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Friday 2 May 2014

आत्म-बोध

आत्म-बोध

जब मन का अपना विचार हुआ तो मनन करन का ज्ञान हुआ 
बेढंगी जीवन-चाल से निकल, कुछ सार्थक जीने का बोध हुआ। 

कैसा जीना, कैसा मरना, यह जीना भी क़ोई ज़ीना है 
जब दुनिया तो इतना बढ़ जाती, तू व्यर्थ ताने अपना सीना है। 
है कोई सबक याद तुझे उन्नति का, या यूँ ही गर्व में जीते हो 
दुनिया के फंदें तो समझे नहीं, बस यूँ ही व्यर्थ गँवाते हो। 

मन को कभी न मीत बनाया, न कभी तो आत्म-बोध हुआ 
सोचा बस यूँ ही कट जाएगी, अब निकट पड़ी तो भय हुआ। 

मीराओं के कृष्ण तो आकर बंशी - तान सुनाते हैं 
अपनी मनोरम लीलाओं से उनका मन बहलाते हैँ। 
लेकिन मैं मूर्ख तो प्रेम शब्द को क्या जानूँ 
जैसे आया वैसे जी लिया, इसे क्या समझूँ व क्या जानूँ।  

तेरी ही लीला का मुझे तो क़भी भी न अहसास हुआ 
संवेदनहीन जीवन जीने का कभी न मुझको कष्ट हुआ। 

वे जब बेहतर ढंग से जीते, क्या कभी अपना भी ध्यान किया 
निज दुर्बलताओं को क्या कभी देखा, या इन पर मनन किया। 
बहुत पिछड़ गए हो बन्धु, दया या गुस्सा क्यों नहीं आता 
सुस्ती छोड़ आगे बढ़ने को, कदम तेरा क्यों न बढ़ जाता।

मुझ पर तुम अहसान करो तो प्रभु, तेरी दया का पात्र हुआ 
चलूँ नेक रास्ते पर तेरे और कदम -कदम पर ध्यान हुआ। 

प्रभु ! प्रगति पर ध्यान लगवाओ, रहमत रखो 
मुझे आगे बढ़ने के लिये सदा प्रोत्साहित करो। 
हमेशा अच्छा सोचूँ , बुराइयों त्यागूँ ,
सदा तेरा ध्यान रखूँ, व ज्ञान का मार्ग न छोड़ूँ।  

धन्यवाद। 

पवन कुमार ,
2 मई, 2014 समय 23:11 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 14.12.2001 समय 11:35 म ० रा ० )

   

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