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Saturday 18 July 2015

परस्परता

परस्परता 
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विघ्नेश्वर, दुःख-भंजक, कष्ट-हर्ता, दीनदयाला, मसीहा 
पालक, उत्प्रेरक, गुरु, अवतार, ईश, मित्र व संबल-दीना। 

कष्ट हमारे रोज का अनुभव, दुःख होता जब क्षीण शक्ति 
आकस्मिक कुछ बवाल आ जाता, न ज्ञात कैसे हो मुक्ति ?
माना हर समय, सब पहलू हेतु तैयारी न की जा सकती 
तथापि आवश्यकता पर, सचेतता-आशा की जा सकती। 

समस्या महद, स्व-बल अल्प, परमुखापेक्षी बन हल ढूँढे 
विशेषज्ञ बैठे सहायतार्थ, बस सम्पर्क और शुल्क सूझे। 
सभी कहीं न कहीं बाधित, बहुदा अन्य बनते हैं सहाय 
बड़ा कारक - निदान, चेतन माँगे समय-ऊर्जा व उपाय। 

दिन-प्रतिदिन रोधक लेते परीक्षा, झझकोरते कि तुम हो क्या
कैसी अतिश्योक्ति, आत्म-मुग्धता, जग चैन से न बैठने देता। 
सर्व  झँझट ऊर्जा माँगते, शक्तिवान होना आवश्यक कदम, 
एक-2 श्वास शक्ति पर निर्भर, अतः चेष्टा है ही अत्युत्तम। 

हम कितने दूजों पर निर्भर, समय आने पर ही पता चलता 
हर समस्या का बड़ा पेंच, निदान सुदिशा-निर्देश माँगता। 
लोगों के पास जाओ, पक्ष समझाओ तो किञ्चित बात बनेगी 
जग न मानता मात्र पैरवी, वहाँ आपकी प्रतिबद्धता दिखेगी। 

भ्रांति, पथ-अदर्शित, चेष्टा खोखली, वीर भी बने क्षीण    
बंद द्वार, अंध-कक्ष, आक्रान्ता -भय, हैं जन्म-मरण प्रश्न। 
ऐसे में कोई ईश्वर, सहायक को ध्याऐ तो क्या आश्चर्य है 
माना एक-दूजे की जरूरत, कभी तुम्हें तो कभी हमें। 

क्या अस्तित्व, कुछ निजावलोकन व पर-सहायता अवश्य 
बड़ी शक्तियाँ, निदान कठिन, स्व-बल से नहीं है सम्भव। 
बहुदा नरों से याचना न सम्भव, या उनके बस में न लगता,
क्यों न माँगे बड़े दाता से, सबकी सुनता या हम देते सुना। 

वह तो हम मूक आत्मा की गूँज, कम से कम लेते हैं रो  
उससे जी हल्का हो जाता, आता है रोष के बाद होश। 
चिंतक-मन संभावनाऐं समक्ष लाता, प्रस्तुत विमल-यश 
मस्तिष्क सर्व-दिशा हाथ-पैर मारता, समाधानार्थ प्रयास। 

किञ्चित ईश अबलता प्रतीक न, चाहते जब होते कष्ट में 
देखते उसकी ओर मुँह उठा, क्षीणताओं को समक्ष रखते। 
ज्ञात तो न कितना होता समाधान, स्व-चेष्टा लाती कुछ रंग 
जीवन दाँव पर कुछ करना पड़ेगा, साँस सस्ते में न छूटत। 

दिगम्बर सब दिशा-त्राटक, स्व-अनुभूति समस्त से युग्म  
नहीं संकुचित वह स्वार्थों में, वृहत से आत्मसात, संगम। 
सब उपाय उपलब्ध निकट, जरूरत जांचने-साधने की 
विश्व-परमानुभूति में व्यस्त, समस्या है तो निदान भी। 

कहावत कि 'एक की दारू दो बतलाई, दो की चार दवाई,
दोनों हाथ पकड़ लिए कसकर, कुछ न पार बसाई' सुनाई 
विपत्ति हर जीव पर आती, श्रद्धा से कुछ समाधान-सच्चाई।  
राम पर विपत्ति लक्ष्मण मूर्छित, हनुमान सहायक लाए बूटी 
पांडव-दुर्दिन - कृष्ण सहाय, गीता अर्जुन को त्राणार्थ सुनाई। 

हम बन्दें पहचानते शनै-2, रंग बदनाम पर भी करते विश्वास  
कुछ लेते विवशता का अनुचित लाभ, हम रहते लोक-लाज। 
जग आपसी विश्वास पर चलता, कुछ तो निस्संदेह हैं समझते  
हम अंदर से कितने पवित्र, पैमाना इसका शील-व्यवहार है। 

सुख में समझते स्व को श्रेष्ठ, किंचित ईश्वर को भी ललकारते 
माना वह भी एक कल्पना, समाधान तो सदा आस-पास है। 
 चित्रांकन होता नेत्र खुलने से ही, दूर-विस्तृत से प्रेरणा लेने से 
दिग्गज विस्मित करते बल से, छोड़ों-निकलो झंझावतों से। 

बनो सबल, सुवाणी, संपर्क साधो, कहीं भी कोई आए काम 
आज उसके, कल वह तुम्हारा, औकात पता होनी चाहिए। 
आपसी-हित, कालिक सहायता, मैं बीज़ - वह फसल देती 
अपेक्षा-आदर, सामना दुर्भावना से, पलायन तो उचित नहीं। 

पवन कुमार,
18 जुलाई, 2015 सायं 18:19  
(मेरी डायरी 21 मई, 2015 समय 8:44 प्रातः से)


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