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Saturday 8 November 2014

कुछ प्रकृतिमय

कुछ प्रकृतिमय  
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इस प्रकृति में रमना चाहता, सब चराचर अपना बनाना चाहता मैं

इन चिड़ियों की चीं-चीं, गिलहरियों की गिटगिट, भोर-सौंदर्य में॥

 

मैं निकलता प्रातः भ्रमण को, तो खग-वृन्द की किलकारियाँ होती

कभी फुदकती, कभी उड़ती, मीठे गीत सुनाती और हैं इठलाती।

पूँछ हिलाती, एक डाल से दूजी पर उड़ती, कभी आपस में लड़ती

कभी भूमि, शाखा पर पत्तों में छुपी, या सूखे ठूँठ पर हैं बैठ जाती॥

 

कभी दाना चुगती हैं, गर्दन घुमा बाऐं-दाऐं देखती चौकन्नी से बड़ी

कभी सुस्त प्रतीत, सत्य में विपरीत, दर्शन से ही प्राण सा हैं भरती।

मोर- कोतरी, तोते- मैना, सोनचिरैया, चिड़ियाँ हैं काली-भूरी- हरी

कभी बाज दर्शित, उल्लू- नीलकंठ, एक काला बड़ा भी है पक्षी॥

 

कोयल-कठफोड़वे-कबूतर आदि, औरों को न जानूँ -पहचानता

पर क्षेत्र समृद्ध खग-विचित्रता में, व पक्षी-प्रेमी के लिए है अच्छा।

खेतों में सफ़ेद बगुले गर्दन उच्च किए, चलते शहनशाह की भाँति

कई टिटहरियाँ भूमि पर बैठी कुछ चुगती, और फिर उड़ जाती॥

 

इन पक्षी-मित्रों से कुछ हिल-मिल सा गया, रोज नया रोमांच होता

उनसे बात करने की कोशिश करता, शायद निकले कुछ कविता।

क्रोंच-पक्षी क्रंदन ने, अनपढ़ वाल्मीकि को बना दिया जगत-कवि

और अद्भुत रचित उनकी कलम से, धरोहर है संपूर्ण जगत की॥

 

कभी घास चरता नीलगाय-झुंड दिखता, अभी तक छः-सात देखी

बड़े-नयनों से देखती, खतरे पर बड़ी छलाँग लगा दूरी तय करती।

बड़े आनंद से हैं चरती, जुगाली करती, आदमी देख चौकन्नी होती

अनेक वृक्ष यहाँ ऊँचे-नीचे धरातल में, विशाल क्षेत्र में वे विचरती॥

 

बहु खरगोश-गिलहरियाँ हैं विचरते, यह प्राकृतिक निवास उनका

विश्व-विद्यालय भूमि-क्षेत्र लगभग ५५० एकड़ है, प्रायः ऊसर सा।

यहाँ अधिकतर बालू-रेत के टिब्बे हैं, और कुछ जगह समतल भी

देसी-काबुली कीकर, जांटी-जाल पेड़, झाड़ी-बेर विस्तारित भी॥

 

कुछ मरूस्थल-वनस्पति सी यहाँ, और अधिकतर काँटेदार गाछ

यह भूमि पंचायत द्वारा दान है, तीन गाँव पाली, धौली और जांट।

तीन महाद्वार हरियाणा विश्व-विद्यालय ने बनाए, इन ग्राम-नाम से

सीमा-प्राचीर खींची चार वर्ष पहले, पर कुछ क्षेत्र विवाद-ग्रस्त है॥

 

कृषि-शून्य भूमि थी यह पूर्व, उत्तम शिक्षा उद्देश्य हेतु दी गई अतः

कुछ विचित्र विश्वविद्यालय बनेगा यहाँ, और क्षेत्र होगा विकसित।

शिक्षा-क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण, यहाँ अति विकास है अपेक्षित

लोग कृषि-पशुपालन पर ही निर्भर, अन्य व्यवसाय हैं आवश्यक॥

 

मैं प्रातः अकेला घूमता हूँ, प्रकृति में खो जाता, सोचती रहती बुद्धि

सुबह की धूप, खुला-आकाश, दूर तक हरितिमा में जाती है दृष्टि।

अति-स्वच्छ वायु, प्रदूषण-मुक्त परिवेश है, दूर नगर-कोलाहल से

 अब विश्व-विद्यालय के क्षेत्रपाल-कर्मी दिखते, व प्रेमी भोर-सैर के॥

 

रात्रि-निशा में प्रकृति से पूर्ण संपर्क, चंद्रमा अनुपम छटा बिखेरता

तारें मोटे-अति स्पष्ट, माना कृत्रिम प्रकाश से कुछ अवरोध होता।

क्षेत्र बहुत विशाल-समृद्ध, अतः सौभाग्यशाली कि हूँ प्रकृति-गोद

फिर निज समय, अध्ययन-लेखन के लिए काफी समय उपलब्ध॥

 

मैं गाना चाहता प्रकृति के संग, रग-रग में संगीत स्फुटित करना

एक-२ पल इसमें आह्लादित होकर, जीवन को महकाना चाहता।

चाहूँ अति संगीत-तानों से इस कलम द्वारा, कुछ रुचिकर हो जाए

समय का संपूर्ण उपयोग, जीवन सार्थक बनाने में सफल हो जाए।


 

पवन कुमार,
08 नवम्बर, 2104 समय 17:07 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 10 अक्टूबर, 2014 समय 09:18 प्रातः से )
  


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