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Saturday 13 February 2016

निर्मल-स्पंदन

निर्मल-स्पंदन
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ब्रह्म-मुहूर्त रात्रि अंतिम-प्रहर, मैं जागृत, अधिकांश जग है सुप्त

एकांत, प्रारंभ किया लेख संग चिंतन, मननशील होने को मुग्ध॥

 

निर्मल-मन निर्लेष-आत्मा, कोरा स्लेट-पटल, चित्रांकन अद्भुत

विचार-लेखा कैसे उकेरेगी, अज्ञात है पर प्रयास-अवस्था निरत।

किस क्षण बुद्धि-कोष्टक कर्मभूत होगा, कलम को संकेत उकेर

गति मिलेगी स्वतः निर्द्वन्द्व ही, स्पंदन-निरूपण से अनुपम मेल॥

 

मन-प्रेरणा तो प्राण-भूता, अवस्था परिवर्तन है अवचेतन से चेतन

नहीं सहन है स्व अल्प-प्रयोग, मिला मानव यंत्र एक अमूल्य भेंट।

असंख्य प्रयास-परिणाम से है उपस्थिति, कर्म हेतु वाँछित निर्देश

यह चालक-संचालक तुम्हीं हो, कर्त्तव्य-परायण हेतु परम-प्रवेश॥

 

क्या संभावनाऐं हैं इस निपुण-यंत्र में, प्रवर्धित मन-ऊर्जा ही प्रयोग

ज्ञान-चक्षु खुलें तो दर्शन को अनुपम, जगत-सौंदर्य संग है संयोग।

अन्याय-न्याय विस्तृत धरा-पटल पर, स्वार्थ-निस्वार्थ के कई खेल

प्रश्न किस परम-उद्देश्य में परिलक्षित, संचारण सर्व-हित से मेल॥

 

कौन हैं मनन उच्च-प्रक्षेपण प्रेरक, तज सब स्व-दुर्बलता तन-मन

आत्मा बन सके एक सक्षम परम सम, सर्वदा रत उद्योग निर्मल।

अनेक तप-लीन हैं अपने ईष्ट में, पाया वरदान तो न किया आदर

गर्व-मद-मोह-स्वार्थ-काम में लिप्त थे, मूल-श्रम हुआ असार्थक॥

 

तब क्या उद्देश्य मनन-कर्म का, सफल होते भी न आए भद्र-भाव

अपने ही वार में है फँस जाता, जगत से हटाने को देव लगते दाँव।

अनेक देवासुर-दृष्टांत समक्ष हैं, अनुपम वर मिला पर प्रयोग निकृष्ट

वही देव तब अरि हो जाते, पोसा अपयश, अतिरिक्त जीवन-वध॥

 

हम विद्या-ग्राही, कुछ विधि सीखते हैं, शस्त्र-शास्त्र का ज्ञानार्जन

किञ्चित हों प्रक्रिया में मृदुल-मन, पर क्या रहते हैं दीर्घ तत्सम।

जब `विनय ददाति विद्या', तो क्या अनिष्टचारी हैं अज्ञानी- अधम

 कितने समय एक रह सकता सत्व-भाव में, चरित्र का है दर्पण॥

 

स्व-विश्व बृहद का ही अंश, निज-दशा का अनुरूप प्रभाव प्रखर

सहायक बनो ललित-वृत्त निर्माण में, एक कुटीर सर्वार्थ सुखकर।

प्रत्येक अणु से सकल स्रष्टि-रचना, उपयुक्तता ही है मुख्य कारक

जैसा है मन-चित्रण, उकेरे तथैव, लक्षित होंगे कल्याण-सहायक॥

 

सब भगाने को तत्पर, करो कर्म-युद्ध, पर मंशा कुछ परम-फुहार

रोको स्वयं को, लगा लो बुद्धि, जीवन मिला तो कर्मठता-पुकार।

निर्बल तन-मन संग सदा भ्रमित, अनुरूप अलब्ध, कर्त्तव्य निर्माण

 आत्म-चिंतन संग योग हो सुप्रयत्न, मार्ग-प्रशस्त संभावना है अपार॥

 

जीव-प्रक्रिया है योग- वियोग की, हरक्षण लब्ध निर्णय को उपयुक्त

संचित क्या करते प्राण-गति में, अंत में जुड़ता चला जाता है सहज।

क्यों सदा विरोधाभास में ही गमन, स्व- मन इंगित करो लक्ष्य-परम

स्व-हित सर्वहित में निहित ही है, क्यों लुब्ध-प्रवृत्ति से लिपटो व्यर्थ॥

 

क्यों स्व लघुतर में ही प्रेषित, द्वार खुलें वृहद ब्रह्माण्ड अति-प्रस्तुत

एक-२ मण्डल प्रेरक हम अल्प का, स्मितमय बनकर बनें बेहतर।

स्व-उपार्जन कर्त्तव्य महद उद्देश्यार्थ, सार्थक-सिद्धि है नित्य वाँछित

महाजन- प्रभावित सामान्य अनुचरण, अवसर है, न करो निष्फल॥

 

माना स्व अत्यल्प, क्षण-भंगुर, निम्न-अज्ञानी पर दिशा तो करनी तय

तुम वृहद अनंत-काल वासी, इसी के अणुओं में रहोगे सदा-समय।

क्यों बनते संकुचित सदा रुदन-कुयत्न में, कभी पूर्ण झोंककर देखो

युद्ध स्व-संग उच्च शिखर चढ़ाई हेतु, न स्वीकार सड़कर मृत्यु हो॥

 

दृष्टि विकसित करो अनुपम-आनंद हेतु, नित्य-चेष्टा ही रखेगी समृद्ध

मत हों अपघटित लघु-मारक तृष्णा में, मुक्ति-द्वार खुलेंगे अनिरुद्ध।

असंख्य नर सदैव रत महद उद्देश्य, अंतः-प्रेरणा से विकास-सहयोग

आनंद अवश्यमेव प्रस्तुत होते रहेंगे, बस अडिग रहो सतत उद्योग॥

 

निर्मल-स्पंदन वसंत-मुकुल को ऊर्जा, विकसित सौरभ कुसुम-वैभव

संभालो वर्तमान वही मार्ग अनुपम, न अवरुद्ध होने दो प्रवाह सतत॥


पवन कुमार
13 फरवरी, 2016 समय 23:52 म० रा०  
(मेरी डायरी दि० 19 जनवरी, 2016 समय 5:54 प्रातः से)

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