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Sunday 7 April 2019

चिरंतन विवेचन

चिरंतन विवेचन
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एक स्वाभाविक सा प्रश्न आज मेरे मन में आया 
 शनै-२ आयु बढ़ रही, जीवन यूँ बीता जा रहा।   

क्या जीवन मात्र है प्रातः-अपराह्न-निशा ही मध्य
हम जीते इन क्षणों में ,जैसे यही है शाश्वत सत्य। 
कार्यालय में काम, सहकर्मियों से संवाद-विवाद  
कुछ कहना, सुनना, उसको पचाने हेतु विचार। 

सिमटा यह जीवन, कुछ घर-कार्यालय के मध्य
निर्वाह इसी में है और इसी को समझते सर्वस्व। 
दृष्टिकोण व्यापक न निर्मित, उलझे वर्तमान में ही
न भविष्य-चिंतन, वर्तमान सुधार, भ्रमित सदा ही। 

कैसा जीवन नवीनता शून्य, कुछ नव तो भी कृत्रिम 
क्यों जग सारहीन भासित, नर कहते यही जीवन।   
कौन पल परम-रोमांच के, कैसे सदा नवीनता पाऐं 
क्या प्रक्रिया निज-संपर्क की, कैसे आत्मसात होते। 

सब उलझे स्व-रचित व्यूह, मुक्ति-पथ तो अचिन्हित 
एक ढ़र्रा सी निर्मित जीवन शैली, सोचते यही परम। 
हमी सबसे धीमान, सर्व संशय-त्रुटि मुक्त व पुण्यी  
जग ही तो दोषी, इसका निर्णय भी करते स्वयं ही। 

न कोई आदर्श जीवन-संहिता, सबके अपने-२ धर्म  
कुछ पूर्वाग्रहों संग जन्म, कुछ विचार कर ही वर्धन।
हर मनुज एक दार्शनिक सा, जग को सोचे बस मूढ़ 
माना संग स्व-रुचि वालों से, निज-बात ही अग्र-तिष्ठ। 

यह कैसा शोध, स्व कुचेष्टा-मूढ़ता व विकारों से न कष्ट 
न घाव-निरीक्षण, न पथ्य-युक्ति, जीवन करते हैं अल्प। 
घोर तमासीन जग, जीवन-सकारात्मकता की न समझ
  विवेक-उद्भव संभावना का, ज्ञान लो किसी विज्ञ निकट। 

कौन वे योगी-मर्मज्ञ, प्रत्येक संवेदना की जाँच में समर्थ 
उचित स्थिति आँक, कुछ सुप्रबंधन-युक्ति सकते कर। 
कौन देखते जीवन को स्व से ऊपर, निर्मल दृष्टि वाहक  
चिंतन सार्वभौमिक, मनुज-दुर्बलताओं की शुद्ध समझ। 

माना प्राण न परीक्षण-सामग्री, पर क्या सुपथ विकासार्थ 
मानव उनको अपनाकर तो सबका हित है सकता कर। 
कुछ ठोस धरातल मिले, जिसपर चलकर हम पैर जमाऐं 
नहीं उड़ें ख्याली-पुलावों में, बस कुछ करके दिखलाऐं। 

भौतिक विकास जरूरी, नर प्राप्त अतिरिक्त ऊर्जा-समय 
नर उनके प्रयोग से तो स्व व अन्यों का हित सकता कर। 
कुछ क्षणों को दृढ़ पकड़कर उनमें चिंतन सुधार हेतु करें 
कुछ कार्यशैली में परिवर्तन से, स्व-जीवन को धन्य करें। 

न सीमित मात्र भौतिकता में, परम गति हेतु होता प्रेरित 
क्या वह समाधि-स्थिति, संपूर्ण-एकाग्रता होती समाहित। 
क्या हैं इच्छा-पथ जो मानव को दुर्गम स्थलों में पहुँचाते 
जिससे उसका वृहद फैलाव, पूर्णता ओर कदम बढ़ते?

चिरंतन निज-विवेचना, आदर्श सफल से तुलना करना 
शिक्षा हम कैसे पश्चग, मुख्य कारण अंतः या बाह्य क्या ?
स्व-चेष्टा से ही मानव कुछ स्थायी प्रगति कर है सकता 
माना पूर्वाग्रह भी तथापि कर्मठ को पथ मिला करता। 

क्या आहत करता, क्यों न इस जीवन का पूर्ण उपयोग 
अनेक अध्याय पड़े रहते अधूरे, बैठा यूँ देखता अबोध। 
कैसे हो उनमें छेदन, मेरी चेष्टा क्यूँ न बनाए है आमिल 
हर नव-अज्ञात बिंदु झझकोरता, क्यूँ समझ इसकी न ?

असंख्य विषय अनाड़ी मैं, चेष्टा अधूरी विकसित-अर्ध 
कैसे पटे अनंत दूरी, अविवेक व संपूर्णता के मध्य। 
कैसे सबल हो देह-मन से, प्रवृति ब्रह्म पार जाने की 
क्यूँ  अधखिला, जब संभावना पूर्ण पुष्प बनने की। 

होने दो दुर्बलता-परिचय, दृष्टि उच्च-लक्ष्य पर इंगित 
प्रत्येक दोष ठोक बजाकर, औषधि बनने को स्वस्थ। 
मन-तन स्वच्छ-निर्मल, कृष्ण सम संपूर्ण हेतु प्रेरक  
मिटे ज्ञात-अज्ञात की दूरी, मुक्ति इसी जीवन संभव। 

मेरी मुक्ति क्या, वह मात्र स्व-अंतर्विरोधों पर विजय  
न समझ स्व को निम्न, आत्मसात होऊँ स्थिति में हर। 
वह स्थिति जब समस्त ब्रह्मांड को चित्त में समा पाऊँ 
एक गूढ़-चिंतन व एकात्मकता, स्व को स्थित पाऊँ। 

इस जग ने बनाए कोष्टक, मानव-विभाजन स्थिति के 
ज्ञानी हेतु सब सम ही, भेद तो आत्म-ज्ञान होने का है। 
जिसे अपने को जान-समझ लिया, वही ब्रह्मज्ञानी-श्रेष्ठ  
जो निज-मूढ़ता से आगे बढ़ना चाहते, वे ही नर हैं, नर। 

वर्तमान-चिंतन भविष्य मार्ग खोलता, स्वयं-सुधार लक्ष्य  
संपर्क कुछ सरल-हृदय मनुजों से, जो सिखला दें कुछ। 
विनती जग में होनी चाहिए, अपने में निवास सुयोग्यता 
देखो कर्ण साहस, परशुराम-शिक्षालय में जा मिलता। 

मूलशंकर बनें दयानंद सरस्वती, आर्य-समाज स्थापित 
कैसे उनके नेत्रों ने सब रूढ़ियों पर किया कुठाराघात? 
वे ही हैं सचमुच प्रणेता, कूप-मण्डूकता से निकले बाहर
मानव-सोच हो स्वार्थ से परे, जिजीविषा उत्तम की करे। 

कौन वे देव एकान्त  क्षणों के, क्या है वर्तमान स्व-चलित 
या स्वतः निर्माण, समग्र सामग्री अग्रसरण हेतु उपलब्ध। 
कैसे हो चिंतन-वर्धन, स्व-मूढ़ता व जग-चतुरता से ऊपर  
अनाक्षेप क्षुद्र विषयों में, आवश्यक कदापि न स्व-सकुचन। 

माना जग-चलन यथार्थ-कर्म से, मनन उस हेतु रचता पथ 
ज्ञान दृष्टि ही पवित्र, सुभग वे जिनपे है वह कृपा-निधान । 
निरंतर आत्म-दर्शन लालसा, सीमाओं को आगे ले जाता 
यही विश्व-विजय बनती, अश्वमेध अश्व खुला विचरने जाता। 

इंगित संपूर्णता परिलक्षित, यदि कोई शुचिता से कदम 
न कोई अतिश्योक्ति, पर क्रमशः जमाए उचित चरण। 
स्व-प्रबोध महद प्रयास-उपलब्धि, यत्न इस हेतु करें सब
प्रफुल्ल निश्चय ही तुम, पर करो एक पवित्र वातावरण। 

वय-वर्धन तो अवश्यमेव, शंका मत सर्व-वय शनै प्राप्त
लोगे स्थान अग्रजों का, अनुज अपने पथ पर अगसर। 
फिर भी वर्तमान मिला, नाटक-रोल उचित निभाने को 
स्तुति-चाह न मात्र भी, निष्ठा अपने वाँछित कर्तव्यों में। 

कोई क्यूँ देखे, टिप्पणी करे, क्यूँ समर्थ न स्व-विवेचन 
जीवन निज, दाग न लगा, सार्थकता हेतु छोड़ो चूक न। 
खिवैया  इस अनुपम उपहार के, विधाता द्वारा सुदान 
बिना झिझके चले चलो व  प्रयास करो जाने को पार। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०१९ समय ००:०४ मध्य रात्रि
(मेरी डायरी १६ नवंबर, २०१४ समय ९:५२ प्रातः से) 
   


3 comments:

  1. सार्थक आत्म-चिंतन करती है आपकी रचना ... सुन्दर अभिव्यक्ति ...

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  2. Rajesh Kumar: "Vaqt kis tezī se guzrā roz-marra meñ 'munīr'
    aaj kal hotā gayā aur din havā hote ga.e

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