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Sunday 20 April 2014

द्वन्द्व और मेरा निर्णय

द्वन्द्व और मेरा निर्णय

 

एक अंधकार और एक प्रकाश है, द्वन्द्व है कि कौन उत्तम

देखते हैं कैसे गुफ्तुगू करते, और क्या निकलता निष्कर्ष?

 

मन में अंतः तक एक घोर अंधकार है, मानो नितांत शून्य

किंतु प्रकाश-किरण सर्वस्व कर देना चाहती दृष्टिगोचर।

अंधेरे ने तो मानो सब कुछ दोष-गुण निज में लिए हैं छुपा

पर प्रकाश भी कम न है, हर कोण-उपस्थित चाहे होना॥

 

फिर एक लड़ाई, एक छिपाना चाहता है व दूसरा दिखाना

एक कहता जैसे हो पड़े ही रहो, बाहर तो कोई देख लेगा।

किंतु दूसरा कहता, अरे डर कैसा, कोई खा न जाएगा तुम्हें

फिर सब तुम जैसे ही तो हैं, या अन्यत्र भी अधम स्थिति में॥

 

किंतु तमस है चालाक, डराता-धमकाता है कि अंधे रहो बने

जब तुम चक्षुहीन- अज्ञानी हो, तो चहुँ ओर सुख ही सुख हैं।

यहाँ तुमको कोई भी चिंता-कर्म करने की आवश्यकता न है

फिर भाग्य-देव ने भी तुम हेतु कुछ सोचकर प्रबंध किया है॥

 

लेकिन ज्योति तो सहमत नहीं, उसका कुछ और ही है मनन

भाई, औरों पर न सही तो कमसकम अपने पर खाओ रहम।

यदि दर्शन न भी कर सको तो, न्यूनतम अनुभव करना सीखो

क्या तुम्हें अनुभव नहीं होता, चहुँ ओर कितने बिछे हुए कंटक॥

 

पर तमस का अपना ही दर्शन है, ये कांटें आदि कुछ भी नहीं

यहाँ सब प्रयोग घटित, फिर सब संग कुछ त्रासदियाँ चलती।

फिर इसमें क्या कम ही आनंद है, गुजर हो जाता कमी में भी

और अबतक तो अतएव जीने-सहने की आदत पड़ गई होगी॥

 

किंतु प्रकाश आशावादी है, कहता कि क्यों हो इतने भाग्यवादी

अरे मूर्ख, क्यों सदा स्वयं को समझते हो बस हताश व मृत ही?

क्यों तुम्हें अंतः आशा-संचार और सकारात्मक अनुभूति न होती

क्यों कुछ बड़ा अच्छा करने, जीवन-सुधार की इच्छा न होती॥

 

कैसी इच्छा, कैसी सकारात्मक ही आशा, सब हैं झूठ ढ़कोसलें

ये सब तुम्हें बिलकुल ही व्यर्थ, व समाप्त कराने की साजिश है।

कभी ऐसे भी कोई बढ़ा है, किसी का मुफ्त में न कल्याण हुआ

जब नहीं रहोगे, आशा का क्या अचार डालोगे, तमस समझाता॥

 

अरे भाई, मुझे भी सर्वहितार्थ कुछ निज शुभ-कर्त्तव्य निभाने दो

चलो आप न सही सुधरो भी, कुछ परिचितों के तो नाम बता दो।

संभव है वे तुम्हारे जैसे, नितांत अभागे-निराश व संकुचित न हों

और कुछ सुबुद्धि आ ही जाए, प्रकाश ने कहा कुछ अप्रसन्न हो॥

 

तुम इस प्रकाश की भोली-भाली बातों में, बिलकुल ही मत आना

वह तुम्हारा और तेरे उन सुहृदों का, पूर्णतः विनाश ही कर देगा।

फिर मैं तो कदाचित सदैव से, तेरा शुभ-चिंतक व हितैषी हूँ रहा

मुझे छोड़ोगे तो निश्चित ही पछताओगे, अंधेरे ने कुछ रोब मारा॥

 

अरे भाई समझो, इस निज लघु-अपेक्षा में नितांत ही हूँ अस्वार्थी

पहले मैं भी कभी तुम सा ही, एक भीत व सशंकित अभागा था

किंतु किसी सज्जन ने आ, मेरी भयावह- वक्र शक्ल दी दिखा।

प्रथम तो डर ही गया था, क्या विश्व में शक्य इतना उज्ज्वल भी

और मेरा भी भविष्य कुछ सुधर सकता, प्रकाश ने सफाई दी॥

 

यह प्रकाश तुम्हें कहीं का न रखेगा, देखा न क्या उसका हाल

दिन में बड़ी शेखी मारता, किंतु संध्या बाद तो मैं ही महानृप।

और क्या देता ही यह लोगों को, सिर्फ दिन-भर काम में खटना

मैं मीठी-नींद सुलाता, बहलाता, लौरी सुनाता, अँधेरा मोहरा डालता॥

 

अरे भोले भाई, जरा चेतो, दृष्टि डालो मेरी इस किरण-दीप्ति पर

इससे ही तो तुम अपना, देख सकोगे अत्यधिक वीभत्स स्वरूप।

कदापि न सोचो, यह तुम्हें साँस लेने का कोई अधिकार ही नहीं

सर्व ज्ञानेन्द्रि-आविष्कार प्रयोग हेतु ही है, प्रकाश को आशा हुई॥

 

अंधकार कोई दाँव खोना नहीं चाहता, परंतु हो जाता है निराश

कहीं इस सरल-बुद्धू को, मुझसे छीन ही न ले यह चतुर प्रकाश।

तब तो मैं साम्राज्य-विहीन हो जाऊँगा, मुझसे दूर हटेगी प्रजा भी

फिर कुछ बूढ़ा भी हूँ, शिकार ही दूर चले गए तो मेरा क्या होगा॥

 

इस दीर्घ द्वंद्व में कुछ चेतना मुझमें जागी, उसने कहा अरे मूर्ख !

मात्र वाद-प्रतिवाद ही सुनोगे, या निज बुद्धि करोगे प्रयोग कुछ?

स्वयं जाकर क्यों न देख लो, क्या एक निश्चित तुम हेतु लाभप्रद।

संभव है वह एक चरण, मेरी वास्तविक अधो-स्थिति ही दर्शा दे

और मात्र इन व्यर्थ तर्क-वितर्क, द्वंद्व-संवादों ही में न रहो फँसें॥

 

तो सोचा अब निश्चय कर, देख ही लूँ इस एक प्रकाश-किरण को

संभव है कि मेरा पुराना दोस्त, अंधकार कहीं नाराज़ न जाए हो।

पर हो सकता निज पास रखने में, उसका कुछ बड़ा हो स्वार्थ ही

अतः प्रकाश-सान्निध्य में जाना, चाहे अल्प क्यों न, बुराई न कोई॥

 

तब मैं उठा, और अपने कभी नहीं खुलने वाले खोल दिए नयन

प्रथम तो अति पीड़ा थी, नाहक इनको क्यों दिया है इतना कष्ट?

पर फिर सोचा, अब कदम बढ़ा ही लिए हैं तो क्यों हटना पीछे

फिर जो भी होगा देखा जाएगा' -एक गीत-पंक्ति याद आती है॥

 

अब मेरी आँखें खुलीं तो ज्ञात, अरे हूँ एक स्थिति में अति-जर्जर

बुरे-फटे कपड़े-चीथड़ों में ही पड़ा, व मौत सा है सन्नाटा सर्वत्र।

इतना गया-गुजरा, पश्चग हूँ, यह तो कभी आभास ही न हुआ था

इतनी एक भयावह स्थिति में जी रहा था, व मुझे पता ही न था॥

 

अब निज मोटी बुद्धि पर तरस आता, कि क्यों पहले ही न चेता

कमसकम तन-वस्त्र, खाने-पीने का, चाहिए था सुप्रबंध करना।

फिर ऐसे एक अंध-प्राण से क्या लाभ, जहाँ अस्तित्व ही अज्ञात

और मैं मूर्ख अज्ञात, कब से इस घुटन-स्थिति में लेता रहा साँस॥

 

अब स्वयं को इस खुले प्रकाशित विश्व में, विचारता ही हूँ एकरूप

सत्य में लगता निश्चित ही, जीवन-निर्वाह करना ही चाहिए उत्तम।

फिर निज भौतिक-आध्यात्मिक परिष्करण का, सबको अधिकार

पूर्व इस अंध में दीर्घ रहकर, मैंने आत्मा भी कर ली थी कलुषित॥

 

तब मैंने दृढ़ निश्चय किया यह निज स्थिति प्रतिक्षण ही सुधारूँगा

व्यर्थ किसी बहकावे में न आकर, निज यथार्थ स्थिति पहचानूँगा।

प्रकाश को अति-धन्यवाद, उसने मुझे नरक से निकाल ही दिया

और अब अनेक आत्मवत-जीवनों में, एक कांति-किरण बनूँगा॥

 

तब इस द्वन्द्व-अंत में, अंधकार अतिशय शरमा कर जाता भाग है

और फिर चला गया अपने किसी नए शिकार के ही अन्वेषण में।

किंतु ज्ञात कि एक प्रकाश-किरण, सर्व तमस को कर देगी बाहर

और फिर ये सरल विश्वजन, अंदर-बाहर महका सकेंगें सब कुछ॥ 



पवन कुमार,
20 अप्रैल, 2014 समय 01:10 म० रा० 
(मेरी शिलॉंग डायरी दि० 26.02.2000 समय 01:25 म० रा० से )  
   
  

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