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Saturday, 26 August 2023

नित्य-समस्याऐं


नित्य-समस्याऐं

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समस्याऐं हमारी नित्य जिंदगी-प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग 

हम चाहे माने या माने, वे हैं हमारी हितैषी-शिक्षक-प्रेरक। 

 

अवश्यमेव बुरा प्रतीत, पीड़ा तन-मन अवयवों से टकराती जब 

प्रत्येक गर्व को भग्न करती, बताती कितने कमजोर हो तुम। 

समस्त प्रकृति के इस चलन में, एक क्षुद्र पुर्जा ही है मानव-मन 

उससे अपेक्षित तो बहुत कुछ है, लेकिन सीमाऐं बस निज तक। 

 

नित्य अनेक कारक जाने-अनजाने, चाहे-अचाहे हैं स्व कार्यरत 

बेशक हम पूर्ण तैयार ही हों, आकर प्रहार तो देते ही हैं कर 

हमें ललकारते हैं, कि यदि हिम्मत हो तो मैदान में आओ समक्ष 

और हम निज अल्प-शक्ति के अनुसार ही, किया करते हैं कर्म। 

 

अनेक जन मानव-कृत बहु प्रकृति नियमानुरूप, कह देते पक्ष 

हम आत्म-मुग्ध से यूँ कुछ सोचते रहते, हम्हीं हैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर।  

क्या यह है स्व का अधिक-आँकन ही, जबकि मालूम तो सत्य 

क्यों ईमानदार-मूल्यांकन आत्म का, प्रवाह हेतु छोड़ते पथ। 

 

विरोधाभास तो आत्म-सँवारण की अपेक्षा, औरों को उलाहना ही 

'नाच जाने आँगन टेढ़ा', मूर्ख तो कुछ कहने हेतु चंचल-भ्रमित। 

माना अन्य  गलत हैं, हो सकते, निज-क्षेत्र भी तो देखना होगा पर

बस औरों से ही सदाशयता-आशा, पहचानने होंगे स्व-कर्त्तव्य।  

 

मैं मुदित कुछ अल्प-उपलब्धियों से ही जानता पूर्ण जगत-चक्र 

हर जगह की स्व विसंगतियाँ, और उन हेतु वाँछित प्रयोग हैं भिन्न। 

माना तुम सौभाग्यशाली हो, विभिन्न प्रकार के संपर्क पाते हो कर 

मन को ललकारता, विश्रांत मन-कोष्ठकों को करती चलायमान। 

 

अंततः प्राण-संपूर्णता भी तो हर अंग-प्रत्यंग से पूर्णादय कराना ही 

तुम जब आए हो तो, क्यों छोड़ना चाहते हो स्व को अधखिला ही ?

पूर्ण प्रयोगित हों तन-मन दत्त साधन, अंततः खाक में ही मिलना 

घिसकर अंत तो सदाशुभ, बजाय सड़कर मरना दुर्गंध फैलाना। 

 

अपने को सुवासित करो , कुछ उत्तम गुलदावरी-कमल खिलाओ 

क्यों स्व और अन्यों को, अपने वाक-कंटकों के नश्तर चुभोते हो ?  

अनावश्यक लड़ना परस्पर ही, प्रकृति से सामंजस्य सुस्थापित करो 

जब कुछ कर्म सुधरेंगे, तभी तो औरों से कुछ आशा कर सकते हो। 

 

अनेक ही विडंबनाऐं इस मन में स्व-चलित हैं, नर को उद्वेलित करती 

उसे नित झझकोरती हैं, व्यर्थ अभिमानों को चुनौती दे चूर- करती। 

माना वे स्वयं को वीर कहते हैं, पर अनेक जगह खुद को निर्बल पाते 

एक लघु कैंसर-कोशिका से तो मुक्त हो सकते, यथार्थ समझते। 

 

पर हमारा क्या दृष्टिकोण समस्याओं प्रति, कितनी तैयारी निबटने की 

सुव्यवस्थित-अनुशासित हर व्यूह-प्रशिक्षित सेना रण-उपयुक्त ही। 

प्रतिद्वंद्वी को क्षीण  समझो, यावत पूरा तंत्र-प्रबंधन जान लो उसका 

अन्योपरि प्राकृतिक नियमों से खिलवाड़ करो, जो तुम्हें सकते बचा। 

 

जब कार्य हो रहा हो तो संपूर्ण ही झोंक दो, त्रुटि-रहित रचनार्थ समुचित 

सकल सामग्री-प्रक्रिया उत्तम-ढंग की हों, पश्चात् में समस्याऐं होंगी न्यून। 

माना बाद में भी कुछ उलझनें हो सकती हैं, निजात पाया जा सकता पर 

किन्तु निज शुभ्रता गुणवत्ता हेतु निष्ठा हीआहूति है विराट यज्ञ में इस। 

 

सकारात्मक प्रयोग हो इस जीवन का, कुछ योग्य कर्मी बनाओ सहचर 

झझकोरो निज सकल विचारों को तो, अनेक उनमें सुधार माँगते नित। 

तुम गुजारो समय यूँ बस गाली खाने में, स्व हेतु कुछ जुटाओ आदर 

किंतु संभव वह श्रम-शुचिता से, बजाय औरों के निज-चेष्टा करो प्रखर। 

 

धन्यवाद ! जुटो और ठीक करके दिखाओ कुछ! तुमसे बहु आशा है। 

 


     पवन कुमार, 

२६ अगस्त, २०२३, शनिवार, समय ५:०१ बजे अपराह्न 

( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २५ नवंबर, २०१४ मंगलवार, समय :५० बजे प्रातः)

Sunday, 20 August 2023

स्वच्छ भारत

                                                                   स्वच्छ भारत

                                                                                   


ऐ बंदे, जग में आ ही गया है, तो जीना सीख ले कुछ 

बहुत उम्र बिता दी है तूने, कब तक यूँ रहेगा अबूझ।

 

सर्वव्यापी का कुछ चिंतन, तुम्हें अग्र बड़ी राह दिखाऐ 

कैसे संभव अनुपम यहाँ, सबकी फिर युक्ति लगाए।   

कुछ महाजनों ने आचरण में, चिंतन संग कर्म है जोड़ा 

व समस्त विकास प्रसारण, उसी कर्म में स्पंदित हुआ। 


कैसा चाहते स्वरूप जग का, बहुत कुछ हम पर निर्भर 

माना एकाकी कुछ दुर्बल, एकता में अति बल निहित। 

यहाँ एक साँझी सोच का महत्त्व, पर प्रेरक सन्मति देते 

और चमत्कार होते जाते, जहाँ मनुज बड़ा है ठान लेते।


बहु तंद्रा छुपी, व यदा-कदा तो हिलाने पर भी न डुलते 

पर निज बदहाली ज्ञात, निदान है प्रमाद-अंत करने में। 

वपु-मन रखो जीवित दशा में, और सदा ध्येय का ध्यान 

पर सब प्रमाद-उपालंभ, टालना आदत हैं प्रगति-बाधक। 


देखिए, जो सदा चलते रहते, उन्हें मिल ही जाती है मंजिल

वरन एक अनुपम अनुभव लब्ध, जो स्वयं में है महत्त्वपूर्ण। 

चाहे कुछ देख-भोग ले, सर्वांगीणता से तो रूबरू होवें पर 

आओ निज दशा बदलें, बहुत बदहाली व कंगाली ली सह। 


उन्होंने बनाया एक परिवेश मनोरम, जहाँ सबके मन रमते 

स्वच्छ भारत की कल्पना, महात्मा गांधी राष्ट्र हेतु हैं करते। 

आज उन्हीं स्वप्नों में योग हेतु, शासन ने सब कार्यालय खोलें 

सब बनें भागी इस अभ्युदय-उन्नयन में, सर्वत्र खुशहाली है। 


आओ जुटें सर्वदा, विराट स्वच्छता-यज्ञ में इस, लगाऐं वृक्ष 

औरों महत्तमों को संग में लें, ताकि मन-तन हों पुलकित।  



पवन कुमार,

(२० अगस्त, २०२३, रविवार, ६:३७ बजे सायं)  

(महेंद्रगढ़, २ अक्टूबर, २०१४ वीरवार, समय ८:५५ बजे प्रातः)


Monday, 3 July 2023

लिपिकर - कर्म

लिपिकर - कर्म 

हाथ में लेकर इस नई डायरी की लेखन-यात्रा शुरू, अज्ञात भावी कालखंड की होगी साक्षी 

मनुज-चिंतन उसका ही रूप, वर्णन-अभिव्यक्ति बन एक अमित-मानवतार्थ समर्पित होती 


ये लिखित डायरियाँ भी एक- करके मेरा संपूर्ण व्यक्त करा रही, माना कुछ छुपा भी लेता 

तथापि कमसकम एक सोच तो प्रस्तुत करती, विश्व प्रति एक दृष्टिकोण मुखरित हो जाता। 

यहाँ-कहीं भी एकाकी अपने से जूझता सा, इस तूलिका माध्यम द्वारा कुछ बाहर देता कर 

माना चिंतन भी अपनी भाँति इस विश्व को प्रभावित कर रहा,  स्वयं अन्यों द्वारा प्रभावित। 


चलिए यह डायरी नई है, प्रथम लेखन कार्य जो हो रहा इसमें, अतः होना चाहिए स्वागत ही  

यह सौभाग्यशाली है कि कुछ मनन-प्रयास किया जाएगा, किञ्चित कालजयी भी सकती। 

लेखन भी सकल विश्व-निरूपण का लघु अंश ही हैअन्य बात कैसे अग्रवर्धन किया जाएगा 

यह भी मनसा वचसा की एक प्रस्तुति है, कर्म द्वारा ही होगी इसकी समुचित उपयोगिता 


वस्तुतः लेखन तो एक विचार-प्रवाह जो सब मानवों में है, माना प्रस्तुति कुछ ही पाते कर 

सच में सभी निज भाव नित्य प्रकट करते, यदि कलमबद्ध हो जाए तो किंचित बने लेखन 

पर कलम ही  बस प्रस्तुतिनी, अन्य कलाओं चित्रकारी-शिल्प सी द्वारा नर व्यक्त करता 

हरेक विपुल जग स्वयं में समाए, यदि कुछ अंश भी समुचित व्यक्त कर पाए तो सुभीता। 


एक प्रश्न है विचारक कैसा हो, क्या निकट-आवश्यकताऐं छोड़ विचारे मात्र परम को ही 

जब अपनी माता मरणासन्न और तुम देवी-दर्शन हेतु देशाटन करोनहीं अत्युत्तम कोई 

यह सर्वोचित कि नर का एक महद साध्य हो, और उस हेतु अपनी ऊर्जा बचानी चाहिए 

कई बार समस्या-समाधानार्थ पृथक भाँति विचार चाहिए, एवं युक्तियाँ अपनानी पड़ती। 


वस्तुतः लेखन का श्रेष्ठ लक्ष्य मात्र विचार मात्र रहकर, व्यवहार रूप में एक प्रयोग होना 

माना अन्यों संग देखा-परखा जाएगा, यदि विश्व को जँच गया तो शायद जाए भी अपनाया 

किसी लिपिकर का अपने विचारों को ही श्रेष्ठ मानना उचित , हाँ आप कर सकते प्रस्तुत 

हाट में सब तरह के सामान, सभी मेहनत-लग्न से हैं, किंतु सबकी गुणवत्ता तो एक सी  


यहाँ चाहे निज प्रतिभा भी हो, लेखन-लक्ष्य तो निज को सर्वश्रेष्ठ चिंतक स्थापन कदापि  

इच्छा बस माखनलाल चतुर्वेदी भाँति 'पुष्प की अभिलाषा' सी, नरता हेतु कर्म-वस्तु बनूँ। 

मेरे देश-समाज में विकास की अनेक आवश्यकताऐं हैं, उनमें तुम्हारा चाहिए सहयोग 

मात्र बुद्धिरस में नहीं रह प्रयोग-कड़ी बन, नर विकास करते मुख्यधारा में हों सम्मिलित 


विश्व में 'संतुलित दृष्टिकोण' एक समुचित शब्द, सब छोटे-बड़े-मध्यम आयाम समा सकते 

अर्थात एक वेशभूषा या भंगिमा-रूप में नहीं है, उठकर सब प्रकार के काम करने पड़ते।  

माना सबकी प्राथमिकताऐं चाहे निज दलों तक बहु सीमित हैं, पर सब साधने पड़ते संपर्क 

विशेष बीमारियों हेतु वैद्य तथैव विद्या पारंगत-समर्पित चाहिए, तभी हो सकता उत्तम पथ्य 


काँटा चुभा तो तुरंत निकाल फेंको, ताकि अग्रिम काल कष्टमय रहे मन वहीं अटके 

मनुष्य को निकट परिवेश शुभ्र बनाना चाहिए, ताकि दुर्गंध फैले सब सुख से रह सके। 

यदि परिवेश दुर्बल तो उसे समुचित सबल-शिक्षित-विकसित बनाना भी नर का ही कर्त्तव्य 

माना अकेले से ही  सर्वसंभव, पर कई आऐंगे सहायतार्थ, कर्मठ की प्रतीक्षा रहती नित्य 


कुछ पूर्व अंबेडकर-कथन पढ़ा, संघर्ष करते समय यदि मृत्यु भी हो तो भी वह है श्रेयषकर 

भावी पीढ़ियाँ उससे कुछ अर्थ अवश्य निकाल लेगी, संघर्ष अग्र बढ़ाते हुए पा लेंगी मंजिल 

किंतु तुम यदि दब्बू-दमित रहना ही पसंद करते हो, तो मुक्ति की कभी नहीं पाओगे चिंतन 

अकर्मण्यता माने निज भावी हेतु विधर्म, आज अटपटा लग सकता पर दीर्घकालिक शुभ्र 


एकदा मित्र शैलेंद्र ने कहा बड़े मस्तिष्कों का मनन, भावी पीढ़ियों के भविष्य हेतु दीर्घकालिक 

दर्शन-विचार पर काम करते चाहे तुरंत सफलता भी दर्शित, तथापि शनै मंजिल ओर वर्धन। 

अतः एक प्रज्ञ नर का मनन-दर्शन श्रेष्ठ दूरगामी बनना चाहिए, प्राप्ति हेतु योजनाऐं निर्मित भी 

डरकर कोटर में दुबके रहना नहीं जीवन, पुरुषार्थ से ही जग में सौभाग्य-लकीरें खिंचा करती। 


असल वस्तु अपना दर्शन कार्यान्वयन में लाना, तुम स्वयं में ही इकाई अपितु संपूर्ण मानवता 

निज भौतिक साधन-सुविधाओं से भी अधिक, दमितों के बौद्धिक-दैहिक स्वास्थ्य की हो चिंता। 

सर्वप्रथम उन्हें स्वयं को हीन मानना तुरंत अंतिम करना चाहिए, अन्य-दत्त विशेषण अस्वीकार 

     व्यवहारिकता उचित थोड़ा सहना भी बुरा, पर निज-निकृष्ट स्वीकृति आत्मा प्रति अपराध।      


जगत में अनेक राजनैतिक प्रपंच है, लोगों की एक विशेष प्रकार से मानसिकता पूर्व बनी होती 

नेता सत्ता-लोलुप हैं, प्रजा-तमस में उन्हें मतलब, हाँ काम चलाऊ विकास-रेवड़ियाँ फेंक दी

किंतु सत्य प्रगति स्वमन-प्रवर्धन है, माना वह भी एक न्यूनतम विद्या-सुविधा होने पर ही चलता 

तो भी कुछ चेतना तो है, उत्तम स्वार्थ देखते हुए विचार-गति बढ़ाओ, उचित से सीखो परखना  


माना हम बहु प्रलोभन-पाशित, अन्य फुसलाते भी, परंतु प्रत्येक संपर्क से एक पाठ ले हो सकते 

जरूरी अन्य को पूर्ण स्वीकारें, विवेक से देखें कहीं अनावश्यक छद्म शत्रु तो प्रस्तुत करते। 

अज्ञानता-विनाश हो, होनहारों को समुचित पोषण, ध्यान, शिक्षा-प्रशिक्षण देकर बनाओ सुयोग्य 

तथोपरि मन से सुदृढ़-सशक्त हों, सुनने-कहने-सहने का विवेक आए, व समस्या सुलझाए धर्म्य। 


हर समाज में सुविचारक हैं, अपना लेखन-प्रवाह सतत रखते, अनेकों को नित्य सद्प्रेरणा देते 

हर पहलू पर उचित प्रकाश डालने की कोशिश करते, माना पाठक रूचि अनुरूप समझते। 

उनकी भी आलोचनाऐं होती रहती हैं, कुछों को शायद इस तरह का काम भी दलों ने रखा दे 

किंतु सुपरिवेश बनाना निर्मलचित्तों का दायित्व, समाज को निर्मम-अवस्था में छोड़ सकते। 


पर पूर्व क्यों बीमारी लगाई जिसने सब संक्रमित कर दिए, कुछ को ग्रसित रहने में मजा आता 

विश्व में तुम्हीं समाज कि बहु-स्तर बना दिए, हरेक निज से निम्न ढूँढ़ने में गर्व अनुभव करता। 

निचले पायदान पर बैठे तो सबकी अच्छी-बुरी सुनते हैं, और सबसे अधिक उनपर ही प्रतिबंध 

फिर यदि सहने-घुटने की आदत पड़ गई तो मौन में हित मानते,  लड़ना लगता भरा जोख़िम 


रोगी को थोड़ा सा भी छेड़ दो तो चीख पड़ता है, एकनेत्र को काना कह दो तो बुरा जाता मान 

एक टाँग वाले को लंगड़ा कहा तो क्रुद्ध हो जाता, मूर्ख को यदि वैसा कहा तो सिर भी दे फोड़ 

अतः निरोग-सर्वांग होना महत्त्वपूर्ण, पर उससे भी श्रेष्ठ कथन-पूर्व लोगों में होनी चाहिए संवेदना 

आत्मीयता संग पीड़ितों-दमितों से बात हो तो वे बुरा मानेंगे, तव उपस्थिति का आदर होगा। 


खुद से कहता तो भी एक कुछ पढ़े-लिखे हो, किंचित बुद्धिसंपन्न भी, अतः अधिक है दायित्व 

समाज के उचित दिशा-दान में तव सहयोग चाहिए ही, लोग भले ही जानते उन्हें है जरूरत 

कुछ काल हेतु निज मान की ही चिंता त्यागो, देखो हर जगह प्रज्ञावान भी हैं, साथ देते उचित का 

सुविचार-प्रस्तुति करते रहो, चेतना बड़ी रोशनी है, देखने लगे तो  रहेगी आपकी आवश्यकता 


चलो कुछ ऐसे स्वयंसेवक खड़े करो जो एक मिशन भाँति काम करें, समाज की बदल दें दुर्दशा 

फिर प्रयास से सर्वस्व ही संभव है, कुछ ही विगत वर्षों में समाज देश में बड़ा परिष्कार हुआ।  

सकारात्मकता तो नित्य ही चाहिए, कोई समस्या इतनी बड़ी  कि टिकी रह सके पुरुषार्थ समक्ष 

समाज-देश को प्रगति-बुलंदियों पर ले जाना है, अब इस दिशा में यथासंभव जरूरी करो प्रयास 


महत्तम व्यय सुशिक्षा में ही हो, लोग तकनीकें सीख सुयोग्य बनेंगेतलाश भी लेंगे रोजगार-अवसर 

लोग स्वावलंबी होंगे तो दमन-टोटके अप्रभावी, रुढ़ि-कुरीतियाँ कम तो विश्वास झलकेगा स्वयमेव 

वे अच्छे-बुरे का उचित अंतर समझेंगे तो प्रगति-शुचिता-सुव्यसन-विद्या आदि में ही बहु रूचि लेंगे 

सब ही समकक्ष तो छोटे-बड़े का भेद न्यून, मनुज को मनुज समझकर एक सुहृदयता अपनाऐंगे। 


आज इस प्रथम-दिवस डायरी से लेखन आदि है, अनेक नव प्रयोग-संभावनाऐं इसमें स्थल पाऐंगी 

अतिशीघ्र स्थिति-स्थान परिवर्तन होगा, पूर्व डायरी निराशा से निकाल सकारात्मक तल पर लाई। 

अवश्यमेव इससे भी नव चिंतन-सोपान प्रगति हेतु प्रस्तुत, बहुमुखी चित्त विश्व-हितार्थ होगा समक्ष 

एक निर्मल छवि स्वयं हेतु प्राप्त हो, वरिष्ठों का आशीर्वाद, संगी-स्नेह अवरों की शुभेच्छा लब्ध। 



पवन कुमार,

३ जुलाई, २०२३ सोमवार समय ७:५९ बजे प्रातः 

(मेरी चेन्नई डायरी शुक्रवार दिनाँक ७ अप्रैल, २०२३ समय ८:५३ बजे सायं से)