों की शुचिता बौछार करते हुए, तपस्या-सत्व को आसवन (शुद्ध) करते, सर्वाधिक पवित्र, अपने कपोलों पर मुक्ताओं के एक टूटे सूत्र की भाँति, बिना रुके वल्कल अंशुक से ढके अपने वक्ष-स्थल पर छींटे डालते हुए, उसके चक्षु मोटे-बिंदुओं में पतित अश्रुओं से बंद हो गए थे।

"और जैसे ही उसने उस रोती हुई को निहारा, चंद्रापीड़ ने चिंतन किया : "कैसे कठिनता से दुर्भाग्य को दूर किया जा सकता है, यदि यह अपने हेतु इस प्रकार की एक सुंदरी को भी लेता है, कौन एक इसकी शक्ति के पार सम्भव हो सकता है। सत्य में ऐसा कोई नहीं है जिसे इस देह में जीवन के कष्ट अस्पृश्य छोड़ते हैं। निश्चय ही यह सुख-दुख के द्वंद्व की शक्तियों की कार्यशैली है। उसके इन अश्रुओं ने पहले से भी बढ़कर और अधिक कुतूहल उत्पन्न कर दिया है। यह कोई तुच्छ कष्ट नहीं है जिसने उसकी इस प्रकार की वपु में भी अपना आवास ले लिया है। क्योंकि यह कोई क्षीण आघात नहीं होता जो वसुंधरा को कम्पित करता है।'

"जब उसकी उत्सुकता अतएव वर्धित हो रही थी उसने स्वयं को उसके शोक को स्मरण दिलाने का दोषी अनुभव किया, और उठकर अपने करों को अंजलि-बद्ध करते हुए फुहारों से कुछ जल अपने मुख-स्नान हेतु लिया। परंतु यद्यपि उसकी अश्रु-धारा किसी भी तरह उसकी सज्जनता द्वारा नहीं रुकी, तथापि अपने रक्तिक-नेत्रों को धोया और वल्कल (छाल) अंशुक के सिरे से अपना मुख शुष्क करते हुए, शनै एक दीर्घ और कटु आह के साथ यूँ कहा:

"कुमार, क्यों तुम मेरे तपस्वी-जीवन की गाथा सुनना चाहते हो, जो सब तुम्हारे कर्णों हेतु अनुपयुक्त है? क्योंकि मेरे जन्म से ही मेरा उर निर्दयी, मेरा दैव कर्कश, और अवस्था पातक है। तथापि यदि तुम्हारी इच्छा जानने हेतु तीव्र है, ध्यान से सुनो। यह हमारे श्रवण-परिधि में गया है, प्रायः मांगलिक ज्ञान की ओर निर्देशित, कि लोक में वहाँ अप्सरा नामक सुर-कन्याओं हेतु है। इनके चौदह कुल हैं, एक ब्रह्मा-मनन से उत्पन्न हुआ है, अन्य वेदों से, अन्य अग्नि से, अन्य मरुत से, अन्य सुधा से जब इसका मंथन हुआ, अन्य जल से, अन्य सूर्य-मरीचियों से, अन्य शशि-चंद्रिकाओं से, अन्य पृथ्वी से, और अन्य दामिनी से, एक मृत्यु द्वारा घड़ित, अन्य काम द्वारा रचित; इसके अतिरिक्त सबके पिता दक्ष को अनेक दुहिताओं (पुत्रियों) में दो, मुनि अरिष्टा, और गंधर्वों संग उनके संसर्ग से दो अन्य कुल उत्पन्न हुऐं। योग में ये चौदह कुल हैं। परंतु गंधर्वों और दक्ष-कन्याओं द्वारा ये दो कुल पैदा हुए हैं। जहाँ मुनि से चित्ररथ नामक सोलहवाँ पुत्र पैदा हुआ जो गुणों में सेन और अपने शेष पंद्रह भ्राताओं से भी बढ़कर था। क्योंकि उसकी शूरवीरता त्रिलोक-प्रसिद्ध थी; उसकी शोभा इंद्र द्वारा अर्पित की गई मित्र के नाम से वर्धित थी, जिसके चरण-कमल उसके समक्ष नमन करते हुए देव-मुकुटों द्वारा चूमे जाते हैं; और बालपन में ही उसने समस्त गंधर्वों की निरंकुशता को एक दक्षिण भुजा की अपनी खड़ग की चमक से प्राप्त कर लिया था। इससे अधिक दूर पर नहीं, भरत-भूमि के उत्तर में किंपुरुष देश में एक सीमान्त पर्वत हेमकुण्ट उसका आवास है। वहाँ निज-भुजा रक्षित असंख्य गन्धर्व रहते हैं। उसके द्वारा यह रमणीय अरण्य चैत्ररथ निर्मित हुआ था, अच्छोडा सरोवर खोदा गया था, और यह शिव-प्रतिमा कल्पित की गई है परन्तु गन्धर्व-स्वामी चित्ररथ द्वारा द्वितीय गन्धर्व-कुल में अरिष्टा का पुत्र एक बालक के रूप में ही नृप अभिषिक्त किया गया था, और अब वह राजन्य पद धारण करता है, और असंख्य गन्धर्व-परिजनों संग अतएव निवास करता है। अब, सोम-रस (सुधा) से उत्पन्न अप्सरा-कुल में एक कन्या जन्मी है, जैसे कि इन्दु की समस्त कलाओं की शोभा एक निर्झर में उड़ेल दी गई हो, ब्रह्माण्ड के नेत्रों को मुदित करता, शशि-मरीचि सम चारु, नाम एवं प्रकृति में द्वितीय गौरी है। द्वितीय परिवार के स्वामी उसके हंस ने प्रेम-निवेदन किया जैसे क्षीर-सागर ने गंगा को; उसके साथ वह युग्ल हो गई, जैसे रति काम के साथ, अथवा मृणाल-वाटिका शरद के साथ; और ऐसे योग की महान प्रसन्नता का आनन्द लेते हुए वह उसके रनिवास की महारानी बन गई। इस उत्तम युग्ल से मात्र कन्या मैं उत्पन्न हुई, अमंगल-सूचक, लुब्धता की एक बन्दी, और असंख्य दारूणों की एक पात्र; यद्यपि कोई और सन्तति होने पर भी, एक पुत्र हेतु को भी पीछे छोड़ते हुए, मेरे तात ने एक महोत्सव संग मेरा जन्म-अभिनन्दन किया, और दशम दिवस प्रचलित लौकिक-संस्कारों संग उसने मुझे महाश्वेता नामक उपयुक्त नाम दिया। उसके प्रासाद में मैंने अपना शैशव बिताया, गन्धर्व-वनिताओं के इस अंक से उस अंक में एक वीणा की भाँति जाते हुए, जैसे मैं शिशुकाल की कथा बुदबुदाती (बकबक) थी; प्रेम-कष्टों से अभी तक अभिज्ञ; परन्तु समय के साथ नूतन-यौवन मुझमें आया जैसे वसन्त में मधुमास, मधुमास में नूतन अंकुर, नूतन-अंकुरों में कुसुम, कुसुमों में भ्रमर, और भ्रमरों में मधु।
     
'और मधुमास में एक दिवस मैं अपनी माता संग अच्छोडा सरोवर में स्नान हेतु गई, जब वसन्त में इसकी रमणीयता विस्तृत थी, और इसके समस्त उत्पल कुसुम में थे।

"मैंने बृङ्गिरिति द्वारा अनुरक्षित शिव-प्रतिमाओं की आराधना की, जो पार्वती द्वारा तीर-शैलों पर घड़ी गई थी जब वह स्नानार्थ आई थी, और जिसमें रज में छोड़े गए तनु पद-चिन्हों द्वारा चित्रित तपस्वियों की सादर-उपस्थिति दिखती थी।' "कितनी अदभुत! मैं चिल्लाई, 'यह लता-शाखा है, अपने पुष्प-गुच्छों संग जिसको भ्रमर-भार ने मध्य से खण्डित कर दिया है, और तंतु झुका दिए हैं; यह आम्र पूर्णतया कुसुमित है, और इसकी मुकुल-डंठलों में छिद्रों के माध्यम से मधु रिसता है, जिसको कोकिला के पैने पंजों ने छेदित कर दिया है; यह चन्दन-वीथि (पथ) कितना शीतल है, जिसको वन्य मयूर-दल की केका (ध्वनि) से भीत भुजंगों ने त्याग दिया है; लहराती लताऐं कितनी प्रमुदित हैं, जो अपने ऊपर वन-अप्सराओं द्वारा हिलाने से गिरे पुष्पों द्वारा विभ्रम पैदा करती हैं, तीर पर तरुओं के पाद कितने रमणीय हैं जहाँ कलहंसों ने अनेक पुष्पों के रज में अंकित अपनी चरण-पंक्तियाँ छोड़ दी हैं। अतएव वन की सदैव-वर्धित चारुता से आकर्षित मैंने अपनी सखियों संग भ्रमण किया। एक निश्चित बिंदु पर मैंने पवन पर आती हुई एक तीव्र-सुवास घ्राण की, समस्त अन्यों से बढ़कर, यद्यपि वन पूर्ण-पुष्पण था; यह निकट आया, और अपनी अति-मधुरता द्वारा प्रमुदित करने हेतु अभिषिक्त कराता प्रतीत हो रहा था, और घ्राणेंद्रि को पूरित करने हेतु। भ्रमर इसको निज बनाने हेतु अनुसरण कर रहे थे; यह निश्चित ही अब तक अज्ञात परिमल (सुवास) थी, जो देवोपयुक्त थी। मैं भी यह जानते को उत्सुक कि यह कहाँ से रही है, चक्षुओं को मुकुलों (कलियों) में घुमाते हुए, और उस सुवास द्वारा एक भ्रमरी सम आकृष्ट, और अपनी जिज्ञासा की कम्पित गति में अति-नाद संग टकराते अपने नुपुरों की झंकार द्वारा सरोवर-कलहंसों ने मेरी ओर आकृष्ट होते हुए कुछ चरण आगे बढ़ाऐं और स्नानार्थ नीचे आते एक शोभायमान युवा-मुनि को देखा। वह शिव-अग्नि के ईंधन बने स्मर (कामदेव) हेतु दारुण में प्रायश्चित करते मधु सम था, अथवा शिव-भ्रू के पूर्ण-वृत्त को विजित करने के अपना व्रत पालन करता बालेंदु, अथवा शम्भु-विजय की अपनी उत्सुकता में नियंत्रित स्मर; अपनी महद शोभा द्वारा कम्पित दामिनी के एक पिंजरे द्वारा बँधा प्रतीत हो रहा था, ग्रीष्म-भास्कर के वृत्त के अंक में लगता, अथवा एक आपाक (भट्टी)-ज्वालाओं में घिरे अपनी रूप-चमक से घिरा हुआ; अत्यधिक बाह्य प्रदीप्त होता, एक दीपक-ज्योति सम पीत, उसने कुञ्ज को एक कपिश-सुवर्ण बना रखा था; उसकी अलकें गोरचना में रंजित कवच सम पीत एवं मृदु थी। उसकी भ्रू पर भस्म-रेखा ने एक नवनीत तट-रज रेखा सहित गंगा समान दृश्य बना दिया था, जैसे कि यह सरस्वती-विजय हेतु एक चन्दन-तिलक हो, और पुण्यता के एक ध्वज-अंश में लगाया हो; उसके नयन-भ्रू नरों के शाप के आवास ऊपर ऊँची एक चाप थी; उसकी चक्षु इतनी लम्बी थी कि उनको धारण करके वह एक पुष्प-हार पहने प्रतीत होता था; वह दृष्टि-शोभा मृगों की उनकी शोभा संग बाँटता था; उसकी नासिका दीर्घ गरुड़ीय थी; उसकी अवर-अधर लालिमा यौवन-प्रदीप्ति संग गुलाबी थी, जो उसके उर में प्रवेश करने से रोक दी गई थी; बिना मुखरोम (दाढ़ी) के अपने कपोलों संग वह एक नूतन उत्पल सम था, जिसके तन्तु अपनी क्रीड़ा में भ्रमरों द्वारा कम्पित नहीं किए गए थे; काम-धनुष की खिंची प्रत्यंचा सम उसने एक यज्ञोपवीत-सूत्र धारण कर रखा था, अथवा तप-सरोवर के मृणाल-कुञ्ज से एक सूत्र; अपनी शाखा सहित एक केसर-फल सम, एक कर में एक कलश लिया हुआ था; दूसरे में एक स्फटिक-माला जो ऐसे लटक रही थी कि जैसे काम की मृत्यु पर सन्ताप में प्रलाप करती रति के अश्रु। उसकी धोती एक मूँज-तृण की मेखला से बँधी थी जैसे कि उसने एक वृत्त धारण कर रखा हो, अपनी अथाह शोभा द्वारा सूर्य को भी पीछे छोड़ते हुए; उसका परिधान दैवी मंदर-तरु के वल्कल (छाल) का बना था, चमकीला जैसे एक वृद्ध तीतर (चकोर) की गुलाबी नयन-पुलक, और आकाश-गंगाओं की ऊर्मियों में धुले; वह तपस्वी जीवन का एक आभूषण था, पुण्यता की यौवन-पूर्ण शोभा, सरस्वती-आह्लाद, सभी विज्ञानों का चयनित स्वामी और दैवी-परंपरा का मिलन-स्थल। ग्रीष्म-ऋतु भाँति उसके पास आसाढ़ (दण्ड) था; शरद ऋतु भाँति उसके पास खिलते जुवार की दमक थी, और मधुमास सम उसका मुख श्वेत भस्म-तिलक से सुशोभित था। उसके पास एक युवा तपस्वी देव-अर्चना हेतु कुसुम एकत्रित करता खड़ा था, जो उसका हमवय और स्वयं की मित्रता के योग्य था।

"तब मैंने एक विस्मयी पुष्प-वृष्टि देखी जो उसके कर्ण पर शोभित थी, जैसे मधुमास (वसंत) के आगमन में प्रमुदित वन्य-श्री की उज्ज्वल स्मित, अथवा मलय-पवनों का स्वागत करते मधुमास का अन्न-अर्पण, अथवा कौड़ी जो कामदेव के गज को सुशोभित करती है; यह भ्रमरों द्वारा प्रसन्न किया जा रहा था; बहुलता ने इसको महिमा प्रदान की थी, और इसका मधु अमृत था। "निश्चय ही" मैंने निर्णय किया, "यह सुवास है जो अन्य कुसुमों को घ्राण-रहित बना देती है", और युवा तपस्वी को देखते हुए मेरे मन में विचार उदित हुआ : 'आह, विधाता कितना मुक्त-हस्त है जिसके पास रूप की उच्चतम सिद्धि निर्माण करने का कौशल है, क्योंकि उसने ब्रह्मांड से भी प्रकृष्ट (श्रेष्ठ) काम को समस्त नैमाणिक (अद्भुत) रमणीयता से निर्मित किया है, और तथापि उसको भी पीछे छोड़ते हुए मुनि को और अतिरिक्त सुंदर रचा है, जैसे कि माया-जनित एक द्वितीय कामदेव हो। मैं विचारती हूँ कि जब ब्रह्मा ने विश्व-प्रसन्नता हेतु चन्द्र-वृत्त निर्माण किया, और लक्ष्मी के विलास-प्रासादों के उत्पल, वह मात्र इस तापसी की आनन-विरचना हेतु निपुणता ग्रहण करने का अभ्यास कर रहा था; अन्यथा क्यों ऐसी वस्तुऐं निर्माण की जाऐं ? सत्य ही यह मिथ्या है कि सूर्य ने अपनी सुषुम्ना-किरण द्वारा इंदु की समस्त कलाओं को पी लिया जैसे कि यह कृष्ण-पक्ष में अपक्षय होता है, क्योंकि उनकी मरीचियाँ इस चारु रूप में प्रवेशार्थ छोड़ी जाती है। अन्यथा एक में कैसे एक शोभा वासित होती है, जो सुंदरता को नष्ट-कर्ता कष्टक प्रायश्चित में रहेगा ? जैसा कि मैंने मनन किया, सुंदरता का दृढ़पालक, जो पाप से पुण्य को नहीं जानता है, और जो सदा युवा के समीप रहता है, ने  मेरी आहों के साथ जुड़कर मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया, जैसे वसंत-प्रमत्तता भ्रमर को बंदी बना लेती है। तब एक दक्षिण नयन से निरत देखते हुए, अर्ध-बंद चक्षु-पलकें, पुतली की कम्पित कटाक्ष नयनों द्वारा कृष्ण हुई पुतली संग मैंने उसे बहुत देर तक देखा। इस दृष्टि से जैसे कि मैंने उसको अपने अंतर में पान कर लिया, उससे विनती की, उसको बताया कि मैं पूर्णतया उसकी हूँ, अपना उर अर्पित किया, अपनी पूर्ण आत्मा संग उसमें प्रवेश की कोशिश की, उसमें समा जाना चाहा, कामदेव-पीड़िता की रक्षार्थ उसकी शरण की विनती की, अपना निवेदन करती अवस्था दिखाई जो उसके हृदय में एक आवास माँगती है; और यद्यपि मैंने स्वयं से पूछा, 'यह क्या लज्जाजनक अनुभूति मुझमें उदित हुई है, एक उत्तम-कुल कन्या हेतु असंभव अनुपयुक्त ?" तब भी यह जानते हुए, मैं स्वयं-विजय नहीं कर सकती थी, परंतु महद कष्ट के साथ उसको देखते हुए निश्चल खड़ी रही। क्योंकि मैं पक्षाघात (शक्तिहीन) प्रतीत होती थी, अथवा एक चित्र में, अथवा विदेश में छितरित, अथवा बद्ध, अथवा एक अवचेतन में और तथापि धृत विस्मयी बुद्धिमान, जैसे यद्यपि जब मेरे अंग असफल हो रहे थे, उसी क्षण सहारा दे दिया गया; क्योंकि मैं नहीं जानती थी कि कैसे एक विषय में निश्चित हो सकता है जो तो किसी को बताया और ही सिखाया जा सकता है, और वह बताने के योग्य भी नहीं है, क्योंकि यह मात्र अंदर से ही सीखा जा सकता है। क्या यह उसकी सुंदरता द्वारा प्रस्तुति से निश्चित किया जा सकता है, अथवा मेरे अपने मस्तिष्क द्वारा, अथवा प्रेम द्वारा, अथवा यौवन या प्रेम द्वारा, अथवा किन्हीं अन्य कारणों द्वारा ? मैं नहीं बता सकती। अपनी इंद्रियों द्वारा ऊपर उठी और उसकी ओर खिंची, मेरे उर द्वारा आगे लाई गई, पीछे से कामदेव द्वारा प्रार्थना करने पर भी, मैंने अभी तक एक प्रबल प्रयास द्वारा अपने आवेग नियंत्रित कर रखा था। सीधे ही आहों का एक भवंडर सतत (अबाधित) आगे बढ़ गया, प्रेमोद्यत जैसे कि वह मेरे अंतः में एक स्थल प्राप्ति हेतु प्रयास कर रहा था; और मेरे वक्ष, मेरे हृदय से आग्रह करता हुआ संवाद-इच्छुक था, और तब मैंने स्वयं में सोचा : "पापी काम का क्या यह एक अनुपयुक्त कृत्य है, जो मुझे इस प्रेम के सभी विचारों से मुक्त, भाव-शून्य तापसी की ओर समर्पण करा रहा है। सत्य ही नारी-हृदय अत्यधिक ही मूर्ख है, क्योंकि यह जो प्रीति करता है, की योग्यता को नहीं तोल सकता। क्योंकि कीर्ति-तप के इस अधिष्ठा को प्रेम की क्रियाशीलता से क्या लेना जिनका अधम नर स्वागत करते हैं। यह विस्मय है कि यह जानते हुए भी मैं अपनी भावना नियंत्रित नहीं कर सकती थी। अन्य कन्याऐं, निश्चित ही लज्जा को एक ओर रखकर, अपनी इच्छा से अपने भर्ताओं के पास चली गई थी; अन्य उस धृष्ट मदन द्वारा उन्मादित हुई हैं, परंतु यहाँ अकेली मेरी जैसी कोई भी नहीं है। कैसे उस एक क्षण में मेरा हृदय उसके रूप की मात्र दृष्टि द्वारा उत्पात में फेंक दिया गया है, और मेरे नियंत्रण से चला गया है ! क्योंकि ज्ञान एवं उत्तम गुणों हेतु समय सदा ही कामदेव को अविजित बना देता है। मेरे लिए यह स्थान त्यागना ही अत्युत्तम है जब अभी तक मैं निज-चेतन में हूँ, और जब वह स्पष्टतया मेरे इस प्रेम की घृणास्पद मूढ़ता को नहीं देखता है। संयोग से यदि वह मुझमें प्रेम-प्रभाव देखता है जिसको वह स्वीकृत नहीं कर सकता, वह क्रोध में मुझे अपने शाप-अनुभूति करा सकता है क्योंकि मुनि सदा ही क्रोधोन्मुख होते हैं। अतएव कृत-संकल्प, मैं विदा हेतु तत्पर थी, परंतु यह स्मरण करके कि पावन पुरुष सब द्वारा सम्मानित किए जाने चाहिऐं, मैंने उसके मुख पर दृष्टि-चक्र द्वारा उसका अभिवादन किया, पक्ष्म (पलक) अविचलित, नीचे देखते हुए, मेरे कपोल कर्णों में लटकते कुसुमों द्वारा अस्पर्शित, मेरी माला मेरे लहराते केशों पर पड़ती, और मेरे कर्णाभूषण मेरे स्कन्धों पर पड़ते।

"जैसे मैं इस प्रकार नमन थी, प्रेम के अनियंत्रित-आदेश, वसंत की प्रेरणा-स्थल रमणीयता, यौवन-दुराग्रहीपन, इंद्रिय-अस्थिरता, पार्थिव-वस्तुओं हेतु अधीर कामना, मस्तिष्क-चंचलता, भाग्य जिन घटनाओं को नियंत्रण करता है - एक शब्द में, मेरा निज निर्दयी-दैव, और यथार्थ कि मेरी मुसीबत उस द्वारा जनित थी, ये कारण थे जिसके द्वारा मदन ने मेरी अनुभूति-दृष्टि द्वारा अपनी दृढ़ता छुड़वा दी थी, और पवन में अग्नि सम उसको मेरी ओर तरंगित बनाया। वह भी प्रत्यक्षतः प्रमुदित था, जैसे कि नव-प्रवेशित काम का अभिनंदन कर रहा हो; उसकी आह उसके समक्ष उसके मस्तिष्क के मार्ग-दर्शन हेतु चली गई जो उसे मेरी ओर त्वरित कर रहा था; उसके व्रत-खंडन के भय से उसकी हस्त-माला कम्पित थी और हिल रही थी; उसके कपोलों पर स्वेद उदित हो गया, जैसे कि उसके कर्ण से लटकती एक द्वितीय माला हो, जैसे उसकी पुतली विस्फरित हो रही थी, उसके नयन दृष्टि मेरे विचार की प्रसन्नता में चौड़े हो गए थे, उस स्थल को एक कमल-कुंज में परिवर्तित कर दिया था, जिससे कि अग्रसर दीर्घ-किरणों द्वारा दसों दिशाऐं पूरित हों जैसे कि खिले उत्पलों की विपुल राशि ने अपनी इच्छा से अच्छोडा सरोवर परित्याग कर दिया और नभ में उदित हो रही थी।

"उसमें प्रकट परिवर्तन द्वारा मेरा प्रेम दुगुना हो गया और मैं उस क्षण उस अवस्था में हो गई जो अवर्णनीय है, मेरे कुल की सब अनुपयुक्ता 'सत्य ही', मैंने ध्यान किया : "काम ही नयनों को यह क्रीड़ा सिखाता है, यद्यपि प्रायः एक लंबे आनंदित प्रेम पश्चात, अन्यथा इस तापसी की दृष्टि में कब आता है ? क्योंकि उसका मस्तिष्क लौकिक-सुखों की मिश्रित भावनाओं से अनभ्यस्त है, और तथापि उसके नयन, यद्यपि उन्होंने कदापि यह कला नहीं सीखी, प्रमोद से अर्ध-बंद हैं; कष्ट से शिथिल हैं, निद्रा से भारी, मटकती पुतलियों से भ्रमण करते और प्रमुदता-भार से निस्तेज, और यद्यपि उसके नयन-भ्रूओं के खेल से अभी तक नहीं चमकते। कैसे असाधारण निपुणता आती है जो हृदय की इच्छा मात्र एक दृष्टि द्वारा निःशब्द बखान करती है।

"इन विचारों से प्रेरित मैं आगे बढ़ी, और उसके द्वितीय-तापसी सखा के समक्ष नमन करते हुए, मैंने पूछा : "उसका वंदनीय का क्या नाम है ? वह कौन मुनि-पुत्र है ? किस वृक्ष से यह (यष्टि) माला बुनी गई है ? क्योंकि अभी तक अज्ञात, इसकी सुवास दुर्लभ माधुर्य मुझमें महद उत्सुकता उदित करती है।

......क्रमशः   



हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(१९ जनवरी, २०१९ समय २२:५१ रात्रि)

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