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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 2 June 2024

अदम्य निरंतरता-इच्छा

अदम्य निरंतरता-इच्छा


एक मूर्त मिली है प्रकृति माता सेसब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ मन-बुद्धि से युक्त 

खिलौना तो रब ने अच्छा ही बनायापर कैसे प्रयोग हो रहा है महत्त्वपूर्ण। 

 

विधाता की बुद्धि सशक्त है, वह श्रेष्ठतम कलाकार अनंत-सघन वस्तु-राशि 

निज ओर से कसर  छोड़ताजग के सब जीव-पदार्थ उसकी कलाकृति। 

 हरेक को पूर्ण सामग्री से पूर्ण बनायाहाँ यहाँ-वहाँ कुछ विसंगति भी संभव 

परंतु कमोबेश तो सब स्वतन्त्र ही हैंचाहे तो आराम से बिता सकते जीवन। 

 

विज्ञान-भाषा में कहें तो मानव तथा अन्य जीव-वनस्पति यहाँ विकसित हुई 

 लेकिन वह प्रक्रिया भी अति जटिलहमने एक विकासवाद-धारणा बना ली। 

उसमें विधाता-ईश की भूमिका  चिन्हितसकल ही देन काल-परिस्थिति की 

फिर शनै अतिदीर्घ बाद वर्तमान विश्व-स्वरूपअपने ढ़ंग से होगा भविष्य भी। 

 

पर कुछ भी ईश्वर ने बनाया या प्राकृतिक-कारकमानव  अन्य जीव-रचनार्थ 

यह भी सत्य कि हम मात्र उपकरण अपितु वृहद प्रकृति-चेतना का हैं अंश। 

जीव मनन-विचरण हेतु कुछ स्वतंत्रचाहे तो न्यूनाधिक स्थिति बदल है सकता 

जरूरी  एक जगह ही शिथिल पड़े रहोदेखो तुम्हारी ही तो है सब वसुंधरा। 

 

अति संघर्ष तो है बाह्य-परिवेश मेंसब जीव स्व वर्चस्व-रक्षार्थ मारे-2 हैं फिरते 

आप प्रकृतिसंसाधन महत्तम ही घेर लेंऔरों मिले या  हमारा  विषय है। 

व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत स्तर परप्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष को पाटने की इस 

मन में तो बड़ी हूक चाहे  कर सकेमहत्त्वकांक्षा जीव का एक गुण नैसर्गिक। 

 

कुछ जीव यहाँ देह से बलशाली रहेंकिंतु अन्य दुर्बल-जीवों ने युक्ति से हटाया 

जो खाली बैठा रहा तो भूखा पड़ा रहेगाया भक्षण कर लिया जाएगा अन्य द्वारा। 

 एक होड़ सी लगी श्रेष्ठता सिद्ध करने कीयेन-केन-प्रकारेण तब सफलता पा लें 

 सब यहाँ तीसमार खाँ बनेपर बहुदा पराजय देखकर अपने यत्न कम कर देते। 

 

दुनिया के रवैये को क्या कहूँकई बार तो घुटती सी एक उदासीनता ही दिखती 

कुछ लोग तो अतीव त्वरित दिखतेकिंतु अनेक  बाहर आते सुस्ती से अपनी। 

देह-मन की थकावट एक शुल्क सा लेतीहमारे कहने से ही  सब कुछ होगा 

जब नेत्र बंद हो रहें  कलम लड़खड़ा रहीतो ऐसे में भला कैसे श्रेष्ठ निकलेगा।  

 

अब मुझे भी एक अच्छा उपकरण तो मिलापर कैसे कर हूँ रहा उसका प्रयोग 

यह मैं या प्रकृति-चेतना ही हूँमुझ द्वारा ही स्वयं को बनाए चाहती चलायमान। 

मैं क्या हूँ जो अपने से ही चाहूँजबकि निर्माता बनाता है निज प्रयोग हेतु बहुदा 

स्थिति भिन्न लगती हैंप्रतीत कि अन्यों हेतु बनायापर कार्य स्वयांर्थ ही हो रहा। 

 

कौन स्वामीकिसका मजदूरकिसे दैनिक-कार्यकलापों का लेखा-जोखा देना 

मन-श्रेष्ठ पर कौन पीछे से हाँक रहाये स्वछंद क्षण निज ढ़ंग से चाहते बीतना। 

अपनी ओर की दुनिया स्वयमेव बनाई ये समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले किए खड़े 

अब भी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा हूँयह चेष्ठा ही जो सदा प्रेरित हैं किए। 

 

जिस भी परिस्थिति में आज हूँवह किसके प्रभाव से  कितना उसमें मेरा अंश 

क्या मैंने इस हेतु यत्न कियाहाँ कोई  कहेगा निज यदि कठिन बीत रहा समय। 

तब कुछ सराहनीय प्रयास होंगे अपने भीयदि स्थिति में सकारात्मक हैं परिवर्तन 

 एक-2 ईंट जोड़ने से ही ललित भवन बनतायहाँ निर्माता - निर्मित दोनों हूँ स्वयं। 

 

एक बड़ा प्रश्न जो पूर्व भी कुछ इंगित हैक्या पूर्ण स्वतंत्रपरतंत्र या मध्य-स्थिति का 

विभिन्न दर्शन तर्क देते पर यदि योग्य होइच्छा से बहुत करने का अवसर मिलता। 

 माना इस दुनिया में बड़ी टाँग-खिंचाईसत्य में अत्याचार भी हो रहें कुछ लोगों पर 

 पर उसके बावजूद भी नर में अदम्य-बल हैचाहे तो विश्व का भाग्य सकता बदल। 

 

तो क्या हम भाग्य-विधाताअति विचित्र कि इतना बहमूल्य उपकरण दान में मिला 

हम विधाता की मूरतें जग-कल्याणार्थ चिन्हितअपना कुछ नहींसमय है बिताना। 

पर जितनी समय-ऊर्जा इसको प्रदान की गईपूर्ण उपयोग सार्वजनिक हित में हो 

अनेकों के यहाँ भाग्य बदलें तुम भी बदल सकतेचेतना से कर्मठता का पथ ले लो। 

 

माँ-बाप ने जन्म दियापाल-पोसकर पाँवों पर खड़ा करकेचले जाते हैं परमधाम  

तो क्या उद्देश्य था हमारे निर्माण काया जैसे सब करते तथैव पैदा कर दी संतान। 

एक बार बचपने में यूँ ही माँ से कहा थाकि 'क्यों इतने अधिक बच्चे पैदा कर दिए

निस्संदेह यौवन-सुख में गर्भधारण होतापर सत्य उद्देश्य रूप देना है अपने जैसे। 

 

कारण है हमारी अदम्य निरंतरता-इच्छा , इस हेतु रचे जा रहें अनेक जगत-प्रपंच 

सब विवाहयौन-संबंधसंतति का पालन-पोषणउसी कवायद में हैं अग्न-कदम। 

संतान-मोह तो होता है अभिभावकों मेंपूरे यत्न से योग्य बनाते उन्हें पाल-पोसकर 

सोचते भविष्य इनका ही हैहम कुछ दिन के पहरेदारइनका होगा अग्र दायित्व। 

 

सबको यहाँ समय मिलता कुछ खेलने-खानेमस्ती-लड़ने-भिड़ने या पंगा लेने का 

तुम्हें भी मिला निज से जी रहेजब सकल प्रकृति समक्ष किसी से शिकायत क्या। 

पर इसी लब्ध स्वतंत्रता में बाह्य-जिम्मेवारियाँ भी हैंयहाँ मात्र अपने हेतु ही नहीं हो 

 जीवन-निर्माण तो महद-उद्देश्य संग ही किया गया हैपरंतु अपना मूल्य तो जानो।  

 

किन वस्तुओं में चेतन-जीवंतता छोड़ सकते होवह होगा शायद जीवन-मापदंड 

सीमा-विस्तार करो इस वर्तमान लघु-कोटर से आगेसमस्त जग ही है कार्य क्षेत्र। 

जहाँ भी जाओ अपनी अमिट छाप छोड़ दोऔरों पर नहीं तो कमसकम निजार्थ 

जितना उत्तम निज से संभव था उतना कर दियाबड़ी चेष्टा हो करूँ ही सर्वश्रेष्ठ। 

 

परियोजना की योजना बनानी हैचाहिए तो सब भाँति का ऊर्जा-उत्साह-साहस   

यदि वर्तमान से आगे देखने की योग्यता बना सकते होनिश्चिततया है परम-यश। 

लोगों को अपने प्रयासों में मिलाना अनिवार्य हैउनका बल-संबल अति महत्वपूर्ण 

परन्तु पूर्ण-जागृति तो आत्म-जागरण से होगीअन्य मात्र सहयोग सकते हैं कर।

 

पर संगी-योग्यता में विश्वास करना सीखो, स्व-रचनात्मकता से कर देंगे अचंभित 

मुस्कुराकर कुछ श्लाघा-प्रेरण-प्रोत्साहन-सहाय से, सुपरिणाम रचवाना लो सीख।

वे आपके अधिकार में प्रदत्तकाम लेना कर्त्तव्यहाँ न्यूनाधिक सबमें कुछ कमी 

बस बिंदु सीधा कर शुभ दिशानिर्देश देते रहोमंजिल समीप है शीघ्र ही मिलेगी। 

 

यह जीवन तो मेरा ही हैस्वयं हेतु ही निर्मितमैं संचालक पर प्रकृति का महादूत

महद अपेक्षा है मुझसेजननी-कार्यों में सहयोग प्रयास करोकरो जीवन सार्थक।

कोई भी देश-समाज-विभाग कर्मियों से ही जाना जातातुम परिवेश दो उपयुक्त

जब दूजों को सादर अपेक्षा से देखना शुरू होगातब समझना कुछ हुए सार्थक। 

 

प्रकृति ने मुझे उत्तम-अवस्था में रखाकिंचित इसी जन्म में अपेक्षित महद अति 

हर दिवस अति-प्रधान है त्वरित प्रक्रिया हेतुसमय-सदुपयोग आपकी कसौटी। 

जिससे बात करनी हो करो, पर संसाधन विकसित करोबस उत्पादकता-ध्येय 

सच्चा कर्मयोगी बन अपने संग मित्रों-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम कर दो उन्नत।

 

 

पवन कुमार

२ जून, २०२४ रविवार, समय ११:१६ बजे पूर्वाह्न 

 (मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३० मार्च, २०१७, वीरवार, समय :५९ बजे प्रातः से)

 

Saturday, 25 May 2024

प्रकृति-सान्निध्य

प्रकृति-सान्निध्य

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मृदुल-स्पंदन स्वयं का स्व में, सारी जीवन-चेष्टा एक उत्तम-अहसास हेतु मात्र 

हम उसी क्षण हेतु तो जी रहें, जब आत्म का स्वयं में पूर्ण हो जाए आत्मसात।


इस जीवन का क्या उद्देश्य ही बनिस्पद हम, कुछ तो प्रयोजन रहता हेतु हर

क्या हम ईश्वर-निर्मित या बस प्रकृति की नवीनीकरण-शैली के फल-स्वरूप।

पर इतना तो अवश्य है मनन-चिंतन शक्ति दी, व मनुज विकसित सकता कर

कुछ प्रयोग तो प्रतिदिन होता रहता, पर क्या वही हमारा विकास है महत्तम। 


हमारे स्वयं के प्रति क्या कर्त्तव्य ही हैं, व कितने गंभीर- प्रतिबद्ध उनके प्रति 

क्यों नहीं तीक्ष्ण इच्छा एकाग्रचित्त हों, कर लें कोई बड़ी उत्तम-आत्मानुभूति। 

दुनिया में तो बहुत बाह्य-कोलाहल हैं, पर कुछ क्षण ही दूर तक उछल सकते 

जितना ही स्वयं के निकट आते जाऐंगे, बहु अनुपम-अहसास के द्वार खुलेंगे।


जब सारी कायनात ही स्व में समाने लगेगी, विराट कृष्ण-रूप विकसित होगा

सब विभेद पूर्णतया स्वतः प्रक्षीण हो जाऐंगे, अच्छा-बुरा एक सम हो जाएगा।

सभी जगत रूप अपना अंश लगेंगे, तब कितने विस्तृत होवोगे, कल्पनातीत 

कुछ विलगता-पश्चाताप भी निज से हटेगा, क्योंकि सकल ही हमारा कोष्टक।


अभी इस कक्ष में वज्रासन-स्थित हूँ, ऊपर पंखा-चलने की ध्वनि स्पष्ट रही सुन

यह आवाज भी विचित्र स्वरूप लिए है, एकबार तीव्र फिर मंद हो जाती कुछ।

देह-अंगों पर अनिल-शीतलता व निपीड़ हैं, निज अहसास पूर्णतया करा रहा

नेत्रों पर चश्मा, उरु पर तकिया, पृष्ठ पर पॉयलट हाईटेक V5 पैन चल रहा। 


बाहर कहीं-2 से रुक-रुक के, धीमे से चिड़ियों की गान सुनाई दिया जा रहा 

क्या बताना चाहती अज्ञात ही, विशेष मित्रता न, समक्ष आ जाती तो देख लेता।

उनको भी मुझसे कोई प्रयोजन नहीं, मुझ जैसे अनेक प्राणी परिवेश में घूमते 

फिर मैं ही कौन सा उनका विशेष ध्यान रखता, उनका भी जगत मस्त उसमें।


इस भाड़े के आवास-भवन के पीछे खेत हैं, सरसों कटने बाद इसे सुधार दिया

ट्रैक्टर से भूमि जुतवा दी, मृदा में वाबजे यु-खनिज मिश्रित होगी, बढ़ेगी ऊर्वरा। 

अब कुछ नई फसल उगाने का विचार होगा खेत-स्वामी का, क्या होगा देखेंगे  

पर मुझ हेतु तो हर दिवस नव-दर्शन व अनुभव ही, आनंदित प्रकृति संग में। 


प्रात: करीब 50 मिनट छत पर घूमता हूँ, 5 किलोमीटर 6000 से ज्यादा कदम 

अधिकांशतः 5 बजे ही जग जाता, गुनगुना जल पाने पश्चात शौचादि से निवृत्त। 

तब स्पोर्टस-जूते पहनकर मोबाइल फोन ले, इस भवन की छत पर चला जाता 

सैमसंग मोबाइल में हेल्थ-एप्प, जो समय-स्टैप्स, गति आदि अंकण कर लेता।


स्वास्थ्य उत्तम रखना कर्त्तव्य है, शरीर-मन स्वस्थ होने चाहिए हर व्याधि से दूर  

खानपान का भी कुछ अच्छा असर रहता, फिर स्वस्थ-जीवन शैली बढ़ाते अग्र।

कुछ उत्तम देह-व्यायाम जरूरी नित्य, गत काफी दिनों से छूट सा गया लगभग

अभी प्रातः-सैर सैट कर रहा हूँ, व्यायाम, दंड, आसन को भी शनै कुछ समय। 


उषा की शिकायत कि देह पर नहीं समुचित ध्यान, उदर कुछ निकला है बाहर

वपु देखने में शुभ-सौष्ठव लगनी चाहिए, प्रयास हो पेट वक्षस्थल के रहे अंदर। 

कारण दिन-कर्म बैठना का अति, आजकल कार्यस्थल-निरीक्षण भी न अधिक 

यदि एक घंटे की भी प्रातः-सैर नहीं होगी, तो स्वास्थ्य पर विलोम पड़ेगा असर।


बचपन में गाँव में चिड़ियाँ-गौरया देखते थे, दिल्ली में तो अब अति-न्यून दिखती

1992 में दिल्ली बसा तब बहुत चिड़ियाँ थी, रा.कृ.पुरम गृह में खूब चहचहाती। 

वहाँ शौचालय बाहर बॉलकोनी में दर्पण टंगा, शक्ल देख उसे दूजी समझ लेती

प्रतिद्वंद्विता में युद्ध सा शीशे पर चोंच मारती, कदाचित लहू-लुहान भी हो जाती।


इस पृष्ठ के दूसरे पद्यांश से मैंने मुख पश्चिम में जालान्तर की ओर घुमा है लिया 

लोचन-समक्ष खुला प्रकृति-दर्शन चाहता, बुद्धि भी उसी भाँति अनुभूति कराती। 

दो चिड़ियाँ समक्ष-गृह के प्रथम तल-मुँडेर पर बैठी, अठखेलियाँ करती परस्पर 

थोड़ा पूर्व रेलिंग पर स्वस्थ कबूतर बैठा था, महेंद्रगढ़ में आखेट न अतः सुरक्षित।


कुछ पूर्व रेलिंग पर एक काली रोबिन दिखी थी, बड़ा सुहाता है उसका सिर-ताज 

प्रकृति-प्रदत्त उपकरण उनकी आँखें पैनी हैं, जीवन-आनंद हेतु व अपना बचाव।  

चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही, व यह तो आत्माभिव्यक्ति का मेरा ही रूप

कबूतरों की शालीन चाल पर तो अभिमान होता, अतिनिश्चिंत जीवों में एक है यह।


अब समक्ष क्षेत्र की भूरी मिट्टी दिखाई दे रही, बीच-2 में कटी सरसों के ढांसरे पड़े 

जोतकर जमीन को स्पाट कर दिया है, पानी दे दिया, अब शीघ्र बिजाई भी होगी। 

मुझ हेतु तो अति हर्षप्रद ही, एक हरित उपवन सा परिदृश्य नयनों के समक्ष होगा

प्रकृति-हरियाली का तो कोई पर्याय न, सुबह-सैर से मिल असर कई गुणा होगा। 


लगभग पूरा ही खुला आसमान-सामीप्य है, बस प्रकृति-सान्निध्य पूर्णानुभूत करूँ

चाहता इसके आयामों को निज का अंश मानकर ही, निज आचार-व्यवहार करूँ।

जीवन-लक्ष्य तो अत्युच्च होना ही चाहिए, मन में गगन-ऊँचाई व समुद्र की गव्हरता 

वैसे तो प्रत्येक ब्रह्मांड-अणु से सीधा रिश्ता, अहसास भी हो सके तो आ जाए मजा।


हेनरी डेविड थोरियू की पुस्तक 'वाल्डेन', प्रकृति-निकटता की अजीब दास्तान एक 

स्वतंत्रता, सामाजिक-प्रयोग, आत्मिक-खोज, व्ययंग, व आत्मनिर्भरता हेतु विनिर्देश।

थोरियू दो वर्ष, दो मास, दो दिन, जंगल से घिरे वाल्डेन सरोवर निकट केबिन में रहा  

यह मित्र-संरक्षक शल्फ-काल्डो-एमर्सन का यह मासेचुसेट्स कॉनकॉर्ड के पास था। 


थोरियू ने प्रथम पुस्तक 'A Week on the Concord & Merrimack Rivers' लिखी 

अनुभव से वाल्डेन की प्रेरणा मिली, समय को कैलेंडर-वर्ष में सिकोड़ा है एकाकी। 

चारों ऋतु बीतने के अनुभव को मनुष्य-विकास को चिन्हित करने हेतु  किया प्रयोग

प्रकृति में आत्म-लुप्त कर, उसने मंथन से निष्पक्ष-समाज समझने का किया प्रयास। 


साधारण जीवन, आत्म-निर्भरता और उच्चतम कार्य-दर्शन थोरियू के हैं अन्य लक्ष्य  

ये अमेरिकन रोमांटिक काल के मुख्य विचार, प्रकृति-परिवेश में जीवन-प्रतिबिंब। 

थोरियू लिखता है मुख्य जीवन-तत्व समझने हेतु, वह इच्छा से आवास हेतु गया वन 

यह भी कि जब मरूँगा तो न लगे कि जीया ही न, भागा न यावत अत्यावश्यक न। 


गहन जीना व सर्व जीवन-रस पीना चाहता, सकल जो प्राण न था उबरने हेतु उससे

अतः जीवन को एक कोने में ले जाकर, अनुभव करना चाहता था अति निकट से। 

यदि यह जीवन लघु तो क्यों नहीं, इसकी संपूर्ण व उचित-निम्नता की जाए ही ग्रहण

यदि सुन्दर तो अनुभव किया जाए, अग्रिम आनंद में इसका दे सकूँ सत्य विवरण। 


मैं भी आजकल प्रकृति समीप रह रहा, कुछ बड़ा उद्देश्य थोरियू जैसा बना सकता

प्रत्येक जीवन-स्पंदन निकट से अनुभव कर सकूँ, वही प्राण जो अहसास हो गया।

 ओ जीवन, मुझसे भी कुछ बड़ा उद्देश्य लिखवा देना, कृतज्ञ-ऋणी रहूँ ही आजीवन 

इस सारी कायनात की जीवंतता मुझमें भर दे, अत्युत्तम स्तर का हो निज अनुभव।


पवन कुमार,

25 मई, 2024, शनिवार, समय 9:01 बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 28 अप्रैल, २०१७ शुक्रवार, समय 9:18 बजे प्रातः से ) 

Saturday, 18 May 2024

साकार-निराकर

साकार-निराकर
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एक बहु-आयामी व्यक्तित्व-छवि, निश्चित ही अमुक की एक विशेष-पूँजी 
यदि आत्म को महत्तम विस्तृत कर सकें, नर कुछ हो सकता पुञ्ज-शक्ति।

सत्य में क्या आंतरिक बल ही, बाह्य दैहिक-बल, बुद्धि-वैभव भी बड़े सखा 
गिर्द सक्षम-सहयोगी, बंधु-मित्रों का सहारा भी नर-मनोबल बनाए रखता।
यदि कुटुंब-परिवेश एक प्रेरक, तो अधिक संभावना अमुक हो प्रगतिपथ 
हर आयाम-परिणति हेतु साकार-निराकर बल वाँछित, क्षुद्र-अणु तो निज।

हम बहुदा किनसे ही घिरें, निकट परिवेश का हमसे व्यवहार भाँति किस 
माना हममें आकर्षण संभव है, पर निज अनुभूति से ही लोग आते निकट।
बलात तो किसी से न चिपक सकते, जब अगला दूर से भी न चाहे संवाद 
विरोधाभास कि एक आशा-संपर्क चाहे, जबकि दूसरा रहा ही है दुत्कार। 

एक मनुजत्व कैसे निखरता, क्या महक सकता बहुकाल दमन पश्चात भी 
फूल कुम्हलता तो प्राण-स्पंदन मंद, व घोर कुपोषण तो अकाल मृत्यु ही। 
क्या यही व्यक्तित्वों-समाजों का प्रगति-दर्शन, हाँ हर दौर से गुजरते सब 
पर कुछ घोर कष्ट झेले हैं, हाँ अंतः-साहस से लड़ने-झूझने का बल लब्ध।

जब बुद्धि बस गरीबी-बदहाली से निकास में, महद ऊर्जा न देखें मृदु पक्ष 
जिंदगी कथञ्चित चल रहती, नर-समाज का जीवन-स्तर रह जाता मद्धम।
माना मूढ़ता सर्वत्र व्यापत, लोग लिप्त बहु भाँति के मारक-अंधविश्वासों में 
अपने अलावा अन्य को न आदर ही, श्रेष्ठ-निम्नता के मनोभाव पाले रखते।

प्रश्न क्यों समूह व नर-विशेष मद्धम, जब सुव्यवहार से पनपन-मौकें संभव 
जब स्कूल-संस्थान, अस्पताल-सड़कें, फैक्ट्री खूब, तो बहु प्रगति-अवसर। 
क्यों अभाव जग-व्याप्त हैं, जब धन-प्रसारण से वस्तु-उत्पादन संभव अति 
हाँ प्रजा की क्रय-शक्ति भी वर्धित हो, तो क्या निर्माण-लाभ बिका न यदि?

सबको विकसन-अवसर प्राप्त हों, हाँ कुछ को चाहे करना पड़े अतिश्रम
यह समाज-अग्रणी, राष्ट्रों का दायित्व, होनहारों हेतु शिक्षा-दान हो सुंदर। 
सब पूर्वाग्रह भुलाकर परस्पर कंठ लगाऐं, सबके भले में लाभ ही है निज  
व्यक्तित्व स्वतः खिल उठेंगे जब प्रगति-स्थिति, सुपरिवेश जरूरी ही बस।



पवन कुमार,
१८ मई, २०२४, शनिवार, समय ११:३२ बजे म० रा० 
(मेरी महेंद्रगढ़ २९ दिसंबर, २०१७, शुक्रवार, समय ८:३२ सुबह से )