मेरी दुंदुभी
इस कालखण्ड में आया हूँ लेकर अपनी दुंदुभी
इस कालखण्ड में आया हूँ लेकर अपनी दुंदुभी
कुछ गर्जन अपना करने को और कुछ उस शक्ति की बन्दगी।
कहाँ से आया हूँ, कोई और जहाँ तो नज़र नहीं आता
लगता है कि कहीं यहीं था किसी स्वरुप में, सुप्त अवस्था में।
परिवर्तित कर दिया मनुज देह में कुछ चेतना के संग
और छोड़ दिया इस जग में कि जा और बजा अपनी दुंदुभी।
वह देख रहा है सब मानवों के कार्यकलाप, कि कितनी शक्ति है उनमें
पर फिर उसे भी पता है कितने चूर्ण के साथ उनको बनाया गया है।
वह कदाचित निर्मित करता एक जैसे तत्वों से सबको
पर विभिन्न प्राणियों में गुण उनके अनुरूप डाले।
सब करते हैं व्यवहार अपने गुण, चेतन सामान से
और उसी में उनको कुछ करने का मिलता है अधिकार।
माना कि वृहद् रूप में सबके कर्म एक जैसे ही है
लेकिन सूक्ष्म दर्शन से विविधता और रोमांच भरे पड़े है प्राणियों में।
यहीं पर वो मदारी खेल देख करता है कि कैसे खेल करते मेरे चेलें
पर मैं कहूंगा कि कैसे उन्हें सिखाया गया है।
फिर भी तो वे एक-जैसे तो नहीं हो सकते
लेकिन उस विविधता में भी कुछ गुणवत्ता डाली जा सकती है।
पर खेल में तो है हम आओ कुछ उछलें, कुछ उल्लासें
तन-मन को रखें स्वस्थ यहाँ, इस जग की बगिया महका लें।
सीखें कुछ अच्छे दाँव -पेंच यहाँ किसी गुरु की निगरानी में
और जो भी कुछ समय मिला है, कम से कम अपने लिए सार्थक बना लें।
मैं आया था अभिमान में अपने कि मैं ही श्रेष्ठ धनुर्धर हूँ
पर देखा तो मुकाबला कठिन है इन महारथियों के समर में।
और कुछ ध्यान लगाया तो अपनी हेंकड़ी पर हॅंसी आई
इतना थोड़ा सामान और ऊपर से अभिमान, यह तो अतिश्योक्ति है भाई।
बहुत करते है अभ्यास यहाँ सदा, आपने को सबल, सफल बनने में
नहीं कभी संतुष्ट रहते स्वयं से क्यों कि अन्वेषण अभी जारी है।
अरे कैसे बैठना अलसाकर जब जीवन इतने अल्प मिला है
इसी को जितना जी लिया जाए, उतना ही कम है।
सोचा था मैं विजयी हूँगा यह तो है खेल बहुत आसान
पर जितना सीखूँ उतना जानूँ कि मैं कितना था निपट अज्ञान।
मैं हँसा मूढ़ता पर अपनी कि क्यों है यह व्यर्थ अभिमान
अरे उठो भाई, कुछ सीखो बेहतर और दशा बनाओ सक्षमतर।
यहीं से उठा, यहीं पर रहा और यहीं मुझे मिल जाना है
सब कुछ है अपना यहाँ और न कोई बेगाना है।
में तुझमें और तू मुझमें, सब कुछ एकरूपता है
पर शायद व्यवहार करने में निश्चय ही कुछ श्रेष्ठ हैँ।
फिर मैं क्या करूँ स्वयं का जब इतने निम्न धरातल पर पाता
कुछ सीखने के यन्त्र मिलें यहॉँ पर, कोई गुरु नज़र नहीँ आता।
हैं तो बहुत आँखों पर परदा, पहचान करना फ़िर मुश्किल है
और शायद मेरा अहंकार कि सब एक जैसे हैं या औरोँ पर अविश्वास।
पर बुद्ध पर भी विश्वास किया कुछों ने, और जीवन सफल बना ही लिया
आनंद, उलूपी, तपस्सु, भुल्लिक आदि कितनों ने परिवर्तित किया।
वे चलें उस विश्वास के साथ कि कोई सहारे वाला है
फिर बिन छोड़े कुछ मिलता नहीं, यह लेन-देन का रिश्ता है।
कुछ विलम्ब से सही आओ कुछ अच्छा कर लें
छोड़कर अपनी प्रगल्भ प्रवचना, समय की कुछ इज्जत कर लें।
मिला है यह अभी, आगे का कुछ पता नहीं है
सीखों कुछ, बनो कुछ और सार्थकता का साथ हम ले लेँ।
अपना मरना ही जग -प्रलय अतः एक-एक क्षण को सफल बना लें
दूसरों में अपना स्वरुप देखने लगे तो शायद सदैव को साथी बना लें।
फिर जीवन की कला सीख और कुछ अच्छी सी धुन तो निकाल
वरना तो लगेगा व्यर्थ ढोया भार और खाली रही दुदुंभी।
धन्यवाद।
पवन कुमार ,
13 मई, 2014 समय 23:25 बजे म० रा०
(मेरी डायरी दि० 9 मई, 2014 समय 8:40 प्रातः से)
बात तो सही है आपकी , विशाल विश्व में हमारा अस्तित्व ही क्या है और फिर सीखना तो सतत प्रक्रिया है जिसका कोई अंत नहीं !
ReplyDeleteशिक्षाप्रद पोस्ट , आभार आपका !