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Sunday 27 April 2014

चुनाव काल

चुनाव काल 
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आओ चलें कुछ देश, काल की बात करें
अपनो के साथ कुछ चर्चा बाहर की  भी करेँ। 

क्या करूँ विवरण, जब सब उसमें ही तो व्यस्त हैं
सभी को तो गरम खबर चाहिए जो खूब उपलब्ध हैं।
टी वी और प्रकाशन माध्यम बहुत व्यस्त हैं अपनी TRP बढ़ाने में
सभी कहते वे श्रेष्ठ हैं अन्यों से, प्रस्तुत करने में जन भावनाओं को।

अपने -2 मंतव्य और विशेषज्ञों की राय के लिए जमावड़ा लगाकर
बैठ जातें सायं समस्त चैनल राग अपना अलापने को।
केवल एक जैसी ख़बरें हैं मानो और कुछ हो ही नहीं रहा ज़माने मेँ
दर्शक भी मुग्ध हैं इन चर्चाओं से, और किंचित आनन्दित भी।  

फिर जैसे चुनाव की ख़बरों ने भारत को सिकोड़ ही दिया  है 
सुबह-शाम बस नेताओं के कसीदें पढे जाते हैँ।
तकनीकी क्रांति ने बहुत सहायता की है इसे बढाने में 
अब लोग हैं कि इसको सुने या उसको देखेँ। 

जब इतना कुछ हो रहा है तो क्यों नहीं है उसका ज़िक्र 
बहुत सकारात्मक बदलाव हुऐं हैँ और हो रहे हैँ, बिना इन नेताओँ के भी। 
क्या सारी सृष्टि को चलाने का प्रश्रय इन्हीं को जाता है, 
क्यों सब आम जन की मेहनत और त्याग को भूल जाते हैं?

लगे हैं दिन -रात विश्व के समस्त जन, इसकी काया पलटने को 
पर हमारे राजनीतिज्ञों को बस एक दूसरे की टांग तोड़ने से फ़ुरसत नहीं हैं। 
सारा चुनाव प्रचार, राजनीतिक नकारात्मकता पर आधारित है 
जबकि सब जानते हैं कि कौन है कितने पानी मेँ।

सत्य है कि जितना हो सकता था, उतना हुआ नहीं 
पर विकसित होने में तो ज़माना बीत जाता हैँ। 
और केवल नेता ही नहीं, हम सब हैं इसमेँ भागी 
क्योंकि सबके करने से ही आते हैं परिणाम अच्छे।

फिर हमको मिलते हैं नेता, जिसके हम अनुरूप हैँ 
या फिर कुछ नेताओं ने समस्त प्रक्रिया को कब्ज़ा लिया है।
और लोगों को नहीं मिलती सुविधा कुछ नए चुनने की 
क्योंकि सभी प्रत्याशी चरित्र में कमोबेश एक जैसे हैँ।

पर नेता ही क्यों सभी क्षेत्रों में कुछ का है साम्राज्य
कुछ राजनेता, कुछ उद्योगपति, कुछ घराने ही सबसे शक्तिशाली हैँ।
उनकी नीतियों से चलता है तन्त्र और वे बहुत निःस्वार्थी नहीँ हैं
माना कि उससे कुछ आम जन का भी भला हो जाता है।

फिर कुछ तो मेल है नीति-निर्धारकोँ और प्रभावशालियों में
इससे आम जन के मुद्दें गौण हुआ करते हैँ।
प्रजा भी कभी-2 प्रसन्न हो जाती है, बाँटी जाने वाली रेवड़ियों से
अन्यथा बहुदा उसका जीवन कठिन हुआ करता है।

क्या बात करूँ इस झंझावात की, जब सब एक ही जैसे हैं 
कुछ लोग फ़िर प्रवेश करना चाहते शायद उस प्रक्रिया में शामिल होने को।
और फिर सहायक हैं तमाम संस्थाऐं आपकी छवि बनाने में
लेकिन असली चेहरा तो सामने आता ही नहीँ।

क्यों छटपटाहट है कुछ नए चेहरों के आने से 
शायद इससे पुरानों की रोटी प्रभावित होगी।
फिर पूरी तरह से कब्जा है तंत्र पर उनका 
और क्यों फिर हटना चाहेगें वे अपने साम्राज्य से। 

फिर चुनाव हैं तो किसी को तो चुनना ही पड़ेगा
मंथन होगा फ़िर उस महासमुद्र का, कुछ अमृत, कुछ विष निकलेगा।
खेल हम भी देख रहें हैं कि कहाँ पर चक्र रूकता है 
और हम भी चाहते हैं कुछ नया, शायद हो इसमे जनतां का कुछ भला।

पर कब होगा आदर्श देश का निर्माण,
और सरकार का सरोकार हो सबका कल्याण।  


पवन कुमार 
27 अप्रैल, 2014 समय 19:24 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 19 अप्रैल, 2014 समय 19:17 सायं से )

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