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Sunday 11 May 2014

नींद का सफ़र

नींद का सफ़र 

आँखों में निद्रा पूरी तरह छाई है 
फिर भी इच्छा है कि कुछ लिख ही डालूँ। 

दरअसल मैं अभी बस प्रकाश बन्द करने ही वाला था 
कि अन्दर के अन्धकार ने अकस्मात् मुझको जगा दिया। 
जीवन कैसे बीत रहा है कुछ मालूम नहीं पड़ता 
सुबह-शाम के चक्कर में उम्र बीत रही है। 

कार्यालय से घर, घर से कार्यालय, जीवन का यही सफ़र नज़र आया 
फिर जीवन का अर्थ भी है कुछ, इसकी सुध नहीं है। 
या तो बस ऑफिस में कार्य करता हूँ या फ़िर कुछ पढता हूँ 
लेकिन बैठकर कुछ सोचकर लिखने का समय ही नहीं निकाल पाता।

फिर मैं क्या करूँ, किंकर्तव्य-विमूढ़ हूँ 
अपनी मंज़िल को पहचानने असमर्थ सा पाता हूँ। 
कभी-2 दूसरों द्वारा मुझे न समझने पर खीज़ सी होती है 
पर क्या मैन स्वयं खुद को कभी समझ पाया हूँ। 

क्यों छोटी सी बात पर मन दुःखी करते हो 
आशाऐं जो पूर्ण न हो, क्यों उनके लिए छटपटाते हो ? 
जीवन ऐसे तो नहीं है कि व्यर्थ शोक मेँ बिताया जाए 
कुछ क्षण निश्चय ही सुख के भी होने चाहिए। 

बुद्ध का सिद्धान्त है -इच्छा दुखों का कारण है 
अतः अपने पर नियंत्रण करो, व्यर्थ में जी न दुखाओ। 
सुखी होओगे तभी मन अन्दर से निर्मल होगा 
तब तुम खुद को समझोगे और दूसरोँ को सम्मान दोगे। 

उषा का विचार आता है मन क्षुब्ध हो जाता है 
कितनी घबराई सी लगती है वह फोन पर। 
जैसे तो अभी रो देगी और मैं बस समझाता हूँ  
कि ऐसा कभी होता है, ऐसा नहीं करना चाहिए
परिस्थितियाँ जैसी भी हो, मुकाबला करना चाहिए। 

फिर स्थान की दूरी भी तो कम नहीं है,
और हमारा परिवार ही कितना बड़ा है। 
मात्र दो प्राणी हैं मेरे सिवाय 
क्या उन्हें मेरी अनुपस्थिति अनुभव नहीं होगी। 

फिर रास्ता क्या है, समय तो बिताना ही पड़ेगा 
सिर पर जब पड़ी है तो बजाना ही पड़ेगा। 
किससे शिकायत करें जब मामला खुद का ही है 
जिम्मेवारियों का तकाज़ा सब कुछ करने पर मज़बूर कर देता है। 

कल फोन पर मेरी बिटिया सौम्या से बात हुई 
उस समय वह दूरदर्शन देख रही थी। 
आवाज़ सुनकर मानो स्वर्ग का सुख मिल गया 
फिर वह ही तो मेरी जिंदगी है। 

मैं क्या हूँ, मैं उनका और वे मेरे हिस्से हैँ 
वे मुझमें और मैं उनमें समाहित हूँ। 
कुछ भी तो अलग नहीं है 
बस दिल को समझाने का बहाना चाहिए। 

यह दौर भी रास्ते का पत्थर है, पार हो ही जाएगा 
फिर तुम उनके और वे तुम्हारे संग ही होंगें। 
फिर होंगी वह प्रेम-प्रणय की बातें 
और जीवन्त हो उठेंगें दिवस और रंगीनी रातें। 

मैं कोई वैसा तो नहीं हूँ जो अनुभव न कर सकूँ 
क्या  दर्द है उनका, इसको जान न सकूँ ? 
चोट तुम्हें लगती है तो दर्द इधर होता है जानम
फिर तुम कैसे कहती हो तुम्हें क़ोई परवाह नहीँ है। 

मैं पूरा का पूरा तुम्हारा हूँ, तुम विश्वास तो करो 
फिर मैं चिर तुम्हारी स्मृतियों में तो हूँ ही। 
फिर कैसे सोचती हो कि मैं दूर हूँ तुमसे 
यहाँ पर 'आँख से दूर, मन से दूर ' का सूत्र नहीं चलता। 

मैं नींद के प्रवाह में कोई बहुत चेतन नहीँ हूँ 
फिर भी यह कलम जैसे चाहती है, चलती जाती है। 
लेकिन ऐ कलम! यह शिकायत है मुझे तुमसे 
कि तुम मुझमें बहुत स्फूर्ति जगाती नहीं हो। 

फिर मैं हूँ ही क्या तुम्हारे बिना  
समय जब बीत जाएगा तो कुछ नहीं बचेगा मेरे पास, तुम्हारे सिवाय। 
जो स्मृति-पटल की बातें इस कागज-पटल पर विद्यमान होंगी 
वे ही तो मेरी विरासत बनी रह पाऐंगी। 

फिर जीवन में कब तुम्हें वह समय मिलेगा 
जब तुम कुछ महान कार्य करने लगोगे।

चेतो, चेतो मेरे भाई, यही समय है कुछ करने, कुछ पाने का 
अपने अन्दर की सरस्वती को जगाओ। 
अपने ज्ञान-रंध्र खोलो और तीसरा नेत्र खोलो 
तभी होगी तुम्हारी सफल आराधना।

आराधना क्या है इसका अर्थ तो समझ में नहीं आता। जीवन को सफल बनाने को और इसके परम-तत्व को समझने के लिए जो शक्ति, जो चिन्तन या जो समय लगता है, वह शायद आराधना है। जीवन में आगे बढ़ने का सबसे उत्तम उपाय हैं इस मन को ढृढ़ रखना, निर्मल रखना और अपने को पहचानना, फ़िर तुम्हारी सार्थकता तुम्हारे पास ही होगी।

कैसे भाई, मेरे आका ! अपने मन, प्राणों और कार्यो के स्वामी बनो
स्वयं पर विजय प्राप्त करो और मन में ढृढ़ता का अहसास करो। 
मैं यह नहीं कहता कि संज्ञा-शून्य, सवेंदनहीन हो जाओ 
बल्कि इसका अर्थ हैं कि विषयों को उचित परिप्रेक्षय में देखना शुरु करो। 

देखना सीख जाओगे तो बोलना भूल जाओगे 
और बोलना भूलने का अर्थ अपने अंतः की तरफ़ आकृष्ट होना। 
वह स्थिति है तप की, मौन की, व्रत की और जप की 
और फिर तुम स्वयं में ही मौनी हो जाओगे। 

परन्तु फिर मौन का अपना एक अनूठा ही सुख है 
इसमें तुम स्वयं के बहुत अच्छे मित्र बन जाते हो। 

विवाद जो अन्यथा दुखों का संचालक है, से बचोगे 
और फिर जितना आवश्यक, परमोचित, उतना ही बोलोगे। 
वह स्थिति होगी एक संतोष की स्थिति, 
जो कि शायद सही मंज़िल है। 

पवन कुमार ,
11 मई, 2014 समय 18:16 सायं
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 2 फरवरी, 2001 समय 12:05 म० रा० से ) 

        

    
     


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