मैं आतुर
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कहकहों के शहर से कहीं दूर बसेरा है मेरा
फिर भी दिन से मिलने को आतुर सवेरा मेरा।
मैं ज्यों यूहीं ही स्वयं पर झुँझला जाता हूँ
कभी दुनिया से कुछ अधिक आशा कर जाता हूँ।
नहीं समझा हूँ कि कुछ बुद्धिमता उत्पन्न करूँ
वर्ना तो चहुँ ओर फिर अँधेरा है मेरा।
चन्द लमहों का ही ये तो बस जीवन है
जी लेंगें इन्हें तो फिर जीवन है।
कैसे सीखूँ अदा मैं जीवन की
फिर जानूँ कि ये सब डेरा है मेरा।
मुस्कुराने की आदत तो आनी ही चाहिए
कहकहाने की बात भी सीखनी चाहिए।
कैसे मैं जाऊँ घायल हृदयों तक
इसी प्रश्न का उत्तर है गहियारा मेरा।
फिर यूँ ही कुछ क्षण गुनगुनाता तो लूँ
गलत ही सही दिल को कुछ सहला तो लूँ।
वरना लगेगा की कुछ जीवन ही नहीं
फिर क्या अच्छा या बुरा बतियाना मेरा।
दुनिया तो मेरी, मैं इसका बन न सका
अपनी ही धुन जीवन को कुछ समझ न सका।
अपने को भी तो बहुत संयमित कर न सका
फिर भी जीवन-उत्कृष्टता ही सपना है मेरा।
पवन कुमार,
23 अप्रैल, 2014 समय 23:29 म० रा०
(मेरी शिलॉंग डायरी दि० 22.04.2001से)
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