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Wednesday, 24 September 2025

मनुवा पथिक

मनुवा पथिक


यह कविता बाहरी दुनिया की भाग-दौड़ में उलझे मन और आत्मा से एक गहरा संवाद है। इसमें पथिक के रूप में जीवन की जटिल भूल-भुलैया में भटके हुए हर उस व्यक्ति को संबोधित किया गया है, जो अपने भीतर के प्रकाश की तलाश में है। यह रचना हमें याद दिलाती है कि जीवन एक बेशकीमती हीरा है, जिसे व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए, बल्कि आत्म-विकास और कृतज्ञता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह हमें स्वयं को सुघड़ने और ज्ञान का वाहक बनने की प्रेरणा देती है ताकि हम न सिर्फ अपनी बल्कि दूसरों की दुनिया भी बेहतर बना सकें।


ओ पथिक, देख इन जग की भूल-भुलैया में ही न बस उलझे रहना, 

यहाँ बहुत से बेहतर गुणी आयाम हैं, उनसे भी परिचित होते रहना।


देखो ये जीवन-समस्याएँ तो हमारे रोज का अंग हैं, वे आती ही रहेंगी, 

तू अपना भी कुछ मूल्य बचा कर रखना, इन्हीं में सकल न गँवा देना। 

मन को तू उच्चतम अध्ययन में लगाना, कुछ आत्म-विकास हो सके, 

किंचित निकट प्रकाश हो जाए, अतः तू अपना बल्ब रखना जला के।


ओ पथिक, बावरा क्यों है, दिन-रात संवादों में उलझा रहता बस एक से? 

बाहर तो आओ, सूर्य का उजाला मिलेगा, उपवन-कुसुम मुस्काते मिलेंगे। 

नभ में खग-वृंद उन्मुक्त विचरते हैं, तरु-डालों पर चिरैया गाती मिलेंगी, 

जल में मीन साम्राज्य बनाए तैरती, वन्य-जीव स्वच्छंदता से रहते मिलेंगे।


ओ राही, गगन में मेघ-समूहों का सौंदर्य देख, विभिन्न वर्णों में वलय बनाए, 

कार्य पृथ्वी को सिंचित करने का मिला, अतः सबकी आकर प्यास बुझाए। 

निराश न हो बस चलते रहते, मुस्काते-इठलाते, हल्का या भारी भार उठाए, 

जैसी स्थिति बरत ली, गाते-गरजते, तड़ित चमकाते, शाश्वतता संजोए सी है।


ओ मनुवा, दुनिया इतनी निराश न, सब थपेड़े खाकर भी चलती ही रहती, 

एक हानि को भूल सहज हो जाती है, जानती कि सब कुछ निज हाथ नहीं। 

फिर अनेकों तो परवाह भी नहीं करते हैं, चाहे सारी दुनिया ही हिल जाए, 

बस उनकी अपनी त्वचा बचनी चाहिए, फिर चाहे जगत भाड़े में ही जाए।


पर तू इतना कठोर भी न बनना, जग को सुघड़ चलाने में सहायक बनना, 

कुछ वजन तो तूने भी सहन करना, आखिर यहीं का तो सब कुछ है खाता। 

कुछ कृतज्ञता तो एक सज्जन में होनी चाहिए, चाहे हो तनिक तकलीफ भी, 

देखो कष्टों से ही तो शक्ति आती है, कब तक झूलोगे माँ के पालने में ही।


ओ पथिक, कुछ तो मुस्कुरा तू, उत्तम छवि बना, पर-निंदा करनी छोड़ दे, 

देखो, हम सभी कहीं न कहीं दोषी हैं, कोई भी तो यहाँ दूध से धुला न है। 

मैं कोई आत्महंता ग्लानि न चाहता तुमसे, अपने को सामान्य मान ही लो, 

सब झंझटों से गुजरते, गिरते-पड़ते, ठोकर खाते, सीखते ही काम के बनो।


ओ पथिक, जीवन बेशकीमती हीरा है, कौड़ियों के मोल न इसे बिकने देना, 

कबीर-एपिक्टेटस, रैदास-नानक, बुल्लेशाह, शाहबाद कलंदर सा निखारना। 

व्यर्थ गर्व व ढकोसलों में कुछ नहीं रखा है, कुछ तो सत्यता खोजो जीवन की, 

कोई न जाने कहाँ कब मिलेगी, किंतु प्रयास करोगे तो शायद मिल सकती।


यह एक कस्तूरी मृग सी हालत है, कि बच्चा बगल में और ढिंढोरा शहर में, 

मृग-तृष्णा में जीव मारा-मारा भटकता, पर पानी तो कहीं मिलता ही नहीं। 

यहाँ फिर किससे जीतना, सब तो पूर्ववत ही हारे, परेशान अपने दुख में ही, 

वे विरले ही मिलेंगे जो गुरु बन सकते, जिन्होंने स्वयं पर कुछ विजय पा ली।


ओ, कभी सहज होकर विचारा करो, संजीदा होने से भी लाभ न कुछ बड़ा, 

माना शुरू में कुछ अधिक चेष्टा लगती, फिर धीरे-२ एक ढर्रा सा बन जाता। 

पर समझ तू बस वहीं ठहर मत जाना, तेरी चेष्टा ही अति सहज रूप में रहे, 

लेकिन वह भी सहायक हो सकती, ध्यान रहे जब तक प्राण तभी तक ज्ञान।


देह-स्वास्थ्य एक अत्यावश्यक नियम है, इसके चलते ही पहुँचोगे मूल तक, 

जितने अधिक अध्ययन-घंटे संग ही बिताओगे, उतनी ही तो आएगी समझ। 

सिख कहते हैं, जो खा लिया वही अपना, जो छूट गया पता न खाएगा कौन, 

अतः तेरा रब तूने ही खोजना है, तुम कहीं भी पड़े रहो, मतलब किसी को न।


ओ पथिक, ज्ञान-वाहक बनकर देख, तेरे सुधरने से ही यह जग भी सुधरेगा, 

कम से कम स्वयं तो लाभान्वित होवोगे ही, प्रयास बस आगे तक ले जाएगा।


पवन कुमार ,

२४ सितंबर, २०२५, मंगलवार, समय १२.४० बजे मध्य रात्रि 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १७ जुलाई, २०१५, शुक्रवार, ९:०४ प्रातः से )  


Sunday, 10 August 2025

जीवन-यात्रा: एक मधुर प्रवाह

                                                      जीवन-यात्रा: एक मधुर प्रवाह


 

जीवन में नर को अनेकों ज़रूरतों से गुज़रना पड़ता, निज कर्म तो अंततः पूरे करने ही होते 

यह संसार मात्र कल्पना नहीं, इसे सत्य धरातल पर बहु आवश्यकताओं के संग जीना होता।

 

हर किसी को हर्ष-शोक, जन्म-मरण, मिलन-विदा, उन्नति-अवनति, जय-पराजय से गुज़रना पड़ता।

जीवन है एक मिश्रित सा खेल ही, पग-2 पर पराजय, हाँ, बीच में कुछ सफलता-किरणें भी दिखतीं।

अनेक समझौते नित करने पड़ते, बीते पर कोई दबाव , ज़रूरी नहीं हर निर्णय अपने हाथ में हो।

बस हमें अपनी कुछ ज़रूरत रुचि अनुसार चुनना पड़ता है, और ज़िंदगी हौले-हौले चलती रहती।

 

अब आदमी को बहु अनुभवों से गुज़रना ही पड़ता, चाहकर भी सब कारक निज अनुरूप कर पाता।

जैसी भी लाभ-हानि की समझ से जीवन निबाहना पड़ता, हाँ, प्रयत्नों से कुछ कारक ठीक भी संवर जाते।

फिर भी कोई अंतिम विधि-न्याय से बच पाता, और कुदरत धीरे-2 बहुत चीज़ें समतल करती रहती।

क्षुद्र चालाकियाँ खेल में बचकानी ही, वह चंचल बालक सा समझ डाँट देती या खिलौना दे बहला देती।

 

हमारा सारा प्रयत्न कोई भी अनहोनी रोकना है, प्राण-स्वास्थ्य सँवारना, आत्म को लाभ में रखना।

कभी समय मिले तो बाह्य वृहद विश्व की भी सोच लेते, लेकिन मुख्य कार्यक्षेत्र अपना अंतःस्थल ही।

निकट विषयों में ही अधिक व्यस्त रहते, चाहे जटिल, उबाऊ, ऊर्जा-नाशक,  धैर्य की परीक्षा लेते हों।

शिकायत भी कर सकते, सकारात्मक हो आशा संजोते, मुस्कुराते से जीवन जी लेते, जो उत्तम ही है।

 

एक क्रीड़ा-स्थल सा यह जीवन प्रकृति-नियमों से चलता, खेल के कुछ पेंच हैं, कभी दाँव ठीक लग जाते।

ये संयोग का ही नहीं मनन-प्रसंग भी, एक को ख़ूब मेहनती, कुशल, खेल-नियम का ज्ञाता होना पड़ता है।

ये सत्य कि कोई व्यक्ति सब आयामों में सदा सफल  होता, उम्र के साथ लचीलापन अल्प पड़ने लगता।

माना अनुभवानुरूप बुद्धि भी बढ़ती, तथापि दैहिक बल कम, अंत में तो तन-मन दोनों क्षीण पड़ने लगते।

 

तथापि अन्यों की चालाकी-युक्ति समझनी पड़ती, कदाचित दूजा हितैषी भी हो, आप जिसे अन्यथा ले रहे थे।

धैर्य नित्य काम आता, निर्णायक काल में तो और भी प्रासंगिक, ज़रा सी सावधानी भी सफलता दिला देती।

कभी लगे कि हमारे साथ कुछ अवांछित ज़बरन हो रहा, किंतु वहाँ आपके स्वागतार्थ बड़े द्वार खुल रहे हैं।

माना एक सीट के कई ग्राहक, पर ज़िंदगी में सबको देर-सवेर कुछ अच्छा प्राप्त, मुस्कान-कारण बनता।

 

चलो सकारात्मकता की कोशिश करो, बीता तो वापस होगा, किंतु जो हस्त-प्राप्य का पूर्ण उपयोग करो।

भविष्य हेतु उत्तम सोचो-करो, हर भाँति के परिणाम, ऊँच-नीच हेतु तैयार रहो, जीवन यात्रा शुभ पूरी होगी।

उपलब्ध का शुक्रिया करो, वो असीम प्रभु-कृपा या प्रकृति माता के विपुल-स्नेह के कारण ही हमें उपलब्ध है।

और समय निज हिसाब से हमें समझाता, आगे बढ़ाता, मानकर चलो अतिशीघ्र नया मुकाम हासिल करोगे।


पवन कुमार,

10 अगस्त, 2025, रविवार, समय 9:50 बजे प्रातः, ब्रह्मपुर, ओडिशा   

(मेरी डायरी 4 मई, 2023, गुरुवार, 8:21 प्रातः, नई दिल्ली से)


 

Sunday, 30 March 2025

गतिशीलता-संग्राम


गतिशीलता-संग्राम


चलना तो फिर भी होगा, चाहे प्रयोजन का एकदम ज्ञान न हो भले ही 

शिथिलता से तो मात्र हानि ही है, गतिशीलता तन-मन स्वस्थ रखती। 

 

कलम-नोक भी शुरू में लड़खड़ाती, डगमगाते से पग नवजात हिरण के

मन बाह्य कपाट बंद कर लेता, जैसे कछुआ स्व को सिमेटता है खोल में। 

बाहरी कारक माना अनुपस्थित हैं, तो भी साजो-सामान सहेजना ही होता

लघु आयाम भी समय-ऊर्जा माँगते, ऐसा न कि सोचा व महाकाव्य फूटा।

 

ओ राही मनुवा, यह दिशा-भ्रांति नहीं, अपितु गतिमानता की एक प्रेरणा

मन में एक चेतन संघर्ष चलना ही तो, फिर प्रतीक हैं बड़ी जीवंतता का।

इस व्यतीत होने में ही तत्व खोजना, असल में लक्ष्य-सार है ग्रहण करना 

प्रारम्भ तो सदा किञ्चित थुलथुल ही होता, ऊर्जा मिली तो बढ़ निकलेगा।

 

प्रात: काल तो सब आवरणों से मुक्त सा, जैसा भी सत्य है वही चित्रित होता

न कोई अतिश्योक्ति या अल्पता ही, मात्र एक वृहद-मिलन का भाव होता।

यह नहीं कोई परमानुभूति, बस विषम युक्ति या मित्रता-शत्रुता से विषय होते

निज को टटोलता कि क्या कुछ असल जमा-पूँजी, या यूँ ही शोर हो फैलाए। 

 

जब समय तो उपलब्ध है किन्तु साधन नदारद, क्या बनाऐं और गठन करें 

जब बुद्धि शिथिल है, न कोई प्रयोजन, अब्दुल्ला दीवाना बेगानी शादी में। 

जब पूर्वानुभव भी साथ नहीं देता, दशा ऐसी आज खोजा व आज ही खाए 

मूर्तरूप आत्म दर्शन भी नहीं होता, विडंबना जीवन को कैसे श्रेष्ठ बनाऐं।

 

एक अहं-भाव भी मन में न किञ्चित, कि दंभ करूँ निज उपलब्धियों का

आयु-वृद्धि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, आऐ हो तो कुछ किया भी होगा।

जगत तो अपनी गति से चल रहा है, कुछ काल हेतु एक पात्र हो तुम भी

निर्देशक द्वारा दत्त अभिनय को करो, साधुवाद है भला किया हो यदि।

 

किन्तु आ तो गए हैं इस जीवन में, पर कोई सुघड़ता-युक्ति न सीखी 

बस यूँ ही कुछ सामान छितरित, योजना भी नहीं बनाई व्यवस्था की।

हाँ, कुछ बुद्धि-उपकरण मिला है, देख-समझकर प्रयोग सीखो करना

पर विश्व बड़ा, हम अत्यल्प, कैसा नखरा ही, नव-सर्जन तो न किया ?

 

क्या यह चिंतन या चित्त-भ्रान्ति, कौन अति-सूक्षम अंतर ही समझाए

दूरी स्वयं की अपने ही मन से, फिर कौन माँझी आकर पार लगाए ?

चक्षु माना खुले भी हों, अति निकट-सहज का ही कुछ होता प्रकटन 

तथापि आत्म-जिजीवाषा टिकने न देती, झझकोरे कि निकलो बाहर।

 

क्या दर्शन है मनुष्य-मन का ही, कैसे फिर महानुभव प्रकट हैं हो जाते

कैसे बड़ी अवधारणाऐं निर्मित, कौन बुद्धि कोष्टक संपर्क-पथ दिखाते।

कैसे सब ज्ञानेंद्रियाँ संग काम हैं करती, अपना सम्पूर्ण निचौड़ डालती

सहजता हेतु संघर्ष, और ऐश्वर्य- विश्राम, विजय-शांति मुफ्त न मिलती।

 

दर्शन-शास्त्र में महद कार्य हुआ, हर विषय के अनेक अध्याय-विचारक

आम नर घर-खेत, धंधों में ही व्यस्त, मन को खपाता है उठाए कुछ ध्वज।

कवि भी अपनी पुस्तिका-कलम लेकर, जो मन में आया लिखता ही जाऐ

चाहे स्वयं समझ न आए, पर महत्तम उत्तम सिद्धता में ही ऊर्जा लगाऐ।

 

जो कुछ कर व कह दिया उचित ही, भाव कहाँ से आता कौन ही प्रेरणा 

क्यों निज को बहुत धीमान मानने लगते, ज्ञात है बहुत लघु ही तव सीमा। 

कौन सब तो विद्या-स्वामी बन सकते, किसका दृष्टिकोण अति-विशाल है

और बस शुभ निर्णय ले सकता, एक निष्पक्ष-समेकित, समन्वित भाव से। 

 

महद समुद्र-मंथन अतीव दुष्कर, कितनी ऊर्जा चाहिए और साथी हो कौन

यह विचार ही भयावह व साहस अत्यल्प, न एकता ही कोई करने को यत्न।

प्रबली प्रकृति को निज ढंग से सहेजना, कितने मस्तिष्क समन्वित माँगता 

फिर विचार-मंथन भी कुछ ऐसा, व साहस-एकांत ही कुछ सांत्वना देता।

 

लोग जाते हैं कथा-गोष्ठियों में, दर्शक देखकर वक्ता-मन चहक है उठता

कुछ श्रोताओं का मन भी सहज गतिशील, चाहे क्षणिक ही उद्विग्न होता।

समुचित प्रेरणा जीवन को कुंदन बनाने की, कौन गुरू सक्षम देने में ज्ञान 

किंतु कोई आत्म-भ्रांति या व्यर्थ-दंभ से भला न कर सकता, तुम लो मान। 

 

होने दो कुछ बुद्ध सम चिंतन, जो प्रकाश स्वयं से निकलना ही समझाए  

पिघलने दो लोहा धधकती भट्टी में, जो लाल होकर स्वयं को है चमकाए।

अग्नि में तपकर कुंदन बनोगे, प्रगति मात्र सकल वर्तमान भ्रम-स्थिति से  

तुम चलते रहो जैसे भी बन सकता, जो निरंतर रहें वे ही तो पार उतरेंगे। 

 

 पवन कुमार,

30 मार्च 2025, रविवार, समय 12:36 अपराह्न    

मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी, दि० 11 जून 2015, वीरवार, समय 7:58 प्रातः से