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Saturday 24 May 2014

कलम के प्रश्न

कलम के प्रश्न


दुनिया में दर्द का एक रिश्ता  है 
और इसी में हम बहे जा रहे हैं। 

कहने को तो कुछ भी नहीं है मन में 
बस यह लेखनी ही है जो सफर को बढ़ाए जा रही। 
हम तो बस यूँ ही जिंदगी तय करने में जुटे थे 
यही प्रिय जीवन में कुछ प्राण फूँकने का प्रयत्न कर रही। 

मैं कैसे कहूँ और क्या कहूँ जब मन में समझ नहीं आती 
दिमाग कुछ थम सा गया है और नींद जैसा आलम है। 
मैंने फिर यह लेखनी उठा ली है 
अब इसके कमाल के सहारे ही अगली पंक्तियों का भविष्य है। 

दुनिया में जीने के लिए स्वयं को मारना पड़ता है 
कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। 
अजीब दास्तान है ये जीवन -ए- मुहब्बत 
अजी हम मर भी जाऐं और शिकायत भी न करें। 

आज का दिवस भी बस यूँ ही  बीत गया
कुछ पढ़कर, कुछ सोकर, कुछ बातचीत में मशगूल होकर। 
दो बार बहन को टेलीफोन किया, विनोद का इंजीनियरिंग सर्विसेज का रिजल्ट जानने को, 
एक बार अपनी प्रियतमा से बात की उसी सिलसिले में। 

राजीव के भाई का एग्जाम पास हो गया है 
विनोद के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हूँ। 
लेकिन अगली परीक्षा की तैयारी तो उसके हाथ में है 
केवल मेहनत व ईमानदारी से भविष्य बना सकता है। 

जीवन में योजना भी कोई चीज होती है, 
उसी के बूते मनुष्य बड़ी बाधाऐं पार कर जाता है। 
हम अपने ऊपर विश्वास तथा साहस द्वारा 
जीवन के दुर्गम मार्ग सुगमता से पार कर सकते हैं। 

क्यों इतनी कुटिलता है, क्यों इतनी जटिलता है 
इसमें ही यह सब क्यों कहानी बन जाती है ?  
मनुष्य क्षुद्र लाभों हेतु घिनौनी हरकत कर जाता है 
जैसे जीवन में उचित विषयों हेतु कोई स्थान ही न है। 

हम अपना गुजर नेक नीयत से भी कर सकते हैं 
 ईमानदारी व ठीक तरीके द्वारा यापन कर सकते हैं। 
लेकिन कुछ प्राणी निज कुकृत्यों द्वारा न केवल अपना 
अपितु दूसरों का भी जीवन नरक कर देते हैं। 

यह सत्य कि सभी पूर्णरूपेण आदर्शवादी न हो सकते 
पर यह भी सत्य है कि आटे में नमक चलता है। 
लेकिन यह नमक भी कितना लगेगा 
सभी को तो नमकीन रोटी चाहिए ही। 

कब होगा वह जमाना जब सब सत्य प्रति आमुख होंगें, 
हमारे जीवन में नेक-नियति, सच्चाई की ताकत होगी। 
जब आदर्श केवल आदर्श न होकर 
हमारी दिन-चर्या का एक अंग बन जाएगा। 

कब ऐसा ज़माना होगा जब निज योग्यता पर भरोसा होगा 
और कब अपने पैर ज़मीं पर जमा सकेंगे ? 
कब गर्व कर सकेंगे अपनी आदमियत पर, 
और दुनिया से अधमता का अंधकार मिटा सकेंगे ? 

कब होगा वह दिन जब माँ सरस्वती की कृपा होगी
कब मुख-लेखनी से कुछ सारगर्भित शब्द निकलेंगे ?  
कब मैं केवल खोखली बातों से ही सन्तुष्ट हो न हूँगा  
और कब आदर्श व्यक्तित्व पैदा होने को छटपटाएगा ? 

कब आऐंगे वो क्षण, जब अस्तित्व-पूर्ण जीवन हूँगा, 
और कह सकूंगा मेरा भी आना दुनिया में सार्थक है। 
कब मुझमें परम जीवंत-चेतना का अहसास होगा, 
कि मुझमें में भी सारगर्भित जीवन का स्पंदन है। 

कब मैं प्राचीन याज्ञवलक्य सा खोजी हूँगा 
कब कठिनतम प्रश्नों के उत्तर खोजने को तत्पर हूँगा ? 
कब स्वयं से सार्थक प्रश्न करने में सक्षम हूँगा 
और इस तम को दूर करने हेतु विचलित हूँगा ? 

कब अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत हूँगा 
और निज विफलताओं / दुर्बलताओं को ज्ञाता हूँगा ?  
कब अपनी परिभाषा देने में सक्षम हूँगा 
और फिर सच्ची पहचान के संग जी सकूँगा। 

कब जीवन में सच्चाई का अहसास होगा, 
कब कष्टों के निकास-पथ ढूँढने हेतु करबद्ध हूँगा ?
कब छोटी -2 विफलताओं में हार न  मानूँगा 
और सफलता के सच्चे अर्थ को समझ सकूँगा ?

कब स्वयं पर पूर्ण विजय का सपना लूँगा 
कब जीवन को पूरा जी ही सकूँगा ? 
कब माता-पिता, भाई-बहन व जग के कर्त्तव्य समझूँगा 
और कब वे मेरे और मैं उनके अनुकूल बन सकेंगे ? 

कब मुझे दी गई जिम्मेवारियों को समझ सकूँगा 
कब उनका निर्वाह करने में कोई कसर न छोड़ूँगा ? 
कब दूजों की टिप्पणियों को ठीक परिपेक्ष्य में लूँगा 
और कब स्वयं सुधार वाले रास्ते पर अग्रसर हूँगा ?

मेरे माता-पिता के मुझ पर बड़े अहसान हैं। उनका पालन मैं उतनी दृढ़ता से नहीं कर रहा हूँ जितना कि मुझे करना चाहिए। मैं उन्हें कई बार तो शब्दों द्वारा दुःखी कर देता हूँ हालाँकि ऐसी कोई मेरी इच्छा नहीं होती। हे प्रभु ! मुझे समझ दे कि मैं अपने जीवित माता-पिता में तुम्हारे दर्शन करने लग जाऊँ। मुझे केवल तार्किक न बनाकर सच्ची बुद्धि दे और भक्ति दे। बहुत दिनों तक मैं शायद अपने इस कर्त्तव्य को उतनी कर्मठता से नहीं पाया जितनी मुझे करनी चाहिए। हे प्रभु ! मुझे सद्बुद्धि दे कि चीजों को ठीक रूप में देखूं। किसी से मेरा वैमनस्य न हो और मैं अपना कार्य सुचारू रूप से करूँ। सभी के लिए अच्छी भावनाऐं रखूँ और सभी का भला चाहूँ। 


धन्यवाद, शुभ रात्रि। 


पवन कुमार,
24 मई, 2014 समय 22:18 रात्रि 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 5 फरवरी, 2001 समय 12:15 म० रा० से )
      

2 comments:

  1. खुद से किये गए ये प्रश्न, आज के भौतिक युग में , कहाँ मिलते हैं ! लाखों में एक व्यक्ति इन प्रश्नों को समझ पाता है और अरबों में से एक बुद्ध पैदा होता है !

    हजारो साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
    बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा !

    माता पिता के प्रति शायद हम सभी लापरवाह हो जाते हैं , उनके प्रति हमें अधिक समय देना होगा ! आपकी इस रचना से , बड़ों की याद आ गयी ! आभार आपका

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    1. सतीश जी, सचमुच अपने को चरम की अनुभूति तक ले जाना मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। हम अपनी दुर्बलताओं से ऊपर उठें, यही सार्थकता है। प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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