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Sunday 15 May 2016

सहिष्णुता

सहिष्णुता 
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क्या पैमाना है निज-निष्ठा का ही, राष्ट्रभक्ति और देश-प्रेम का

बस कुछ संवाद पुनरावृत्त, लो हो गया अनुष्ठान सर्व-क्षेम का॥

 

क्यों एक मात्र सोच रखना ही इच्छा, विरोध तो नहीं स्वीकार

हमारा कथन ही सत्य, अन्यों को मनन-कथन नहीं अधिकार।

परिवेश निरत बस एक विचारधारा का, अन्य तो घोषित द्रोही

चाहे विवाद का मूल- ज्ञान न हो, पर संगठित हो उवाच सही॥

 

एक विशेष रंग- संवादों में ही, देश-प्रेम प्रदर्शन की इति-श्री

क्या दैनंदिन यथार्थ आचार है, उसमें तो श्रेष्ठता न झलकती।

प्रकृत्ति प्रदत्त सबमें मस्तिष्क है, अपनी सोच का भी महत्त्व

यावत न सार्वजनिक हित-बाधक, सहिष्णुता हो मूल-सत्त्व॥

 

सब समय की विचार-धाराओं में, दक्षिण- वाम रहता है सदा

 मस्तिष्क द्वि-कक्ष, दो लिंग, दो कर-पैर, सहकार टाले विपदा।

सभी को निजी सोच रखने की स्वतंत्रता, चाहे न हो सर्व-मान्य

चिंतन भी विकास- दौर से गुजरे, अनेक स्वतः होते अमान्य॥

 

क्या परिवेश किसी देश का, कैसे विज्ञ करते आचार-व्यवहार

 जब शिक्षा-अर्थ उन्मुक्त न होने दो, कैसे पनपेगा स्वच्छ प्यार?

सभी किसी स्तर पर एक काल, परिस्थिति अनुकूल ही मनन

कथित विकसित-कर्त्तव्य भी, उचित-समन्वय निर्माण सदैव॥

 

वैचारिक स्वतंत्रता हो सर्वाधिकार, उस पर संभव तर्क-वितर्क

कुछ आदान- प्रदान सिलसिला, शुभ मंशा से आदर-परस्पर।

सब मनुज स्व-कक्ष में रखना, क्यों तुम देते अंत्यज्य संज्ञा नाम

उच्च-भावना जन्म की सर्व-जन में, पूर्ण-भाव से ही कल्याण॥

 

विभिन्न काल-अवतरित विश्व-चिंतक, अनावश्यक सम सोच है

अनुसरण रुचि-परिवेश अनुरुप है, मन विकसित समय ही से।

मनीषी-चेष्टा भी पूर्ण-समाधान हेतु, पर सब न हो पाते आकृष्ट

सकल चिंतन तो सर्वदा अलब्ध, सत्य भी तो है मनन-अनुरुप॥

 

शिक्षणालय है एक विज्ञता-कुञ्ज, श्रेष्ठ-बुद्धि परिचित विधाओं से

हैं असम साहित्य-रूचि, एक काल-प्रगति, अमान्य कलाओं में।

क्या सब घोषित आचरण सटीक हैं, पूर्ण नियत-प्रशासन तंत्र में

विद्वान गहन सोचते हैं, सीमा-अतिक्रमण पर प्रश्न-चिन्ह लगाते॥

 

सब प्रजा यहाँ धरा-वासी, प्रत्येक का सम्मान हर की जिम्मेवारी

सबकी जान-माल सुरक्षा, स्वार्थ तज पूर्ण-पनपाने में भागीदारी।

निरंकुश नृप तो अनेक हुए हैं, आम-जन निर्धन का शोषण अति

दमन-प्रवृत्ति घातक, कुपरिवेश, अविकसित रह जाती संस्कृति॥

 

आओ मिल-बैठ करें विचार-विमर्श, सर्वोत्तम चेष्टा हेतु मंथन हो

हर मनुज का पूर्ण-भाव विकास हो, मात्र आडंबरों में न उलझो।

ऋतु-परिवर्तन सदा-काल की माँग, घोषित कर दो सब एकसम

आचार-शैली हो संचालित, अतिशय परस्पर- स्नेह वर्धन अयत्न॥

 

परस्पर सौहार्द-आदर भावनाओं का, सर्व मनुज-जाति एक ही

पर किंचित स्वार्थ छोड़ दो, सबके गृहों में हो समृद्धि-शांति ही।

पड़ौसी प्रति हो प्रेम का रिश्ता, सब एक से हैं मान लो हृदय में

तजो असमता-भेद प्रत्यक्ष आचार में, जुड़ेंगे सर्वांग देश-धर्म में॥

 

भारतीय संस्कृति अति-समृद्ध, अनेक भाँति विचारक अवतरित

जीवन एक स्थल न सिमटा, सर्व-दिशा देश-परिवेश से युजित।

शनै विश्व एक ग्राम में परिवर्तित, आपसी मेल-निर्वाह अनिवार्य

क्यों अविश्वास ले अश्वत्थामा सम शापित, प्रेम-मंत्र ही है यथार्थ॥

 

त्यागो घृणा, बढ़ाओ बंधु-स्नेह, स्व-जन द्रोह अति महद-संक्रमण

विशालोर बनो रविंद्रनाथ सम, विश्रुत-सम्मान, करो मृदुल चिंतन।

विश्व-बंधुत्व की बात करने वाला देश, यूँ आवेश में न सकता रह

सर्व-दायित्व, महावीर-संदेश 'जिओ और जीने दो' का अनुसरण॥

 

विरोध भी नहीं बुरा, पर अन्य को घृणित संज्ञाओं से न करो मंडित

ऐक्य-अनिवार्य संप्रभुता हेतु, अन्यथा कुविचार कर सकते खंडित॥


पवन कुमार, 
१७ मई, २०१६ समय २३:२० म० रात्रि   
(मेरी डायरी दि० १८ फरवरी, २०१६ समय ९:५१ प्रातः से)


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