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Thursday 8 May 2014

मेरे मनमीत

मेरे मनमीत 
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ऐ मेरे मौजी मन, बन जा मन का मीत 
मन मेरा पुलकित हो जाए सुनकर तेरा मधुर संगीत। 

जब तेरी संगति में हूँ तो मुझे आनंद ही आनंद है 
मैं बन जाता हूँ कन्हैया और तू बाँसुरी की मधुर धुन। 
मन में मेरे हूँक उठेंगी, अपने मनमीत से मिलने की 
और मैं जाग उठूँगा, इच्छा से तुमको मिलने की। 

मेरे मन, क्यूँ अब तक दूरी का आभास है 
जब तू मेरा और मैं तेरा, फ़िर भी दिल क्यूँ उदास है। 
जब मैं निराश हूँ तो लगता कि सारा जहॉं निराश है 
साथ अगर तेरा मिल जाए तो हर क्षण उल्लास है। 

मन का तू प्रणेता मेरा, मीत भी तो फिर बनता जा 
भरकर ढ़ेर उमंगें मन में, हर्षित मुझको  करता जा। 
मैं बसता तुझमें और तू मुझमें, कहीं दूरी नज़र नहीं आती 
मधुर गीत तेरे गाने से, छवि तेरी चहुँ ओर दिखती।  

अहसान तेरा  होगा मुझ पर, अगर मुझसे मेरी पहचान करा जा   
कान  बहुत तरस गए हैं मेरे, धुन प्यार की एक सुना तो जा। 
इस दिल की तो यही है आशा, किस्सा मेरा सुनता जा 
और कुछ क्षण सुख के भी होवें, उनका दर्शन कराता जा। 

बिन तेरे कुछ नहीं हूँ मैं, तेरी तड़पन मुझको है 
फिर आस मिलन की मन में आई, ऎसी धड़कन मुझमे है। 
जग की क्या फ़िर बात करें, अपनी ख़त्म नहीं होती  
कैसे होगा गुजर हमारा, समय इसी में  बीते है। 

कालातीत हो जाए जीवन, स्पंदन इसका साथी हो 
धड़कनें बन जायेँ मीत फ़िर, हर क्षण प्रसन्नचित्त हो। 
कार्य होवें कुछ ऐसे, जिन पर गर्व अनुभूति हो 
फिर पट जाये सब दूरी, ऐसी एक दृष्टि हो। 

सुन्दरता को मन में देखूँ, आचरण में भी आ जाए 
ख़ुशी केवल अपनी ही नहीं,  ध्यान दूजों का भी हो जाए। 
दुनिया में तो नहीं होती, दोस्ती ऐसे ही किसी से भी 
अंतरंग जब उनको समझोंगे, अहसास उन्हें भी कुछ होगा। 

समपर्ण-भाव जब मन में आए, क्यों नाहक ईर्ष्या, द्वेष मेँ समय गवाएँ   
ऐसी अगर भावना लाए, हम सबका जीवन महकाऐं।  
फिर होगा 'आत्मवत् सर्व-भूतेषु ' का प्रयोग  
और होगी मन की प्रतिष्ठा शिखर पर, अपने गुणों के कारण ही। 

मैं उन जैसा वे मेरे जैसे,  फ़र्क बस विचारों का हैँ
कहीं पर वो जरा भारी तो कहीं हम, यह अन्तर भी क्या अन्तर है। 
फिर क्यों केवल शिकायतों का पुलिंदा बनें हम
और व्यर्थ दुखाऐं क्यों मन को हम ? 

जब अच्छे काम पड़े हैं इतने, शक्ति क्यों लगती अनुपयोगी पर 
अच्छी सौदेबाजी नहीं है यह और चीजोँ की पहचान नहीं है। 
प्राथमिकताएं अपनी पहचानना सीखों, फ़िर कुछ तो जान ही जाओगे 
स्वयं के परम-मित्र बनकर, बाह्यों से बहुत अधिक पाओगे। 

माँ सरस्वती की आराधना करो 
वही सहायक होगी मंजिल को पहचानने मेँ। 

पवन कुमार,
07 मई, 2014 समय 23:59 म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 20 फरवरी, 2001 समय 12 :52 म० रा० से )



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