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Thursday, 30 March 2023

देवी-रूप

देवी - रूप

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 एक उज्ज्वल  रूह से दिल को है सुकून, बोली जैसे मिश्री घोल देती 

अनेक प्रतिबंध सहज सहन कर लेती, वह नारी है एक स्तुत्य देवी। 

 

एक सौम्य स्वभाव, मृदुल अभिव्यक्ति, उपस्थिति जैसे काँटों में गुलाब 

कारुण्य नयन, प्रसन्नचित्त मुख, है स्थिरचित्त, शील-गुणों की आकर।  

तन-मन से सुदृढ़, अंतः में शुचिता, न अतिश्योक्ति, निज चादर में पाँव 

ममता की मूरत, सच्ची सहभागिनी, माँ-बहन-बेटी बड़े संपूज्य नाम। 

 

एक मरुस्थल में जैसे रिमझिमी-बौछार, रिक्तिता जैसे असभ्यों का वास 

जननी, पालक, शिशु-दुलारिनी, कष्ट सहकर भी संतति का रखरखाव। 

अभिभावक-स्नेहा, आज्ञा-पालिका, बिन नाज-नख़रे के सब सहन करती 

द्वि-कुटुंब धरोहर, बड़े यत्न से पाली, सेवा-सुश्रुषा से सब वश कर लेती। 

 

सीप में मोती, बाह्य खोल में गिरी, मिश्री सी डली, वनस्पतियों में तुलसी  

वह मसालों में हल्दी, अमृत बूंद, फटेहाल में खुशहाली, हर्षित स्मृति।  

मीठे पानी की कूँई, मिठाईओं में सेंवई, पालतुओं में गाय, भुजंग-मणि 

एक अति गुणवती, प्रत्युत्पन्नमति, निर्मल चरित्रिणी, प्रेमी की वल्लभी।  

 

जैसे अंधकार में ज्योति, आँखों में घी, है दूध में मलाई, सरदी में रजाई 

रक्षिणी, सर्वदुःख-तारिणी, प्रियदर्शिनी, चक्षु-प्रसादिनी, मधुर-भाषिणी। 

धूप में शीतल छाँव, घायल की पट्टी, है भूखे की रोटी, बुढ़ापे की लाठी 

आत्मीय मित्र, विश्वासी सुहृद, वृहद-उत्पादिनी, वातावरण-सँवारिणी। 

 

संगीत में रागिनी, वाद्यों में वीणा, विद्या-देवी, धन-धान्यों की लक्ष्मी 

  लेखक की कलम, कवि की कविता, यज्ञ की अग्नि, पावन सी स्मृति। 

परिश्रम की देवी, जगत्माता, मानव की पूर्णिनी, हिमांशु की चाँदनी 

अरुण-लालिमा, नभ-सुंदरता, झील सी गहरी, सरसों सी सुनहली। 

 

सर्वत्र-अग्रिणी, श्रेष्ठ अनुगामिनी, सदविचारिणी, पूर्ण न्यौच्छावरिणी 

झील सी शांत, गगन-ऊँचाई, है सौंदर्य की देवी, सर्वगुण स्वामिनी। 

धन की कुँजी, नर की कमजोरी, है तोते की जान, विद्वान का ज्ञान

     मेरी भी संगिनी, पुत्री-बहन का प्यार, माँ नहीं पर हैं सुभाशीष साथ।   

 

पवन कुमार,

३० मार्च, २०२३ गुरुवार, समय ५:५८ बजे प्रातः  

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २८ मार्च, २०१९ वीरवार समय प्रातः ९:०५ बजे) 

  

Friday, 17 March 2023

पंकज - निर्मल

 पंकज - निर्मल 


क्या है हमारा बाह्य व्यक्तित्व, कैसे बोलते,  व्यवहार करते, प्रतिक्रिया करते

अगले ने तो कुछ बोला ही न, हम निज में ही ऊल-जुलूल सोच व्यथित रहते। 


क्यों दुनिया हेतु हम यूँ संजीदा रहते, उसको फुरसत न स्व में ही उलझी रहती 

उसे बहु काम हैं तव विषय में हस्तक्षेप के सिवाय, हाँ कुछ टीका-टिपण्णी भी। 

पर हमारी क्या मनोदशा यह उसपर न निर्भर, ग्राह्य की प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण है 

भिन्न परिस्थितियों में एक कारक की ही पृथक शैली, इसे किसका कुसूर कहें ? 


देखो एक परिवेश मिला कर्मयोग हेतु, उसमें डूब जाओ वहीं से मुक्ति मिलेगी 

दुनिया भी अपने ढंग से काम कर रही, मानो तुम्हारे संपर्क से बदल भी रही। 

जैसे तुम पर असर, वह भी कमोबेश प्रभावित, अब अधिकांश स्वयं पर निर्भर 

आत्म-श्लाघा छोड़, यश स्वतः फैलने दो, कुसुम न कहता मेरी खुशबू है यह। 


हाँ पथ सिखलाओ सहयोगियों को भी, स्वयं भी तो अनेकों से सब कुछ सीखा 

आत्म तो बस एक हाड़-माँस का पुतला था, जग अनुरूप ही इसकी है चेतना। 

वस्तुतः यह प्रबोध भी है इस विश्व का बहु  संसर्ग, जो रह-रहकर करता टीस 

हाँ बस कुछ स्पंदन तो हैं मुझमें, और कारक प्रभाव डालते बलानुरूप निज। 


तुम विषयों को बहुत गहराई से लेते हो, जबकि उसकी नहीं आवश्यकता 

जैसे तुम अन्य भी निज में परेशान, तुम्हारे में रूचि न उनकी प्राथमिकता। 

नित्य-व्यवहार में कुछ कह ही देते, यह उनकी सोच न बहु भूमिका तुम्हारी 

यदि सुभीता तो वे भी सकारात्मक प्रभावित, अतः सीधी चाल में ही भलाई। 


पर जगत भी हमारा एक प्रतिबिंब, धूल मुख पर चढ़ी पर दर्पण को दोष 

शक़्ल हमारी मन-विचारशैली, जब साफ न होगी तो कैसे दिखेगा स्पष्ट ?

मन सब हेतु निर्मल कर लो, जितना उत्तम हो सके उतनी करो कोशिश 

कमल-स्वभाव सर्वार्थ एक सम ही, निज कारक को तो कर लो सज्जित। 


अपनी बात कहने का हुनर सीखो, लोगों को किंचित प्रसन्न बनाना सीखो 

व्यर्थ-आलोचनाऐं छोड़ो कुछ अधिक लाभ न, बात सुभीते ढंग से कहो। 

अनावश्यक क्यों किसी को रुष्ट ही करना, शैली तो स्पष्ट होनी चाहिए हाँ 

'आदर दो व आदर लो' का सिद्धांत बना लो, सबके भले में अपना भला। 


अपने को किंचित समरस बनाओ, यश-अपयश तो सामने वाले पर निर्भर 

वह मात्र अल्प ज्ञान के बल पर राय बनाता, समेकित न तो करेगा अतएव। 

निज मन-अवस्था की भी अभिव्यक्ति सीखो, यथासंभव करो पूर्ण कोशिश 

मन किंचित भी कुंठित न रखो, वह अंतः तक नकारात्मक करे प्रभावित। 


अब सब नव संपर्क तो तुमको पूर्ण न समझेंगे, प्रभाव भी चढ़ता धीरे-२ ही 

तब एक दम डंडे से ही न हाँको, सोचने-समझने का समय दो उनको भी। 

माना व्यर्थ अंतः-चिंताओं में फँसी जान है, किसी का भी भला न होने वाला 

हर पहलू निबटने का एक समय, कथन हेतु साहस जुटाने में समय लगता। 


इस दुनिया में तो अनेक व्यवधान हैं, तुम बीच में आ गए तो करेंगे विव्हल 

अब कहाँ-कैसे-कब स्व को स्थापित करना, बहुत कुछ तो स्वयं पर निर्भर। 

इस जीवन के तुम पूर्ण मालिक हो, निज को सहेजना-सँवारना जिम्मेवारी 

इसे यूँ ही न चिंतित होने दो, अपने से ऊपर निकलकर ही बनोगे आदमी। 


स्व को अति बली-मूल्यवान बना दो, अगला टिपण्णी से पूर्व दो बार सोचे 

मान लो कोई नहीं निंदा-उपेक्षा से परे, कभी अदना भी कटाक्ष कर देता। 

हर बिंदु पर न प्रतिक्रिया देनी, कुछ मामले अनदेखे से स्वतः जाते सुलझ 

शनै सब ज्ञात हो जाता, कुछ तुम सहो कुछ वे, बात बस जाती है निबट। 


नमन का अर्थ निर्बल होना न, परिस्थिति-निदान का हुनर सीख लिया बस 

अनेक विषय प्रतिदिन समक्ष आते, स्वयं हतोत्साहित तो निबटोगे कैसे तब?

कीचड़ से ऊपर रहने से पंकज बनते, बाधाओं से घिरकर भी रहना निर्मल 

जीव को न्यूनतम संस्कारों से गुजरना चाहिए,  रोने-पीटने में ही न व्यापन। 


ऐ जिंदगी, किंचित दोस्ती कर ले, जब तुझ संग जीना ही है तो सिखा दे ढ़ंग 

बहुत बड़ा न तो कुछ बेहतर इंसान बना दे, जीवन अर्थ लेना जग-आनंद। 



पवन कुमार,

१७ मार्च, २०२३, शुक्रवार, समय ८:२८ बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १३ जुलाई, २०१७ समय प्रातः ८:१५ बजे)   


Tuesday, 21 February 2023

गागर में सागर

गागर में सागर 


ब्रह्म-मुहूर्त वेला, एकाकी-मन, गहन निःशब्दता सर्वत्र, और एक सुचिंतन समय

इसमें बैठा हूँ तूलिका- कागज संग,  कुछ विचित्र कृति संभाव्यता का है प्रयत्न। 

 

कोई अंतः-बाह्य प्रेरणा अद्भुत रचाती,  काल-खंड कलाकृति कालजयी भवत 

एक अति शब्द-प्राचूर्य, कुछ शब्द-उक्ति भूमंडल पर करते व्यापकता प्रस्तुत। 

कोई तो प्रजा- शब्दकोश में वृद्धि करता,  चाहे प्रचलित को ही कर दे अपभ्रंश 

सतत प्रयासरत निज वाणी- कूक हेतु, स्थिति अनुसार हो जाता भी प्रसारण। 

 

कुछ प्रहरी विश्व-निर्वाहार्थ दिशा-निर्धारण के, सब बीहड़-कंटक हटा पथ सुगमन 

कोई शब्द-गठन करते होंगेअनुपम रचना बन संपूर्ण विश्व की चहेती जाए बन। 

एक ध्यानरत सकल हिमालय-चित्रण 'कुमार-संभव' की 'उमा-उत्पत्ति' में हो जाए 

या कुछ श्लोकों से मेघदूतम-काव्यपूर्ण मेघ-यात्रा अति-माधुर्य संग प्रस्तुत करें। 

 

किन मन-प्रणेताओं का है विस्मयी चित्रणार्थ मनन,  समय निकाल प्रस्तुति भी श्रेष्ठ 

कौन प्ररेणा जगाती तंद्रा-निद्रा से, अद्वितीय हेतु निर्देशित मनोदशा करो सज्ज। 

एक धैर्य-विश्वास, श्रद्धा दान, इस नश्वर-देह कालिक-चेतना से कुछ अनश्वर उदय 

जब भी नर वर्तमान शक्ति-साधनों से ऊर्ध्व है, तो हो जाता सर्वकालिक ब्रह्मांडमय। 

 

कौन वस्तु-चित्रण, समय-घटना, दृष्टांत चित्त-धारण करता, व स्व-शब्दों में कह देता 

कहाँ से वह महावाक्य- जन्म जो परमवीर साहस दे, सर्वमान्य-सीमाऐं नर फाँदता। 

सकल ब्रह्मांड का गमन-मनन का साहस कर लेता,  चाहे बहु जीवन-काल समर्पित 

गव्हर उदधि-तल जाकर मोती-रत्न लाने की भी योजना, प्रश्न कि विचार कहाँ उदित। 

 

कौन वीर पुंस अति भोर जागृत हो,  राष्ट्र-निर्माण हेतु समर्पित कुछ चिंतन करे महद 

निज संसाधन पूर्ण प्रयोग कर, व्यर्थ तज सार में ही चित्त, विराट निवेशार्थ करे प्रयत्न। 

किसकी बीहड़-मरुभू में भी विकास-परियोजनासामान्य नर तो उधर मुख करता 

बड़े सोशल मंच ट्विटर-फेसबुक-लिंक्डइन, इंस्टाग्राम आदि के मूर्तरूपण की सोचता। 

 

संक्षिप्त भी एक अतिशय से ही संभव,  सागर को गागर में समाना भी है एक सुकला 

अधिकांशतः तो है अंतः-उदित ही, फिर छाँटनासर्वोत्तम-चिंतन तो बाद में हो जाता। 

परम-संभव मनन आवश्यकमाना यह टेढ़े-मेढ़े, उबाऊ-थकाते पथों से होकर जाता 

कभी महा-प्रेरणा संयोग तो विरला भी है सुलभ,  निज-उपलब्धियों पर चकित होगा। 

 

इस भोर का श्रेयष प्रयोग संभव माना विपुल प्रेरणा अदर्शित, पर है आत्मान्वेषण संग 

चलो कुछ मनन प्रारंभ करते हैं, मनुज-प्रकृति का क्या संभव बड़ा सान्निध्य चित्रण।

जीवन में सब तो एक भाँति या दिशा प्रगति करते, सब अपने भिन्न आयाम हैं ढूँढ़ते 

कहने-सुनने का प्रश्न ही , सब स्वार्थ विचारते, किंतु सत्य में जागृत कुछ अल्प ही हैं। 

 

यहाँ जगत में किनसे बड़ी अपेक्षा की जा सकती,  क्या वे सुख-दुःख में हैं हमारे संग 

हाँ कुछ पुरुषों को वाचालता की आदत पड़ जाती हैउससे तो काम चलता पर। 

हमें सुप्रशिक्षित- संयम, उत्साह चाहिए, सकारात्मकता संग नव-विकास प्रस्तुत करें 

 सत्य जीवन-उद्देश्य है वृहद जनमन-आंदोलन करना भी, वे सकलार्थ सर्वोत्तम सोचें। 

 

यहाँ शिक्षा-प्रशिक्षण, ज्ञानदान-प्रेरणा अति सार-शब्द हैंअधिकांश सुप्त को जगा दे 

उन्हें वर्तमान लघुवृत्त से निकास सोचना ही होगा,  एक वास्तुकार सा होए सुचित्रण। 

निस्संदेह उस नर से मित्रता अनिवार्य, सुप्त जीवनों में खुली नेत्रों से बड़े स्वप्न जगाए 

अग्रचरण-आदि का साहस-सामर्थ्य देमनुज दिशा तय अपने से और बड़े की करे। 

 

इस जग में सब तरह की राजनीति, लोग परस्पर मार रहें, राष्ट-संप्रभुता पर आक्रमण 

निकटस्थ नहीं पसंद,  एक अनावश्यक तनाव पाले रखते, जबकि सहयोग भी संभव। 

मानता कि सब बाह्य-विकास ही नहीं सत्योत्थानपूर्ण स्वास्थ्य हो तन-मन-धन सर्वस्व  

अतः सर्वांग सँवारना आत्म-जिम्मेवारी, पर सीमाऐं निज से आगे हों मानवतार्थ सकल। 

 

मनुष्य के अंतः से सर्वोत्तम उदय-युक्तियाँ अन्वेषण चाहूँ, वहीं से शायद कुछ हो सुपथ 

बंद कपाट तो खुलने ही चाहिए, एक स्वच्छ पवन-झोंका आकर विभोर कर दे समस्त। 

पर प्रश्न है वह क्षण कब आएगा,  कमसकम अद्यतन-स्थिति तक के हम होंगे सर्वोत्तम 

सतत सुधार रहे प्रक्रियारत, लोहा गरम,  जब उपयुक्त चोट तो यकायक प्रस्तुति श्रेष्ठ। 

 

क्या कुछ दृढ़ मनन-चिंतन-विचार इस क्षुद्र जीव में भी,  स्वयं-विषयों में कितना गंभीर 

क्या स्वार्थ संभावना आज-अभी चिन्हित है करेगा,  उपलब्ध ऊर्जा संग बढ़ाएगा अग्र। 

 प्रारब्ध सत्यमेव तो व्यर्थ  रखना चाहे, प्रयास कराती, चाहे दिशा-पवित्रता  हो ज्ञान 

तथापि बृहदार्थ समर्पित होना, आज तो कल समस्त संचरण से होना है आत्मसात। 

 

यहाँ सचेतता अत्यावश्यक, मन तो बनाओ, एक गंतव्य-सूची बनाकर प्रयोग की सोचो 

अनेक उपस्थित विस्मय प्रतीक्षा में हैं, सकारात्मक-विनम्रभाव से विद्यार्थी सी चेष्टा हो।  


 

पवन कुमार,

२१ फरवरी, २०२३ मंगलवार, समय २३:२२ रात्रि  

(मेरी डायरी नवंबर, २०२२ समय :१२ बजे ब्रह्म-मुहूर्त प्रातः से)