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Sunday 17 July 2016

सुपथ-मनन

सुपथ-मनन 
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कौन ज्ञान कहाँ-उदित, जब सामान्यतया तो हम होते निस्पंद

विशेष परिस्थिति में विद्वान बनें मनुज, भावमय होते हैं शब्द॥

 

कहाँ से व्याख्यान- शक्ति मिलती, कौन जोड़ता तंतु-अवयव

कैसे भिन्न पहलू होते हैं समन्वित, संचित होता कुछ अनुभव?

स्मृति पटल से बहु-तथ्य हैं समक्ष, मस्तिष्क करता फिर योग

कर्म-ज्ञान इंद्रियाँ होती संचालित, वाणी-प्रवाह करता उद्योग॥

 

प्रतिदिन बहु जीवन-परिस्थितियों में, वक्ता है दर्शित ज्ञान-पुँज

सदा तो सामान्य ही दिखता, बन कैसे जाता है सरस्वती-कुञ्ज?

विभिन्न विषयों या स्व-क्षेत्र में, मूढ़ भी कई बार दर्शित है प्रवीण

अंधों में काना राजा बनता', प्रत्येक समूह विशेष में हैं सर्वांगीण॥

 

सत्य ही श्रेणी है अल्पज्ञ-सुविज्ञों की, यदि उपलब्ध ज्ञान हो वर्णन

पर आवश्यक न कोई हर जगह पारंगत, सदा सर्वत्र हो धुरंधर।

सामान्यतया नर स्व-क्षेत्र में श्रेष्ठ, तुलना करना है मात्र हास्यस्पद

विद्या कराती संपर्क बहु-कलाओं से, जीव में सक्रियता-उत्तंग॥

 

कौन प्रेरणा सुप्तावस्था से जागृत करा, सामान्य से निकाले पार

उद्योग मन-वाणी-कर्म से, स्वछंद खग की सुदूर गगन-उड़ान।

मनुज मन-उद्विग्नता निम्नावस्था की, हर उद्योग स्व-स्थिति सुधार

अप्रमुदित तम-रज वृत्ति-आचरण में, सत्त्व में ही हो आविष्कार॥

 

कैसे मन के लवें बदलते, परिष्कृत मनोभाव-आचरण-व्यवहार

संस्कृतिकरण या उच्चावस्था-संपर्क प्रयास, बनता जीवन-भाग।

प्राणी श्रेष्ठता ग्रहण-अधिकारी, विस्तृत विश्व प्रदत्त करे कर्म-क्षेत्र

जितना चाहो - चूम लो, फैलाओ झोली होवों स्व-सीमा से अग्र॥

 

बहु-दोष प्राणी-तत्व में, महत्वाकांक्षा कराऐ आदर्श-साक्षात्कार

एक गुण- संपर्क स्थापन चरित्र में, अन्य प्रदोष शनै होते बाहर।

उत्तरोत्तर वृद्धि विस्तृतता-दिशा में, मनुज बन सकता ब्रह्म-अंश

यह एक उच्च मन-भाव से संपर्क, सर्व-युक्ति कराती निज-यत्न॥

 

कैसे मनन होता उच्चतम भाव में, सर्व-प्रेरणा कराए अग्रसरित

मनुज देखता संभव श्रेष्ठ-तल को, प्रयासरत सतत स्व-स्फुरित।

न आकांक्षा कर्म-कांड हो जड़ित, बनूँ कुछ प्रज्ञान-विज्ञान भिक्षु

बुद्ध सम किंचित स्पष्ट-द्रष्टा, सर्व-कल्याण को ही खोले हैं चक्षु॥

 

शिव सी निमील- अम्बकम गहन-ध्यान मुद्रा, क्या अध्याय-चिंतन

क्या मात्र मनन-सुधार हर ग्रंथि का, या सर्व-स्रष्टि हेतु है निमंत्रण?

बहु-अवरोध हैं आम जन को निर्वाह में, शृंखला-निर्मूल हेतु प्रयास

हर कली विकसित पूर्ण पुष्प में, प्रमुदित-समर्पण से फैले सुवास॥

 

कैसे ज्ञात हो परम-लक्ष्य मन में, अति-पीड़ा अल्प-निम्नावस्था में

जप-तप, स्वाध्याय-प्राणायाम साधना हेतु, दुर्लभ कर-बद्धता में।

मनुज तन मिला हैं अल्पकाल हेतु, कितना हो सकता स्तर-वर्धन

रत्नाकर से वाल्मीकि बना है, भंड से बाणभट्ट या सिद्धार्थ से बुद्ध॥

 

किस परमोचित के अन्वेषण से, मन विव्हलित होता दिवस-निशा

न मात्र वाकपटुता-रुचि, अपितु मौन-धैर्य-सहनीयता ही हैं दिशा।

निज श्रेष्ठ स्वरुप दृश्य भी है अति-निम्नाकांक्षा, हाँ गुण प्रसार गति

आवश्यक न नित प्रमुदित भाव हों, स्तर-ऊर्ध्व संघर्ष-घर्षण से ही॥

 

अनेक चिंतक हैं सर्वोत्तम झलक को, सात्विक-भाव से मृदुल चिंतन

देव के विभिन्न नाम दिए जाते हैं, गुण-दर्शन एवं आचरण में मंथन।

परम में लय तो बदला स्व-सकल, दीन परिष्कृत है सर्वाधिक समृद्धि

आशीर्वाद श्रेष्ठ का तो उन्नति निकट, चिंता न है किसी अवरोध की॥

 

इस अल्प को भी सुपथ दिखा, दीर्घ-काल बीता है बेतुके संवादों में

जग के अन-सुलझे प्रपंचों से बहिर्गमन, शक्ति निज-बात कहने में।

व्यवहार-निपुण बना कर्त्तव्य-सुनिर्वाह को, स्थिति होगी सुसम्मानित

कार्य प्रदत्त तो पूर्ण करेंगे ही, भागना न लक्ष्य, दर्शाना साहस-निज॥

 

कुछ अनुपम क्षण अतएव भी दो, संपर्क पाकर तुमसे हो आत्मसात

सीमित मात्र मनन तक न रखना, व्यवहार में भी अवश्यमेव सुभाव॥


पवन कुमार,
१७ जुलाई, २०१६ समय ४:00  बजे अपराह्न  
(मेरी डायरी दि० ११ फरवरी, 2016 समय ९:२८ बजे प्रातः से) 

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